Tuesday, April 13, 2010
जीएम भांटे का नहीं ट्रांसजेनिक चिकेन का लुत्फ उठाइये
वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि जीएम चिकन के विकसित कर लेने से मिली सफलता से अब भेड़, बकरी और अन्य पशुओं की ट्रांसजेनिक प्रजाति विकसित करने की उम्मीद बढ़ गई है। साथ ही इससे बर्ड फ्लू की बीमारी को रोकने में सफलता मिलेगी।
हैदराबाद के पोल्ट्री निदेशालय के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर टी. के. भट्टाचार्य के नेतृत्व वाली वैज्ञानिकों की टीम ने कम अवधि में अत्यधिक उत्पादकता मुर्गी विकसित करने में सफलता प्राप्त की है। इस विधि में मछली की एक खास प्रजाति के जीन को मुर्गी में डाल दिया गया। फिलहाल यह सफलता प्रयोगशाला के स्तर पर मिल गई है, जल्दी ही इस प्रौद्योगिकी को व्यावसायिक उत्पादन के लिए जारी कर दिया जाएगा।
जेली फिश के ग्रीन फ्लोरोसेंट प्रोटीन जीन के माध्यम से ही ट्रांसजेनिक चिकन विकसित करने में कामयाबी मिल पाई है। जेलीफिश की चमकार भी मुर्गे की पंख को मिल गई है। इस खास जीन को पहले मुर्गे में डाला गया, जिसे उसके वीर्य का प्रयोग मुर्गियों में किया गया। इसके बाद इन मुर्गियों के 263 अंडों से जो चूजे निकले, उनमें से 16 ट्रांसजेनिक पाए गए। इन रंगीन पंख वाले ट्रांसजेनिक चिकन की नियंत्रित वातावरण में जांच पूरी की गई।
अपनी इस ईजाद से बेहद उत्साहित वैज्ञानिकों की मानें तो ट्रांसजेनिक चिकन से पोल्ट्री क्षेत्र में क्रांति आ जाएगी। इसमें मिलने वाला प्रोटीन मानव व पशु दोनों के लिए फायदेमंद साबित होगा। जल्दी ही इस प्रौद्योगिकी को लोगों के उपयोग के लायक बना दिया जाएगा।
Sunday, April 11, 2010
मुट्ठीभर चारे के भरोसे श्वेतक्रांति का सपना
बजट आवंटन को पशुओं की संख्या के हिसाब से देखें तो प्रत्येक पशु के हिस्से सालाना सवा दो रुपये का खर्च आता है। यह आवंटन चारा विकास योजना के लिए किया गया है। डेयरी विकास से जुड़े लोगों का कहना है कि सरकार एक ओर तो इस क्षेत्र में छह प्रतिशत की विकास दर का लक्ष्य तय कर रही है, वहीं दूसरी ओर पशुओं को भरपेट चारे की व्यवस्था तक नहीं की गई है।
पशुओं के लिए घरेलू चारे की पैदावार जरूरत के मुकाबले 40 फीसदी ही होती है। हरा चारा तो दूर, पशुओं का पेट भरने को सूखा चारा भी उपलब्ध नहीं है। चारे की मांग व आपूर्ति में भारी असंतुलन है। एक आंकड़े के मुताबिक दुधारू पशुओं के लिए हरे चारे की सालाना मांग 106 करोड़ टन है, जबकि आपूर्ति केवल 40 करोड़ टन ही है। सूखे चारे की 60 करोड़ टन की मांग के मुकाबले आपूर्ति 45 करोड़ टन हो पाती है। हरा चारे में 63 फीसदी और सूखा चारे में 24 फीसदी की कमी बनी हुई है। मांग आपूर्ति का यह अंतर सालों साल बढ़ रहा है।
महंगाई के इस दौर में पशुओं के लिए मोटे अनाज, चूनी और खल के मूल्य भी बहुत बढ़ गये हैं। दुधारू पशुओं के लिए पौष्टिक तत्वों की भारी कमी है। ऐसी सूरत में दूध की उत्पादकता पर विपरीत असर पड़ रहा है। यही वजह है कि दूध की मांग के मुकाबले आपूर्ति नहीं बढ़ पा रही है, जिससे कीमतें पिछले एक साल में सात रुपये से 10 से १५ रुपये प्रति किलो तक बढ़ी हैं। देश में आधे से अधिक पशु भुखमरी के शिकार हैं।
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Tuesday, March 30, 2010
आईपीएल टीम बनाम दूसरी हरितक्रांति
कहते हैं, महंगाई को ठंडा करने के लिए वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने दलहन की उपज बढ़ाने को 300 करोड़ की घोषणा कर संसद में खूब वाहवाही लूटी। लोगों को बताने के लिए सरकार महंगाई से आजिज है। इसीलिए
दलहन व तिलहन की उपज बढ़ाने का फैसला किया है। वित्तमंत्री मुखर्जी ने बजट भाषण में जोर देकर कहा था कि आजादी के 60 सालों बाद भी दाल व तेल के मामले में देश आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। इसके लिए आम बजट में 300 करोड़ रुपये की लागत से 60 हजार गांवों को दलहन व तिलहन गांव के रुप में विकसित किया जायेगा। असिंचित क्षेत्रों से ऐसे गांवों का चयन किया जायेगा। इससे जल संरक्षण, संचयन और मिट्टी की जांच भी की जायेगी। उनकी इस घोषणा पर संसद में सत्ता पक्ष ने जमकर मेजें भी थपथपाई थी।
बजट के इस प्रावधान से प्रत्येक गांव के हिस्से 50 हजार रुपये आयेगा, जिस पर योजना के सफल होने पर संदेह है।
सरकार की इस योजना की "गंभीरता" पर कृषि संगठनों ने भी सवाल खड़ा किया। दरअसल, दलहन खेती की जमीनी मुश्किलों से सरकार वाकिफ नहीं है। दलहन खेती के लिए उन्नतशील बीज, वास्तविक न्यूनतम समर्थन मूल्य और जंगली जानवरों से मुक्ति के उपाय करने होंगे। नील गायों की बढ़ती संख्या ने दलहन खेती को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, खासतौर पर अरहर और उड़द को। प्रोटीन वाली दलहनी फसलों में रोग भी बहुत लगते हैं। देश में उन्नतशील प्रजाति की दलहन फसलो के बीज हैं और न ही इसके लिए जरूरी खादों का उत्पादन होता है। मजेदार यह है कि दलहन खेती के लिए जरूरी सिंगल सुपर फास्फेट और फास्फोरस वाली खादें बनती ही नहीं है। क्यों कि खाद कंपनियों को इसमें फायदा नहीं होता। दलहन फसलों की खेती भी वहीं होती है जहां की जमीन सबसे खराब होती है। किसान जानबूझकर अच्छे खेतों में इसकी बुवाई नहीं करता है। खासतौर पर इसकी खेती असिंचित क्षेत्रों में ज्यादा होती है। भला कहां से बढ़ेगी दलहन की उत्पादकता? उत्पादकता का आलम यह है कि हम बांग्लादेश और श्रीलंका से भी पीछे हैं।
सरकारी जांच के भरोसे पियेंगे पानी तो......
अपने गांव व मुहल्ले के कुएं अथवा हैंडपंप से पानी पी रहे हों तो खुद जांच परख कर ही पियें। सरकार के भरोसे नहीं। सरकार साफ पेयजल देना तो दूर वह आपको पेयजल की गुणवत्ता भी नहीं जांच सकती। पूरे देश में जिला मुख्यालय के नीचे ऐसा कोई तंत्र नहीं है जो पानी की गुणवत्ता जांच सके। 14 राज्यों के 50 से अधिक जिला मुख्यालयों पर भी यह सुविधा नहीं है।
केंद्र सरकार ने वर्ष 2012 तक सबके लिए स्वच्छ पेयजल आपूर्ति की घोषणा की थी। लेकिन केंद्र से लेकर राज्य सरकारों की सुस्त चाल से साफ पानी पिलाने का वादा पूरा होता नहीं दिख रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की जांच के लिए सालाना 1.60 करोड़ नमूनों के परीक्षण होने चाहिए लेकिन राजीव गांधी पेयजल मिशन के तहत हुए सर्वेक्षण के ताजे आंकडे़ बताते हैं जिला मुख्यालयों में पानी की जांच के लिए बनी प्रयोगशालाओं में से 70 फीसदी निष्क्रिय हैं। उनमें न आधुनिक उपकरण हैं और न ही पर्याप्त कर्मचारी।
सबसे बुरा हाल उत्तरी क्षेत्र के राज्यों के भूजल का है, जहां पानी में फ्लोराइड, आर्सेनिक, नमक, लोहा और नाइट्रेट जैसे घातक तत्वों की मात्रा बहुत अधिक है। गंगा व यमुना के मैदानी क्षेत्रों के भूजल में उत्तराखंड से लेकर पश्चिम बंगाल तक खतरनाक तत्व मिले हुए हैं, जिसे पीने से यहां के लोगों में कई तरह की बीमारियां हो रही हैं। पंजाब व हरियाणा के भूजल में सोडियम, नाइट्रेट और अन्य घातक तत्वों की मात्रा घुली हुई है। हाल के एक सर्वेक्षण रिपोर्ट में राज्यों के जल निगमों व आापूर्ति विभागों पर टिप्पणी की गई है।
राजीव गांधी पेयजल मिशन आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड के 13 जिलों में से 10 जिला मुख्यालयों पर अभी तक पानी की जांच की सुविधा नहीं है। परीक्षण प्रयोगशाला खोलने में उत्तराखंड, पंजाब, नगालैंड, जम्मू-काश्मीर, चंडीगढ़, बिहार और महाराष्ट्र फिसड्डी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और झारखंड में जिला मुख्यालयों पर प्रयोगशालायें तो हैं लेकिन वहां जांच शायद ही होती है।
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Monday, March 22, 2010
पूर्वांचल की बेहाली पर सिर्फ उफ् उफ्...
पूर्वांचल का नाम आते ही जेहन में अपराध, अपराधी, गोली, बंदूक, राइफल, आतंक और आतंकी उभरने लगते हैं। संजरपुर, सैदपुर, आजमगढ़, गाजीपुर व मऊ दिखने लगता है। न बनारस का विद्वत मंडल न मऊ की अद्भुत रेशमी साडि़यों के ताने-बाने और न जौनपुर की शान सुनाई पड़ती है। जिला जवांर, गांव-गिरांव और कस्बे व चट्टियों के मोड़ और चौराहों पर चौतरफा अपराध व अपराधियों की चर्चा आम है। यानी, लोगों में चर्चा का विषय यही सब है। वजह जो भी हो, लेकिन सबसे बड़ी वजह है बेरोजगारी, गरीबी और बदलते परिवेश वाली शिक्षा का अभाव। कहने को कहा जाता है, सघन शिक्षालयों की भरमार है। बनारस में तीन विश्वविद्यालय और न जाने कितने महाविद्यालय हैं। पड़ोस के जौनपुर में पूर्वांचल विश्वविद्यालय, कोई २०० किमी दूर गोरखपुर विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय। इनसे जुड़े सैकड़ों की संख्या में महाविद्यालय। सब कुछ तो है। इससे इनकार कौन कर सकता है। रोजी-रोटी की जरूरत वाली शिक्षा का अभाव है। आगे बढ़ने के प्रयास अभी भी शुरु नहीं हो सका है। कुछ निजी संस्थान खुले जरूर लेकिन गुणवत्ता के स्तर पर बहुत पीछे हैं। यानी शिक्षा के स्तर पर आगे रहने वाला पूर्वांचल पिछड़ रहा है। ध्यान किसी का आखिर इस ओर क्यों नहीं है। समाज को आगे लेने जाने वाला दूसरा वर्ग राजनीतिकों का है जो गर्त में समाता जा रहा है। ग्राम प्रधानी, ब्लॉक प्रमुखी, जिला परिषदी ही नहीं विधा्यक और सांसद भी अपराधी चुने जाने लगे हैं। बड़े शान से लोगों में उन्हीं चर्चा भी होती है। अफजल, मुख्तार, उमानाथ, रमानाथ, धनंजय, हरिशंकर, शाही और न जाने कितनों के नाम हैं, जिनके नामों को चौराहों की दुकानों पर महिमामंडित किया जाता है। युवा वर्ग उन्हीं से प्रेरणा भी लेता है। बस हो गया कल्याण? गिरावट का अंदाजा लगाया जा सकता है। सभी विकास के कार्यों में परसेंट यानी हिस्सा मांगते हैं। यही उनकी हनक भी है। गिरावट इस स्तर तक पहुंच गई है, जो लोगों में घर करते जा रही है। रोकने वाला कोई नहीं है। राजनीति के मार्फत जिन्हें नेतृत्व करना था, उस पर इन अपराधियों का कब्जा है। कबीर, गौतम बुद़ध और गुरु गोरक्ष के इस पूर्वांचल में अब दुख ही दुख है। इसके माथे पर कहीं संजरपुर है तो कहीं गरीबी, बेकारी और भुखमरी का कलंक। पूर्वांचल की उपेक्षा पर यहां के लोग भी शायद ही सोचते हैं। और सोचते हैं तो फिर मन मसोस कर उसी भीड़ का हिस्सा बन जातें हैं तो इन अपराधियों का रोज सुबह-शाम महिमामंडित करती रहती है। मैं आपको पूर्वजों की गौरवगाथा सुनाकर अपना ज्ञान नहीं परोसना चाहता, जिससे शायद सभी परिचित हैं। ब्यूरोक्रेशी में अपनी मजबूत पैठ के बूते हम पूरे देश में जाने जाते थे। अपने ज्ञान-विज्ञान के लिए। लेकिन अब तो हालात बिगड़े नहीं बल्कि बदतर हो गये हैं। गरीबों की एक बड़ी फौज रोजाना ट्रेन में लदकर दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता अथवा हरियाणा के शहरों की ओर रुख कर देते हैं। लेकिन वहां भी दुख ही उठाते हैं। लेकिन यह दुख तब और बढ जाता है जब परदेस गये युवा एड़स लेकर लौटते हैं। उनकी ही नहीं बल्कि युवा पत्नियों की जवानी तिल-तिल कर मरने लगती है।यह सब क्यों हुआ। सवालों का ढेर आज बस पूर्वांचल के दुखों को और बढ़ा रहा है, जिसका जवाब भला कौन देगा? वो नेता जो पूर्वांचल के अलग राज्य की मांग रख रहे हैं? झूठ-फरेब और झूठ.....। झांस में तो आ चुका है पूर्वांचल। अपराधियों के, धूर्त और मूर्ख राजनीतिकों के। इससे जाल बट्टे से निकलने में भी बड़े पेंच हैं।
Monday, March 15, 2010
भंडार भरे हैं पर पेट खाली
Sunday, March 14, 2010
जो कुछ देखा पार्लियामेंट में..हैरानी, हैरानी और बस हैरानी
उसके बाद अब क्या हो रहा है। सुनिये, अंदर-अंदर मेल मुलाकात, मान-मनौव्वल, माफी-नामाफी और न जाने कौन-कौन सी सियासी चालें चली जा रही हैं। उपसभापति भी हैरान होंगे क्योंकि गैर राजनीतिक होने से उन्हें भी भारी सांसत सहनी पड़ रही होगी। राजनीतिक दांव पेच की बात है। देखो भला। नेता विपक्ष यानी भाजपा नेता अरुण जेटली ने उनके इस कृत्य के लिए सदन में खेद ही नहीं व्यक्त किया, बल्कि माफी भी मांगी। प्रधानमंत्री को नागवार गुजरा, उन्होंने भी इसमें देऱ लगाई। लेकिन भइया उन्होंने माफी मांगना तो दूर खेद व्यक्त करना भी मुनासिब नहीं समझा, जो इसके लिए शत प्रतिशत जिम्मेदार थे। इसके विपरी अब उन्हें अपने निलंबन से बहाली चाहिए, जो शायद हो भी जाये। सियासी दांव के इस खेल में वहीं होगा जो राजनीतिक ऊंट कहेगा, यानी जिस करवट बैठेगा। राजनीतिकों के लिए न नियम है और न ही कानूनी बंदिश। भला कोई इस तरह सदन में गिलास तोड़ खुदकशी अथवा दूसरे पर हमला करने की कोशिश करे तो क्या कार्रवाई होगी। सभी को पता है। लेकिन ये माननीय सदन के भीतर संप्रभु हैं, उनके उपर न पुलिस की चलेगी और न ही किसी कानून का अंकुश है। जल्दी ही वे बाइज्ज बहाल भी हो सकते हैं। आप भी टीवी पर उन्हें लाइव देख सकते हैं।