जलवायु परिवर्तन के नुकसान ही नहीं फायदे भी हैं। कृषि क्षेत्र के जानकारों का दावा है कि भारत में खेती को इसका फायदा मिला है। वैश्विक स्तर पर गेहूं व चावल जैसे अनाज की पैदावार में बढ़ोतरी हुई है तो उसके पीछे जलवायु परिवर्तन का भी हाथ है। इस संबंध में हुए अध्ययन से यह तथ्य भी सामने आया है कि देश के कई हिस्सों का औसत तापमान बढ़ा तो कुछ जगहों पर घटा भी है। आईसीएआर के ताजा अध्ययन में इस तरह का खुलासा किया गया है।
कृषि मंत्रालय के अधीन भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने अपने हाल के एक अध्ययन में यह खुलासा किया है। जलवायु में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ने से गेहूं, चावल और तिलहन की फसलों को जहां बहुत फायदा हुआ है, वहीं मक्का, ज्वार, बाजरा और गन्ने की फसल के लिए यह फायदेमंद नहीं रहा है।
अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक मौसम में भारी उतार चढ़ाव का सीधा असर खेती पर पड़ा है। महाराष्ट्र में प्याज की खेती का खास अध्ययन किया गया, जिसमें 1997 की रबी फसल में तापमान के बहुत बढ़ जाने से प्याज में गांठ नहीं पड़ी। इसी तरह अगले साल 1998 में भारी बारिश हो जाने खेत में खड़ी प्याज की फसल में कई तरह की बीमारियों का प्रकोप हो गया और फसल चौपट हो गई। यह सब जलवायु परिवर्तन का प्रभाव था।
इसी तरह हिमाचल प्रदेश का सेब उत्पादक क्षेत्र बदल गया। कम सर्दी और बर्फ कम पड़ने के चलते फसल का क्षेत्र परिवर्तित होने लगा है। कई ऐसे नये क्षेत्रों लाहौल और स्पीति में सेब की खेती होने लगी, जहां नहीं होती थी। आईसीएआर के अध्ययन में 1901 से 2005 के बीच के जलवायु के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया, जिसमें पाया गया कि तापमान में वृद्धि पिछले पांच दशकों में सर्वाधिक हुई है।
आंकड़ों के विश्लेषण में हैरान करने वाले नतीजे सामने आये। देश के 47 प्रमुख स्थानों पर पिछले 50 सालों के तापमान के आंकड़ों में पाया गया कि केंद्रीय, दक्षिण और पूर्वोत्तर में तापमान बढ़ा है। इसके मुकाबले गुजरात, कोकण क्षेत्र, मध्य प्रदेश के पश्चिमोत्तर और पूर्वी राजस्थान का औसत तापमान घटा है।
2007 में गठित इंटर गवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के नतीजे के मुताबिक तापमान में तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से फसलों की उत्पादकता बढ़ सकती है। लेकिन आईसीएआर ने स्पष्ट किया है कि अगर तापमान इससे अधिक बढ़ तो खाद्यान्न की उत्पादकता पर विपरीत असर पड़ना तय है।
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Sunday, June 20, 2010
Friday, June 4, 2010
कूपन की राशन प्रणाली से पैदा होगा नया तेलगी
खाद्य सुरक्षा कानून कितने गरीबों को दिया जाएगा? उनकी संख्या क्या है? जिस सार्वजनिक वितरण प्रणाली जरिये अनाज दिया जाना है वह तो ध्वस्त हो चुकी है। यह कहना है योजना आयोग के पूर्व सचिव व गरीबों की संख्या के आंकलन के लिए गठित कमेटी के अध्यक्ष डॉक्टर एन.सी. सक्सेना का। उनकी रिपोर्ट में देश की आधी ग्रामीण आबादी गरीबी रेखा से नीचे जी रही है। वह कहते हैं कि योजना का संचालन करने का वाला खाद्य मंत्रालय खुद इसकी जड़ें काटने में जुटा है। बढ़ती खाद्य सब्सिडी वित्त मंत्रालय की आंखों में खटकती रहती है। प्रस्तुत है डा. सक्सेना और सुरेंद्र की बातचीत के अंश।
गरीबों के आकलन के लिए गठित दूसरी कमेटियों से आपकी रिपोर्ट बिल्कुल अलग क्यों है?
बीपीएल की पहचान के तरीके बताने के लिए सक्सेना कमेटी बनाई गई थी। लेकिन बाद में गरीबों की संख्या का अनुमान लगाने को भी कह दिया गया। बहुत विस्तार में जाने के बजाय मैंने भारत सरकार के 1975 में बनाये मानक पर ही अमल किया। इसके मुताबिक 2400 कैलोरी से कम खाने वाले ग्रामीण गरीबी रेखा से नीचे माना गया है। इस मानक के आधार पर तीन चौथाई ग्रामीण बीपीएल वर्ग में हैं।
देश की 50 फीसदी आबादी को गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाला (बीपीएल) बताने के पीछे का क्या आधार है?
ग्रामीण क्षेत्रों के बॉटम गरीबों की 30 फीसदी आबादी में अनाज की खपत साढ़े आठ किलो मासिक है। जबकि टॉप 20फीसदी ग्रामीणों में अनाज की खपत 11.50 किलो मासिक है। बॉटम गरीबों को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, जिसके लिए उन्हें जरुरी प्रोटीन नहीं मिलता है। बराबरी पर लाने के लिए 50 फीसदी इन गरीबों को बीपीएल का लाभ मिलना ही चाहिए। गरीबों की संख्या को लेकर 60 सालों में भी कोई राय क्यों नहीं बन पाई। इस बारे में राज्यों की भूमिका क्या है?
ऐसा नहीं है। हर पांच साल बाद गरीबों की संख्या का निर्धारण होता है। वर्ष 2005 में गरीबों की संख्या 27.5 फीसदी तय थी, जिसे सही नहीं माना जा सकता है। योजना आयोग तेंदुलकर रिपोर्ट के आधार इसे बढ़ाकर 42 फीसदी मानने की बात कर रहा है। राज्यों के आंकड़ों को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश को ही लें। बांदा में भी उतने ही गरीब हैं, जितने मेरठ में हैं। अंतर जिलों की भिन्नता को नकार दिया गया है। तेंदुलकर रिपोर्ट को मानें तो उड़ीसा में गरीबों की संख्या 65 फीसदी हो जाएगी। लेकिन यह सभी जिलों पर लागू नहीं होगी।
केंद्र सरकार जिस राशन प्रणाली (पीडीएस) को ध्वस्त मानती है, उसी तंत्र के मार्फत बहुचर्चित खाद्य सुरक्षा कानून लागू होना है। यह कैसे संभव है?
पीडीएस सभी राज्यों में ध्वस्त नहीं हुई है। तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ से लेकर उड़ीसा तक अच्छी चल रही है। राशन प्रणाली जहां बहुत खराब है वे राज्य हैं, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली। हैरानी यह है कि केंद्र सरकार ने इसे सुधारने का कोई कारगर कदम उठाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। योजना आयोग की 2004 की रिपोर्ट के मुताबिक पीडीएस में 58 फीसदी लीकेज है। तब से सालाना 29 हजार करोड़ रुपये पानी में जा रहा है।
राशन प्रणाली के लिए केंद्र का निगरानी तंत्र क्यों विफल है?
फेल तो तब हो, जब कोई निगरानी तंत्र हो। केंद्र के पास कोई ऐसा तंत्र नहीं है। केंद्र की बाकी योजनाओं की सघन निगरानी होती है, सिर्फ सार्वजनिक राशन प्रणाली को छोड़कर। दरअसल, यह पीडीएस को बदनाम करने की एक बड़ी साजिश है, जिसमें खाद्य मंत्रालय शामिल है। मंत्रालय के अधिकारी खुद इसे बंद कराना चाहते हैं। भला ऐसे में प्रणाली में सुधार कैसे होगा। सभी बिगाड़ने में लगे है। अंदर-अंदर इसकी जड़ें काट रहे हैं। कृषि व वित्त मंत्रालय तो इसे फूटी आंखों नहीं देखना चाहते हैं। कृषि मंत्रालय का जोर जहां किसानों को फसलों के अच्छे मूल्य देने पर होता है, वहीं वित्त मंत्रालय खाद्य सब्सिडी बढ़ने से परेशान है। दोनों मंत्रालयों का उपभोक्ताओं के हितों से कोई लेना देना नहीं है।
गरीबों को सस्ता अनाज देने के लिए पीडीएस जरूरी है, पर इसमें सुधार के क्या उपाय हैं?
जिन राज्यों में पीडीएस अच्छा चल रहा है, उनका मॉडल दूसरे राज्यों में लागू करें। सस्ते गल्ले की दुकानें निजी डीलरों की जगह पंचायत, सहकारी समितियों और स्वयं सहायता समूहों को दिया जाना चाहिए। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ में ऐसा ही किया गया है। साथ ही राशन प्रणाली के दायरे में 30 फीसदी जगह ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल किया जाना चाहिए। छत्तीसगढ़ में 70 फीसदी, तमिलनाडु व कर्नाटक में 100 फीसदी लोगों को राशन दुकानों से अनाज दिया जाता है। विकलांग, विधवाओं, सेवानिवृत्त फौजियों व प्रभावशाली लोगों को दुकानों का आवंटन बंद होना चाहिए। हमारा सिस्टम बिल्कुल उल्टा है। इस योजना का मकसद ऐसे लोगों को कमीशन खिलाने की जगह उपभोक्ताओं का हित होना चाहिए।
पीडीएस को अनाज कूपन व बायोमीट्रिक प्रणाली से चलाने का क्या असर होगा?
कूपन का चलन आंध्र प्रदेश और बिहार है। इसके मार्फत गरीब अनाज उठाते हैं। लेकिन यह पीडीएस का विकल्प नहीं बल्कि एक अंग है। इसे शत प्रतिशत लागू किया गया तो कूपन तेलगी पैदा हो जाएगा। इससे सही आदमी की पहचान भर हो सकेगी। कर्नाटक व आंध्र प्रदेश में थंब इंप्रेशन का प्रयोग शुरु किया गया है। हरियाणा में बायोमीट्रिक सिस्टम शुरू होने वाला है। जिसे पायलट आधार पर तो चलाया जा सकता है लेकिन फिलहाल यह विकल्प नहीं बन सकता है।
गरीबों की संख्या और अनाज की मात्रा बढ़ाकर खाद्य सुरक्षा कानून लागू हुआ इतना अनाज कहां से आयेगा?
पर्याप्त अनाज है। देश की 60 फीसदी जनता को खाद्यान्न वितरित करना संभव है। प्रत्येक परिवार को 35 किलो के हिसाब से अनाज देने पर कुल चार करोड़ टन अनाज चाहिए। जबकि सरकारी खरीद 4.5 करोड़ टन होती है। अनाज कम नहीं है। समूची खाद्य व्यवस्था गंभीर कुप्रबंधन की शिकार है। समन्वित रुप से सोचने की जरूरत है।
खाद्य सुरक्षा कानून में कुछ कड़े प्रावधान भी शामिल किये गये हैं। वे कितने कारगर साबित होंगे?
मनरेगा में भी ऐसे कड़े प्रावधान हैं। खाद्य सुरक्षा कानून सामान्य तौर पर ठीक ही लगता है। लेकिन इसका संचालन करने वाले पीडीएस को कौन ठीक करेगा? कड़े प्रावधानों से कुछ नहीं होने वाला है। मनरेगा में सालभर में सिर्फ 15 दिन काम पाने वालों की संख्या एक करोड़ है। लेकिन केवल 43 लोगों को बेरोजगारी भत्ता मिल पाया। इस मुद्दे पर आखिर कोई क्यों नहीं बोल रहा है। दिल्ली में 8 फीसदी और मुंबई में 12 फीसदी गरीब सड़कों रहते हैं। जिनके पास राशन कार्ड नहीं है क्यों कि कार्ड के लिए स्थायी पता चाहिए। पहले तो ऐसे गरीब विरोधी आदेशों को समाप्त करना होगा।
गरीबों के जीवन स्तर में सुधार के लिए क्या उपाय चाहिए?
कृषि क्षेत्र पर ज्यादा जोर देकर निवेश बढ़ाना चाहिए। सिंचाई सुविधाएं बढ़ानी चाहिए। बिहार में सड़कें तो हैं, लेकिन बिजली न होने से सिंचाई भला कैसे होगी? देश के सभी जिलों में ब्लॉकों की स्थापना खेती को प्रोत्साहित करने के लिए की गई थी। लेकिन अब उसका पूरा ध्यान वहां हैं जहां पैसा व सब्सिडी है। कृषि मार्केटिंग को मजबूत करना होगा। फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ाने में कोताही नहीं होनी चाहिए। अनाज के दाम बढ़ने पर ही उत्पादकता बढ़ जायेगी। रोजगार सृजन के लिए लघु उद्योग क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
गरीबों के जीवन स्तर को जानने के लिए आपने पूरे देश का भ्रमण किया होगा। बदतर हाल कहां के हैं? गरीबों के जीवन स्तर में कुछ सुधार भी हुआ है?
देश के 50 फीसदी के लोगों का जीवन स्तर सुधरा है। जबकि पांच फीसदी लोगों के जीवन स्तर में उछाल आया है। बाकी फीसदी लोग घोर गरीबी में रह रहे हैं। गरीबी की हद उड़ीसा के कुछ इलाकों में है। महिलाओं के पास पूरे तन ढकने के कपड़े तक नहीं है। उत्तर प्रदेश के बांदा और चित्रकूट में गरीबी चरम पर है। बिहार व झारखंड में हालत ठीक नहीं है। मेवात में गरीबी है।
गरीबों के आकलन के लिए गठित दूसरी कमेटियों से आपकी रिपोर्ट बिल्कुल अलग क्यों है?
बीपीएल की पहचान के तरीके बताने के लिए सक्सेना कमेटी बनाई गई थी। लेकिन बाद में गरीबों की संख्या का अनुमान लगाने को भी कह दिया गया। बहुत विस्तार में जाने के बजाय मैंने भारत सरकार के 1975 में बनाये मानक पर ही अमल किया। इसके मुताबिक 2400 कैलोरी से कम खाने वाले ग्रामीण गरीबी रेखा से नीचे माना गया है। इस मानक के आधार पर तीन चौथाई ग्रामीण बीपीएल वर्ग में हैं।
देश की 50 फीसदी आबादी को गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाला (बीपीएल) बताने के पीछे का क्या आधार है?
ग्रामीण क्षेत्रों के बॉटम गरीबों की 30 फीसदी आबादी में अनाज की खपत साढ़े आठ किलो मासिक है। जबकि टॉप 20फीसदी ग्रामीणों में अनाज की खपत 11.50 किलो मासिक है। बॉटम गरीबों को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, जिसके लिए उन्हें जरुरी प्रोटीन नहीं मिलता है। बराबरी पर लाने के लिए 50 फीसदी इन गरीबों को बीपीएल का लाभ मिलना ही चाहिए। गरीबों की संख्या को लेकर 60 सालों में भी कोई राय क्यों नहीं बन पाई। इस बारे में राज्यों की भूमिका क्या है?
ऐसा नहीं है। हर पांच साल बाद गरीबों की संख्या का निर्धारण होता है। वर्ष 2005 में गरीबों की संख्या 27.5 फीसदी तय थी, जिसे सही नहीं माना जा सकता है। योजना आयोग तेंदुलकर रिपोर्ट के आधार इसे बढ़ाकर 42 फीसदी मानने की बात कर रहा है। राज्यों के आंकड़ों को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश को ही लें। बांदा में भी उतने ही गरीब हैं, जितने मेरठ में हैं। अंतर जिलों की भिन्नता को नकार दिया गया है। तेंदुलकर रिपोर्ट को मानें तो उड़ीसा में गरीबों की संख्या 65 फीसदी हो जाएगी। लेकिन यह सभी जिलों पर लागू नहीं होगी।
केंद्र सरकार जिस राशन प्रणाली (पीडीएस) को ध्वस्त मानती है, उसी तंत्र के मार्फत बहुचर्चित खाद्य सुरक्षा कानून लागू होना है। यह कैसे संभव है?
पीडीएस सभी राज्यों में ध्वस्त नहीं हुई है। तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ से लेकर उड़ीसा तक अच्छी चल रही है। राशन प्रणाली जहां बहुत खराब है वे राज्य हैं, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली। हैरानी यह है कि केंद्र सरकार ने इसे सुधारने का कोई कारगर कदम उठाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। योजना आयोग की 2004 की रिपोर्ट के मुताबिक पीडीएस में 58 फीसदी लीकेज है। तब से सालाना 29 हजार करोड़ रुपये पानी में जा रहा है।
राशन प्रणाली के लिए केंद्र का निगरानी तंत्र क्यों विफल है?
फेल तो तब हो, जब कोई निगरानी तंत्र हो। केंद्र के पास कोई ऐसा तंत्र नहीं है। केंद्र की बाकी योजनाओं की सघन निगरानी होती है, सिर्फ सार्वजनिक राशन प्रणाली को छोड़कर। दरअसल, यह पीडीएस को बदनाम करने की एक बड़ी साजिश है, जिसमें खाद्य मंत्रालय शामिल है। मंत्रालय के अधिकारी खुद इसे बंद कराना चाहते हैं। भला ऐसे में प्रणाली में सुधार कैसे होगा। सभी बिगाड़ने में लगे है। अंदर-अंदर इसकी जड़ें काट रहे हैं। कृषि व वित्त मंत्रालय तो इसे फूटी आंखों नहीं देखना चाहते हैं। कृषि मंत्रालय का जोर जहां किसानों को फसलों के अच्छे मूल्य देने पर होता है, वहीं वित्त मंत्रालय खाद्य सब्सिडी बढ़ने से परेशान है। दोनों मंत्रालयों का उपभोक्ताओं के हितों से कोई लेना देना नहीं है।
गरीबों को सस्ता अनाज देने के लिए पीडीएस जरूरी है, पर इसमें सुधार के क्या उपाय हैं?
जिन राज्यों में पीडीएस अच्छा चल रहा है, उनका मॉडल दूसरे राज्यों में लागू करें। सस्ते गल्ले की दुकानें निजी डीलरों की जगह पंचायत, सहकारी समितियों और स्वयं सहायता समूहों को दिया जाना चाहिए। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ में ऐसा ही किया गया है। साथ ही राशन प्रणाली के दायरे में 30 फीसदी जगह ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल किया जाना चाहिए। छत्तीसगढ़ में 70 फीसदी, तमिलनाडु व कर्नाटक में 100 फीसदी लोगों को राशन दुकानों से अनाज दिया जाता है। विकलांग, विधवाओं, सेवानिवृत्त फौजियों व प्रभावशाली लोगों को दुकानों का आवंटन बंद होना चाहिए। हमारा सिस्टम बिल्कुल उल्टा है। इस योजना का मकसद ऐसे लोगों को कमीशन खिलाने की जगह उपभोक्ताओं का हित होना चाहिए।
पीडीएस को अनाज कूपन व बायोमीट्रिक प्रणाली से चलाने का क्या असर होगा?
कूपन का चलन आंध्र प्रदेश और बिहार है। इसके मार्फत गरीब अनाज उठाते हैं। लेकिन यह पीडीएस का विकल्प नहीं बल्कि एक अंग है। इसे शत प्रतिशत लागू किया गया तो कूपन तेलगी पैदा हो जाएगा। इससे सही आदमी की पहचान भर हो सकेगी। कर्नाटक व आंध्र प्रदेश में थंब इंप्रेशन का प्रयोग शुरु किया गया है। हरियाणा में बायोमीट्रिक सिस्टम शुरू होने वाला है। जिसे पायलट आधार पर तो चलाया जा सकता है लेकिन फिलहाल यह विकल्प नहीं बन सकता है।
गरीबों की संख्या और अनाज की मात्रा बढ़ाकर खाद्य सुरक्षा कानून लागू हुआ इतना अनाज कहां से आयेगा?
पर्याप्त अनाज है। देश की 60 फीसदी जनता को खाद्यान्न वितरित करना संभव है। प्रत्येक परिवार को 35 किलो के हिसाब से अनाज देने पर कुल चार करोड़ टन अनाज चाहिए। जबकि सरकारी खरीद 4.5 करोड़ टन होती है। अनाज कम नहीं है। समूची खाद्य व्यवस्था गंभीर कुप्रबंधन की शिकार है। समन्वित रुप से सोचने की जरूरत है।
खाद्य सुरक्षा कानून में कुछ कड़े प्रावधान भी शामिल किये गये हैं। वे कितने कारगर साबित होंगे?
मनरेगा में भी ऐसे कड़े प्रावधान हैं। खाद्य सुरक्षा कानून सामान्य तौर पर ठीक ही लगता है। लेकिन इसका संचालन करने वाले पीडीएस को कौन ठीक करेगा? कड़े प्रावधानों से कुछ नहीं होने वाला है। मनरेगा में सालभर में सिर्फ 15 दिन काम पाने वालों की संख्या एक करोड़ है। लेकिन केवल 43 लोगों को बेरोजगारी भत्ता मिल पाया। इस मुद्दे पर आखिर कोई क्यों नहीं बोल रहा है। दिल्ली में 8 फीसदी और मुंबई में 12 फीसदी गरीब सड़कों रहते हैं। जिनके पास राशन कार्ड नहीं है क्यों कि कार्ड के लिए स्थायी पता चाहिए। पहले तो ऐसे गरीब विरोधी आदेशों को समाप्त करना होगा।
गरीबों के जीवन स्तर में सुधार के लिए क्या उपाय चाहिए?
कृषि क्षेत्र पर ज्यादा जोर देकर निवेश बढ़ाना चाहिए। सिंचाई सुविधाएं बढ़ानी चाहिए। बिहार में सड़कें तो हैं, लेकिन बिजली न होने से सिंचाई भला कैसे होगी? देश के सभी जिलों में ब्लॉकों की स्थापना खेती को प्रोत्साहित करने के लिए की गई थी। लेकिन अब उसका पूरा ध्यान वहां हैं जहां पैसा व सब्सिडी है। कृषि मार्केटिंग को मजबूत करना होगा। फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ाने में कोताही नहीं होनी चाहिए। अनाज के दाम बढ़ने पर ही उत्पादकता बढ़ जायेगी। रोजगार सृजन के लिए लघु उद्योग क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
गरीबों के जीवन स्तर को जानने के लिए आपने पूरे देश का भ्रमण किया होगा। बदतर हाल कहां के हैं? गरीबों के जीवन स्तर में कुछ सुधार भी हुआ है?
देश के 50 फीसदी के लोगों का जीवन स्तर सुधरा है। जबकि पांच फीसदी लोगों के जीवन स्तर में उछाल आया है। बाकी फीसदी लोग घोर गरीबी में रह रहे हैं। गरीबी की हद उड़ीसा के कुछ इलाकों में है। महिलाओं के पास पूरे तन ढकने के कपड़े तक नहीं है। उत्तर प्रदेश के बांदा और चित्रकूट में गरीबी चरम पर है। बिहार व झारखंड में हालत ठीक नहीं है। मेवात में गरीबी है।
Friday, May 28, 2010
किसानों को सहनी पड़ेगी महंगाई घटाने की कीमत
महंगाई पर काबू पाने के लिए सरकार अब किसानों पर बोझ डालने की तैयारी में है। यानी महंगाई घटाने की कीमत अब किसानों को सहनी पड़ सकती है। खेती की लागत बढ़ने के बावजूद सरकार खरीफ फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने नहीं जा रही है। धान का समर्थन मूल्य किसानों को पिछले साल के बराबर ही मिलेगा। यानी समर्थन मूल्य में कोई वृद्धि नहीं की जाने वाली है। जबकि दलहन के मूल्य में की जाने वाली प्रस्तावित वृद्धि नाकाफी है। इसका सीधा असर खरीफ की खेती पर पड़ सकता है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले दिनों दिसंबर तक मुद्रास्फीति की दर को पांच-छह फीसदी तक लाने का भरोसा दिलाया था। इसी के मद्देनजर एमएसपी में वृद्धि की उम्मीद नहीं है। समर्थन मूल्य तय करने के लिए गठित कृषि लागत व मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने अपनी सिफारिशें सरकार को सौंप दी हैं। इस पर संबंधित मंत्रालयों ने विचार कर लिया है। ज्यादातर राज्यों ने भी अपनी राय रख दी है। अब खरीफ फसलों के समर्थन मूल्य के इस मसौदे पर केंद्रीय मंत्रिमंडल की मुहर लगनी है।
आयोग की सिफारिशों में धान के 'ए' ग्रेड का मूल्य 1030 रुपये और सामान्य धान 1000 रुपये प्रति क्विंटल है, जो पिछले खरीफ सीजन में किसानों के प्राप्त मूल्य के बराबर ही है। मक्के का समर्थन मूल्य 880 रुपये तय किया गया है, जबकि पिछले खरीफ सीजन में यह 840 रुपये था। सबसे अधिक हैरानी दलहन फसलों के समर्थन मूल्य को देखकर हो सकती है, जिसमें 400 से 500 रुपये प्रति क्ंिवटल की वृद्धि तो की गई है। लेकिन एमएसपी पहले से ही इतना कम है कि इस वृद्धि का कोई मतलब नहीं रह जाता है।
उदाहरण के लिए पिछले साल अरहर दाल घरेलू बाजार में एक सौ रुपये प्रति किलो बिकी, तब अरहर का एमएसपी एक तिहाई से भी कम, यानी 2300 रुपये प्रति क्ंिवटल था। चालू सीजन में अरहर दाल 80 रुपये किलो बिक रही है। सीएसीपी ने इसका समर्थन मूल्य 2800 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। मूंग का समर्थन मूल्य 2760 रुपये से बढ़ाकर 3170 रुपये और उड़द का 2520 रुपये से 2900 रुपये किया गया है। लेकिन इन बढ़े मूल्यों का कोई औचित्य नहीं है। खुले बाजार में मूंग व उड़द की दालें 70 रुपये प्रति किलो से नीचे नहीं है।
खाद्य तेलों की आयात निर्भरता लगातार बढ़ने के बावजूद खरीफ सीजन की प्रमुख तिलहन फसलों का एमएसपी मामूली रूप से बढ़ाया गया है। मूंगफली 2100 रुपये से बढ़ाकर 2300 रुपये और तिल के मूल्य 2850 रुपये में सिर्फ 50 रुपये की वृद्धि की गई है, जिसके लिए 2900 रुपये प्रति क्विंटल का मूल्य सुझाया गया है। कपास का मूल्य 3000 रुपये प्रति गांठ ज्यों का त्यों ही रखा गया है।
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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले दिनों दिसंबर तक मुद्रास्फीति की दर को पांच-छह फीसदी तक लाने का भरोसा दिलाया था। इसी के मद्देनजर एमएसपी में वृद्धि की उम्मीद नहीं है। समर्थन मूल्य तय करने के लिए गठित कृषि लागत व मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने अपनी सिफारिशें सरकार को सौंप दी हैं। इस पर संबंधित मंत्रालयों ने विचार कर लिया है। ज्यादातर राज्यों ने भी अपनी राय रख दी है। अब खरीफ फसलों के समर्थन मूल्य के इस मसौदे पर केंद्रीय मंत्रिमंडल की मुहर लगनी है।
आयोग की सिफारिशों में धान के 'ए' ग्रेड का मूल्य 1030 रुपये और सामान्य धान 1000 रुपये प्रति क्विंटल है, जो पिछले खरीफ सीजन में किसानों के प्राप्त मूल्य के बराबर ही है। मक्के का समर्थन मूल्य 880 रुपये तय किया गया है, जबकि पिछले खरीफ सीजन में यह 840 रुपये था। सबसे अधिक हैरानी दलहन फसलों के समर्थन मूल्य को देखकर हो सकती है, जिसमें 400 से 500 रुपये प्रति क्ंिवटल की वृद्धि तो की गई है। लेकिन एमएसपी पहले से ही इतना कम है कि इस वृद्धि का कोई मतलब नहीं रह जाता है।
उदाहरण के लिए पिछले साल अरहर दाल घरेलू बाजार में एक सौ रुपये प्रति किलो बिकी, तब अरहर का एमएसपी एक तिहाई से भी कम, यानी 2300 रुपये प्रति क्ंिवटल था। चालू सीजन में अरहर दाल 80 रुपये किलो बिक रही है। सीएसीपी ने इसका समर्थन मूल्य 2800 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। मूंग का समर्थन मूल्य 2760 रुपये से बढ़ाकर 3170 रुपये और उड़द का 2520 रुपये से 2900 रुपये किया गया है। लेकिन इन बढ़े मूल्यों का कोई औचित्य नहीं है। खुले बाजार में मूंग व उड़द की दालें 70 रुपये प्रति किलो से नीचे नहीं है।
खाद्य तेलों की आयात निर्भरता लगातार बढ़ने के बावजूद खरीफ सीजन की प्रमुख तिलहन फसलों का एमएसपी मामूली रूप से बढ़ाया गया है। मूंगफली 2100 रुपये से बढ़ाकर 2300 रुपये और तिल के मूल्य 2850 रुपये में सिर्फ 50 रुपये की वृद्धि की गई है, जिसके लिए 2900 रुपये प्रति क्विंटल का मूल्य सुझाया गया है। कपास का मूल्य 3000 रुपये प्रति गांठ ज्यों का त्यों ही रखा गया है।
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Tuesday, May 25, 2010
फर्जी बैनामों से मिल जायेगी निजात
घट जायेगा बटाई की जमीन का विवाद, महफूज रहेगी आपकी जमीन
'लैंड टाइटलिंग बिल-2010' का मसौदा तैयार।
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सुरेंद्र प्रसाद सिंह।
फर्जी बैनामा करना अथवा कराना फिर आसान नहीं होगा। आपकी जमीन पूरी तरह महफूज रहेगी। इस तरह की धोखाधड़ी को रोकने के लिए केंद्र सरकार एक ऐसा कानून बना रही है, जिसमें जमीन के असल मालिक की गारंटी सरकार को लेना होगा। साथ ही बटाई पर दी जाने वाली जमीन के मालिकाना हक को लेकर उठने वाले विवाद भी घटेंगे। भू राजस्व के मुकदमों में कमी आने की भी संभावना है।
केंद्रीय भू संसाधन विभाग की सचिव रीता सिन्हा ने विधेयक के मसौदे के बारे में 'जागरण' से बातचीत में बताया कि विभिन्न राज्यों में भूमि प्रबंधन व राजस्व की भाषा व कानून फिलहाल अलग-अलग है। ज्यादातर राज्यों में भूमि सुधार नहीं हो पाये हैं। जमीनों के बंटवारे में ढेर सारी खामियां है, जिसे प्रस्तावित विधेयक के मार्फत ठीक करने का प्रयास किया जायेगा। इससे देशभर के भूमि बंदोबस्त कानून में एकरूपता आ जायेगी। राज्यों से इस अहम मसले पर गहन विचार-विमर्श किया जा रहा है।
'लैंड टाइटलिंग बिल-2010' का मसौदा आम लोगों की प्रतिक्रिया के लिए जारी कर दिया गया है। इसे देश की 17 भाषाओं में जारी किया गया है। इसे अमली जामा पहनाने से पहले जमीन के दस्तावेजों के रखरखाव व उनमें संशोधन आदि की प्राथमिक जिम्मेदारी निभाने वाले दो लाख पटवारियों को प्रशिक्षण दिया जाएगा। पूरी प्रणाली को पारदर्शी बनाने के लिए आंकड़े 'आन लाइन' किये जाएंगे। बैनामा करने वाले राजस्व, सर्वेक्षण और पंजीकरण विभाग फिलहाल अलग-अलग हैं, जिन्हें एक संयुक्त प्रणाली के तहत लाने के लिए लैंड टाइटलिंग अथॉरिटी का गठन किया जाएगा। सभी राज्यों से मसौदे में जरूरी संशोधन के लिए सुझाव मांगे गये हैं।
फिलहाल नक्शा और रजिस्ट्री आफिस के दस्तावेज में रकबा अलग-अलग दिखने से निचली अदालतों में विवादों की संख्या बढ़ी है। नये प्रावधान में नक्शों का डिजिटल बनाकर उसे सीधे दस्तावेजों से जोड़ दिया जाएगा। कुछ राज्यों में 12 साल तक बटाई पर दी गई जमीन का मालिकाना हक बदल जाता है, जो नई व्यवस्था से खत्म हो जायेगा। इससे भूमि के मालिक अपनी जमीन को बेखटका कांट्रैक्ट खेती के लिए लंबे समय के लिए दे सकते हैं।
यह कानून सबसे पहले देश के केंद्र शासित क्षेत्रों में लागू होगा। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्यों ने इसमें खास रुचि दिखाई है, जहां भूमि सुधार लगभग पूरा हो चुका है। लेकिन उन राज्यों में इसे लागू करने में काफी दिक्कतें पेश आयेंगी, जहां न भूमि सुधार नहीं हुआ है और न ही भूमि के बंदोबस्ती दस्तावेजों का कंप्यूटरीकरण किया जा सका है।
'लैंड टाइटलिंग बिल-2010' का मसौदा तैयार।
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सुरेंद्र प्रसाद सिंह।
फर्जी बैनामा करना अथवा कराना फिर आसान नहीं होगा। आपकी जमीन पूरी तरह महफूज रहेगी। इस तरह की धोखाधड़ी को रोकने के लिए केंद्र सरकार एक ऐसा कानून बना रही है, जिसमें जमीन के असल मालिक की गारंटी सरकार को लेना होगा। साथ ही बटाई पर दी जाने वाली जमीन के मालिकाना हक को लेकर उठने वाले विवाद भी घटेंगे। भू राजस्व के मुकदमों में कमी आने की भी संभावना है।
केंद्रीय भू संसाधन विभाग की सचिव रीता सिन्हा ने विधेयक के मसौदे के बारे में 'जागरण' से बातचीत में बताया कि विभिन्न राज्यों में भूमि प्रबंधन व राजस्व की भाषा व कानून फिलहाल अलग-अलग है। ज्यादातर राज्यों में भूमि सुधार नहीं हो पाये हैं। जमीनों के बंटवारे में ढेर सारी खामियां है, जिसे प्रस्तावित विधेयक के मार्फत ठीक करने का प्रयास किया जायेगा। इससे देशभर के भूमि बंदोबस्त कानून में एकरूपता आ जायेगी। राज्यों से इस अहम मसले पर गहन विचार-विमर्श किया जा रहा है।
'लैंड टाइटलिंग बिल-2010' का मसौदा आम लोगों की प्रतिक्रिया के लिए जारी कर दिया गया है। इसे देश की 17 भाषाओं में जारी किया गया है। इसे अमली जामा पहनाने से पहले जमीन के दस्तावेजों के रखरखाव व उनमें संशोधन आदि की प्राथमिक जिम्मेदारी निभाने वाले दो लाख पटवारियों को प्रशिक्षण दिया जाएगा। पूरी प्रणाली को पारदर्शी बनाने के लिए आंकड़े 'आन लाइन' किये जाएंगे। बैनामा करने वाले राजस्व, सर्वेक्षण और पंजीकरण विभाग फिलहाल अलग-अलग हैं, जिन्हें एक संयुक्त प्रणाली के तहत लाने के लिए लैंड टाइटलिंग अथॉरिटी का गठन किया जाएगा। सभी राज्यों से मसौदे में जरूरी संशोधन के लिए सुझाव मांगे गये हैं।
फिलहाल नक्शा और रजिस्ट्री आफिस के दस्तावेज में रकबा अलग-अलग दिखने से निचली अदालतों में विवादों की संख्या बढ़ी है। नये प्रावधान में नक्शों का डिजिटल बनाकर उसे सीधे दस्तावेजों से जोड़ दिया जाएगा। कुछ राज्यों में 12 साल तक बटाई पर दी गई जमीन का मालिकाना हक बदल जाता है, जो नई व्यवस्था से खत्म हो जायेगा। इससे भूमि के मालिक अपनी जमीन को बेखटका कांट्रैक्ट खेती के लिए लंबे समय के लिए दे सकते हैं।
यह कानून सबसे पहले देश के केंद्र शासित क्षेत्रों में लागू होगा। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्यों ने इसमें खास रुचि दिखाई है, जहां भूमि सुधार लगभग पूरा हो चुका है। लेकिन उन राज्यों में इसे लागू करने में काफी दिक्कतें पेश आयेंगी, जहां न भूमि सुधार नहीं हुआ है और न ही भूमि के बंदोबस्ती दस्तावेजों का कंप्यूटरीकरण किया जा सका है।
Tuesday, April 13, 2010
जीएम भांटे का नहीं ट्रांसजेनिक चिकेन का लुत्फ उठाइये
जनाब! जीएम बैगन को छोडि़ए। आइए अब ट्रांसजेनिक चिकन का लुत्फ उठाइए। चिकन के साथ मछली का भी स्वाद लीजिए। जेलीफिश के जीन वाली इस मुर्गी की खासियत यह भी होगी कि रात के अंधेरे में इसके पंख चमकेंगे। देश में पहली बार वैज्ञानिकों ने विभिन्न जीव जंतुओं के जीन को मुर्गे व मुर्गी में डालकर प्रयोग किया, जिसमें पहली सफलता मछली के जीन वाली देसी मुर्गी को मिली। वैज्ञानिकों का दावा है कि इससे चिकन की उत्पादकता बहुत अधिक बढ़ जाएगी। साथ ही इस ट्रांसजेनिक चिकन में एक नायाब किस्म का प्रोटीन मिलेगा, जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होगा। यह दावा है इसे विकसित करन वाले कृषि वैज्ञानिकों का। उनका दावा तो और भी बहुत हैं,जैसे एड्स व कैंसर जैसे रोगों का मुकाबला करने वाले जीन भी इसमें डाला जा सकता है। हालांकि दुनिया में यह करतब करने वाला भारत चौथा देश होगा।
वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि जीएम चिकन के विकसित कर लेने से मिली सफलता से अब भेड़, बकरी और अन्य पशुओं की ट्रांसजेनिक प्रजाति विकसित करने की उम्मीद बढ़ गई है। साथ ही इससे बर्ड फ्लू की बीमारी को रोकने में सफलता मिलेगी।
हैदराबाद के पोल्ट्री निदेशालय के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर टी. के. भट्टाचार्य के नेतृत्व वाली वैज्ञानिकों की टीम ने कम अवधि में अत्यधिक उत्पादकता मुर्गी विकसित करने में सफलता प्राप्त की है। इस विधि में मछली की एक खास प्रजाति के जीन को मुर्गी में डाल दिया गया। फिलहाल यह सफलता प्रयोगशाला के स्तर पर मिल गई है, जल्दी ही इस प्रौद्योगिकी को व्यावसायिक उत्पादन के लिए जारी कर दिया जाएगा।
जेली फिश के ग्रीन फ्लोरोसेंट प्रोटीन जीन के माध्यम से ही ट्रांसजेनिक चिकन विकसित करने में कामयाबी मिल पाई है। जेलीफिश की चमकार भी मुर्गे की पंख को मिल गई है। इस खास जीन को पहले मुर्गे में डाला गया, जिसे उसके वीर्य का प्रयोग मुर्गियों में किया गया। इसके बाद इन मुर्गियों के 263 अंडों से जो चूजे निकले, उनमें से 16 ट्रांसजेनिक पाए गए। इन रंगीन पंख वाले ट्रांसजेनिक चिकन की नियंत्रित वातावरण में जांच पूरी की गई।
अपनी इस ईजाद से बेहद उत्साहित वैज्ञानिकों की मानें तो ट्रांसजेनिक चिकन से पोल्ट्री क्षेत्र में क्रांति आ जाएगी। इसमें मिलने वाला प्रोटीन मानव व पशु दोनों के लिए फायदेमंद साबित होगा। जल्दी ही इस प्रौद्योगिकी को लोगों के उपयोग के लायक बना दिया जाएगा।
वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि जीएम चिकन के विकसित कर लेने से मिली सफलता से अब भेड़, बकरी और अन्य पशुओं की ट्रांसजेनिक प्रजाति विकसित करने की उम्मीद बढ़ गई है। साथ ही इससे बर्ड फ्लू की बीमारी को रोकने में सफलता मिलेगी।
हैदराबाद के पोल्ट्री निदेशालय के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर टी. के. भट्टाचार्य के नेतृत्व वाली वैज्ञानिकों की टीम ने कम अवधि में अत्यधिक उत्पादकता मुर्गी विकसित करने में सफलता प्राप्त की है। इस विधि में मछली की एक खास प्रजाति के जीन को मुर्गी में डाल दिया गया। फिलहाल यह सफलता प्रयोगशाला के स्तर पर मिल गई है, जल्दी ही इस प्रौद्योगिकी को व्यावसायिक उत्पादन के लिए जारी कर दिया जाएगा।
जेली फिश के ग्रीन फ्लोरोसेंट प्रोटीन जीन के माध्यम से ही ट्रांसजेनिक चिकन विकसित करने में कामयाबी मिल पाई है। जेलीफिश की चमकार भी मुर्गे की पंख को मिल गई है। इस खास जीन को पहले मुर्गे में डाला गया, जिसे उसके वीर्य का प्रयोग मुर्गियों में किया गया। इसके बाद इन मुर्गियों के 263 अंडों से जो चूजे निकले, उनमें से 16 ट्रांसजेनिक पाए गए। इन रंगीन पंख वाले ट्रांसजेनिक चिकन की नियंत्रित वातावरण में जांच पूरी की गई।
अपनी इस ईजाद से बेहद उत्साहित वैज्ञानिकों की मानें तो ट्रांसजेनिक चिकन से पोल्ट्री क्षेत्र में क्रांति आ जाएगी। इसमें मिलने वाला प्रोटीन मानव व पशु दोनों के लिए फायदेमंद साबित होगा। जल्दी ही इस प्रौद्योगिकी को लोगों के उपयोग के लायक बना दिया जाएगा।
Sunday, April 11, 2010
मुट्ठीभर चारे के भरोसे श्वेतक्रांति का सपना
सरकार ने सचमुच में 'ऊंट के मुंह में जीरा' ही डाला है। पशुओं के चारा विकसा के लिए उसने प्रति पशु सिर्फ सवा दो रुपये का प्रावधान किया है। इसी मुट्ठीभर चारे से वह श्वेतक्रांति का स्वप्न देख रही है। जबकि दूध के मूल्य ४५ से ५० रुपये प्रति किलो पहुंच गये है। हालात यही रहे तो नौनिहालों के मुंह का दूध भी छिन जायेगा। बजट में चारा विकास, उन्नतशील बीज, चारागाहों को बचाने और उनकेरखरखाव के लिए 47 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। यह राशि देश के कुल 20 करोड़ से अधिक पशुओं के लिए होगी।
बजट आवंटन को पशुओं की संख्या के हिसाब से देखें तो प्रत्येक पशु के हिस्से सालाना सवा दो रुपये का खर्च आता है। यह आवंटन चारा विकास योजना के लिए किया गया है। डेयरी विकास से जुड़े लोगों का कहना है कि सरकार एक ओर तो इस क्षेत्र में छह प्रतिशत की विकास दर का लक्ष्य तय कर रही है, वहीं दूसरी ओर पशुओं को भरपेट चारे की व्यवस्था तक नहीं की गई है।
पशुओं के लिए घरेलू चारे की पैदावार जरूरत के मुकाबले 40 फीसदी ही होती है। हरा चारा तो दूर, पशुओं का पेट भरने को सूखा चारा भी उपलब्ध नहीं है। चारे की मांग व आपूर्ति में भारी असंतुलन है। एक आंकड़े के मुताबिक दुधारू पशुओं के लिए हरे चारे की सालाना मांग 106 करोड़ टन है, जबकि आपूर्ति केवल 40 करोड़ टन ही है। सूखे चारे की 60 करोड़ टन की मांग के मुकाबले आपूर्ति 45 करोड़ टन हो पाती है। हरा चारे में 63 फीसदी और सूखा चारे में 24 फीसदी की कमी बनी हुई है। मांग आपूर्ति का यह अंतर सालों साल बढ़ रहा है।
महंगाई के इस दौर में पशुओं के लिए मोटे अनाज, चूनी और खल के मूल्य भी बहुत बढ़ गये हैं। दुधारू पशुओं के लिए पौष्टिक तत्वों की भारी कमी है। ऐसी सूरत में दूध की उत्पादकता पर विपरीत असर पड़ रहा है। यही वजह है कि दूध की मांग के मुकाबले आपूर्ति नहीं बढ़ पा रही है, जिससे कीमतें पिछले एक साल में सात रुपये से 10 से १५ रुपये प्रति किलो तक बढ़ी हैं। देश में आधे से अधिक पशु भुखमरी के शिकार हैं।
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बजट आवंटन को पशुओं की संख्या के हिसाब से देखें तो प्रत्येक पशु के हिस्से सालाना सवा दो रुपये का खर्च आता है। यह आवंटन चारा विकास योजना के लिए किया गया है। डेयरी विकास से जुड़े लोगों का कहना है कि सरकार एक ओर तो इस क्षेत्र में छह प्रतिशत की विकास दर का लक्ष्य तय कर रही है, वहीं दूसरी ओर पशुओं को भरपेट चारे की व्यवस्था तक नहीं की गई है।
पशुओं के लिए घरेलू चारे की पैदावार जरूरत के मुकाबले 40 फीसदी ही होती है। हरा चारा तो दूर, पशुओं का पेट भरने को सूखा चारा भी उपलब्ध नहीं है। चारे की मांग व आपूर्ति में भारी असंतुलन है। एक आंकड़े के मुताबिक दुधारू पशुओं के लिए हरे चारे की सालाना मांग 106 करोड़ टन है, जबकि आपूर्ति केवल 40 करोड़ टन ही है। सूखे चारे की 60 करोड़ टन की मांग के मुकाबले आपूर्ति 45 करोड़ टन हो पाती है। हरा चारे में 63 फीसदी और सूखा चारे में 24 फीसदी की कमी बनी हुई है। मांग आपूर्ति का यह अंतर सालों साल बढ़ रहा है।
महंगाई के इस दौर में पशुओं के लिए मोटे अनाज, चूनी और खल के मूल्य भी बहुत बढ़ गये हैं। दुधारू पशुओं के लिए पौष्टिक तत्वों की भारी कमी है। ऐसी सूरत में दूध की उत्पादकता पर विपरीत असर पड़ रहा है। यही वजह है कि दूध की मांग के मुकाबले आपूर्ति नहीं बढ़ पा रही है, जिससे कीमतें पिछले एक साल में सात रुपये से 10 से १५ रुपये प्रति किलो तक बढ़ी हैं। देश में आधे से अधिक पशु भुखमरी के शिकार हैं।
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