आप इसे देखकर हैरान न हो। आपने सही पहचाना है। दुनिया के सबसे ताकतवर देश संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ही हैं। मूंगफली छीलने की देसी मशीन देखकर सच में खुद हैरान हैं। उन्होंने इस मशीन बनाने वालों को सराहा और कहा कि असल प्रौद्योगिकी व तकनीक यही है, जो आम व गरीबों को मदद पहुंचा सकती है। उनकी इस टिप्पणी के बाद इस तरह की मूंगफली और मक्का छुड़ाने वाली मशीनों की मांग बढ़ी है। अमेरिकी अधिकारियों ने इसके आयात की संभावनाएं तलाशने में जुटे हैं। इन छोटे उपकरणों को अमेरिका अफ्रीकी गरीब देशों को भेजना चाहता है। है न कमाल की तरकीब। दूसरे फोटो में ओबामा खुद मक्के का दाना छुड़ा रहे हैं।
Friday, January 7, 2011
रबी पौध के खराब होने से प्याज खेती को झटका, प्याज निकालेगी और आंसू
प्याज की खरीफ फसल को नुकसान क्या हुआ चौतरफा हायतौबा मच गई। सरकार ने भी कहा ढाढ़स बंधाया कि घबराइये नहीं जल्दी ही रबी फसल वाली प्याज खेत से निकलने लगेगी और बात बन जाएगी। यानी प्याज की कीमतें सतह पर आ जाएंगी। लेकिन प्याज की खेती के सरकारी आंकड़े ने तो कान ही खड़े कर दिये। बताया गया है कि रबी फसल में रोपाई की जाने वाली प्याज की नर्सरी को २० फीसदी तक नुकसान हुआ है। अब इस जानकारी के बाद भी भला प्याज के मूल्य के नीचे आने की संभावना तो नहीं लगती। इसलिए सरकार हमे आपको भले ही झूठी दिलासा दिला रही हो, लेकिन माथे पर उसके भी बल पड़ने लगे हैं। उसी संबंधित कुछ जानकारी आपके लिए, ताकि आप किसी झांसे में न आयें।
प्याज के प्रमुख उत्पादक राज्यों में बेमौसम बारिश ने सिर्फ खरीफ सीजन की फसल को ही नुकसान नहीं पहुंचाया है, बल्कि रबी सीजन की पौध को भी चौपट किया है। सरकार ने माना है कि रबी सीजन की प्याज नर्सरी को 20 फीसदी तक का नुकसान हुआ है। पौध की कमी से प्याज की आगामी खेती का रकबा घटने का अंदेशा है, जिसे लेकर सरकार के माथे पर बल पडऩे हैं। उत्पादन घटने की आशंका से उपभोक्ताओं को प्याज आगे भी तंग करेगी।
प्याज को लेकर उपभोक्ताओं के साथ सरकार की मुश्किलें कम होती नहीं दिख रही हैं। खरीफ सीजन में प्याज के खेत से निकलने से पहले हुई बारिश ने फसल को भारी नुकसान पहुंचाया था, जिससे कीमतें सातवें आसमान पर पहुंच गईं। रबी फसल के लिए तैयार की जा रही नर्सरी पर भी बेमौसम बारिश का बुरा असर पड़ा है। रबी की पौध की तैयारी अक्टूबर के आखिरी सप्ताह में ही पूरी हो जाती है। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार इन्हीं दिनों बेमौसम बारिश ने प्याज नर्सरी को 15 से 20 फीसदी तक नुकसान पहुंचाया है। इससे आगामी रबी फसल की प्याज की पैदावार के प्रभावित होने का पूरा खतरा है।
राष्ट्रीय बागवानी अनुसंधान व विकास फाउंडेशन के मुताबिक प्याज की कुल पैदावार में रबी सीजन की हिस्सेदारी लगभग 60 फीसदी होती है। नर्सरी के नुकसान का सीधा मतलब प्याज की खेती पर पडऩा तय है। रबी सीजन के लिए प्याज की रोपाई इस महीने से चालू हो गई है। प्याज की इस नई फसल की खुदाई मार्च से शुरू हो जाएगी।
खरीफ सीजन की प्याज की खेती को 40 फीसदी तक नुकसान होने का अनुमान है। यही वजह है कि प्याज के मूल्य पर काबू पाना मुश्किल होता जा रहा है। मांग व आपूर्ति के इस अंतर को कम करने के लिए सरकार ने आनन-फानन में पाकिस्तान समेत अन्य देशों से प्याज के आयात का फैसला ले लिया है। इसके चलते कीमतें थोड़े समय के लिए थमी जरुर, लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी प्याज के मूल्य बहुत बढ़ जाने से हालत में बहुत सुधार नहीं हुआ है।
प्याज के प्रमुख उत्पादक राज्यों में बेमौसम बारिश ने सिर्फ खरीफ सीजन की फसल को ही नुकसान नहीं पहुंचाया है, बल्कि रबी सीजन की पौध को भी चौपट किया है। सरकार ने माना है कि रबी सीजन की प्याज नर्सरी को 20 फीसदी तक का नुकसान हुआ है। पौध की कमी से प्याज की आगामी खेती का रकबा घटने का अंदेशा है, जिसे लेकर सरकार के माथे पर बल पडऩे हैं। उत्पादन घटने की आशंका से उपभोक्ताओं को प्याज आगे भी तंग करेगी।
प्याज को लेकर उपभोक्ताओं के साथ सरकार की मुश्किलें कम होती नहीं दिख रही हैं। खरीफ सीजन में प्याज के खेत से निकलने से पहले हुई बारिश ने फसल को भारी नुकसान पहुंचाया था, जिससे कीमतें सातवें आसमान पर पहुंच गईं। रबी फसल के लिए तैयार की जा रही नर्सरी पर भी बेमौसम बारिश का बुरा असर पड़ा है। रबी की पौध की तैयारी अक्टूबर के आखिरी सप्ताह में ही पूरी हो जाती है। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार इन्हीं दिनों बेमौसम बारिश ने प्याज नर्सरी को 15 से 20 फीसदी तक नुकसान पहुंचाया है। इससे आगामी रबी फसल की प्याज की पैदावार के प्रभावित होने का पूरा खतरा है।
राष्ट्रीय बागवानी अनुसंधान व विकास फाउंडेशन के मुताबिक प्याज की कुल पैदावार में रबी सीजन की हिस्सेदारी लगभग 60 फीसदी होती है। नर्सरी के नुकसान का सीधा मतलब प्याज की खेती पर पडऩा तय है। रबी सीजन के लिए प्याज की रोपाई इस महीने से चालू हो गई है। प्याज की इस नई फसल की खुदाई मार्च से शुरू हो जाएगी।
खरीफ सीजन की प्याज की खेती को 40 फीसदी तक नुकसान होने का अनुमान है। यही वजह है कि प्याज के मूल्य पर काबू पाना मुश्किल होता जा रहा है। मांग व आपूर्ति के इस अंतर को कम करने के लिए सरकार ने आनन-फानन में पाकिस्तान समेत अन्य देशों से प्याज के आयात का फैसला ले लिया है। इसके चलते कीमतें थोड़े समय के लिए थमी जरुर, लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी प्याज के मूल्य बहुत बढ़ जाने से हालत में बहुत सुधार नहीं हुआ है।
Tuesday, November 23, 2010
आधी भी नहीं हो पाई अभी तक रबी की बुवाई
गेहूं बुवाई की हालत चिंताजनक, 30 लाख हेक्टेयर तक पिछड़ी
कहीं नमी की कमी से तो कहीं बारिश से प्रभावित हुई गेहूं की बुवाई
राम जी की माया कहीं धूप कहीं छाया। भला हो इस कहावत का। देश में जब मानसूनी बादल खूब पानी बरसा रहे थे तो लगा अगला सीजन रबी खूब फले फूलेगी। लेकिन हालत उलटबांसियों की सी हो गई है। जहां खूब पानी बरसा वहां नमी थी, लेकिन बुवाई से ठीक पहले फिर बारिश हो गई। और जिन इलाकों में मानसून ने दगा दिया था वहां के किसानों ने सोचा इस मौसम में थोड़ी बहुत बारिश तो हो ही जाएगी। लेकिन इस सीजन में भी बूंदे नहीं टपकीं। किसानों ने गेहूं बोने के लिए खेत में पलेवा कर डाला। अब वहां भी गेहूं की बुवाई लेट। यानी दोनों जगहों पर गेहूं की बुवाई पीछे। गेहूं की बुवाई पिछड़ने की एक कहानी और। पश्चिम उत्तर प्रदेश की चीनी मिलें नहीं चलीं तो उनकी मुश्किल यह हो गई कि पेड़ी गन्ने वाले खेत ही खाली नहीं हो पाये। आगे भी संभावना नहीं है। यह कोई कम रकबा नहीं है। सरकारी आंकड़ों पर जाएं तो कोई नौ दस लाख एकड़ है।
गेहूं कारकबा पिछले साल के मुकाबले सर्वाधिक 30 लाख हेक्टेयर तक पिछड़ चुका है। बुवाई में देरी होने से गेहूं की उत्पादकता पर विपरीत असर पडऩे का खतरा है। इसे लेकर कृषि मंत्रालय के माथे पर भी बल पडऩे लगे हैं।
मानसून की अच्छी बारिश के चलते भूमि में पर्याप्त नमी को लेकर कृषि वैज्ञानिक व सरकार बेहद खुश थे। उम्मीद थी कि रबी की प्रमुख फसल गेहूं की बुवाई इस बार जल्दी हो जाएगी, जिससे उत्पादकता बढ़ेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गेहूं उत्पादक राज्यों- पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मानसून की अच्छी बारिश हुई थी। इससे वहां की भूमि में पर्याप्त नमी को देखते हुए बुवाई तेजी से शुरू तो हुई, लेकिन अचानक हुई बारिश ने उसे रोक दिया है। हरियाणा में गेहूं बुवाई ढाई लाख हेक्टेयर पीछे है, जबकि पंजाब में डेढ़ लाख हेक्टेयर।
इसके विपरीत पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ में पर्याप्त बारिश नहीं होने से खरीफ की फसलों पर विपरीत असर पड़ा था। जिससे खेतों में पलेवा (सिंचाई) करने के बाद ही बुवाई संभव हो पा रही है। परिणामस्वरूप यहां भूमि में नमी की कमी से बुवाई पिछड़ रही है।
कहीं सूखा कहीं बारिश के चलते उत्तर प्रदेश में पिछले साल अब तक जहां 30 लाख हेक्टेयर भूमि में गेहूं बो दिया गया था, वहां अभी तक केवल नौ लाख हेक्टेयर में ही गेहूं की बुवाई हो सकी है। कृषि मंत्रालय के लिए यह गंभीर चिंता का विषय है।
कृषि मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के मुताबिक मध्य प्रदेश में गेहूं बुवाई पांच लाख हेक्टेयर पीछे चल रही है। पिछले साल अब तक 17.71 लाख हेक्टेयर में गेहूं की बुवाई हो चुकी थी, जो चालू सीजन में 12.50 लाख हेक्टेयर ही हो पाई है। छत्तीसगढ़ में 80 फीसदी और महाराष्ट्र में 35 फीसदी कम रकबा में बुआई हुई है।
कहीं नमी की कमी से तो कहीं बारिश से प्रभावित हुई गेहूं की बुवाई
राम जी की माया कहीं धूप कहीं छाया। भला हो इस कहावत का। देश में जब मानसूनी बादल खूब पानी बरसा रहे थे तो लगा अगला सीजन रबी खूब फले फूलेगी। लेकिन हालत उलटबांसियों की सी हो गई है। जहां खूब पानी बरसा वहां नमी थी, लेकिन बुवाई से ठीक पहले फिर बारिश हो गई। और जिन इलाकों में मानसून ने दगा दिया था वहां के किसानों ने सोचा इस मौसम में थोड़ी बहुत बारिश तो हो ही जाएगी। लेकिन इस सीजन में भी बूंदे नहीं टपकीं। किसानों ने गेहूं बोने के लिए खेत में पलेवा कर डाला। अब वहां भी गेहूं की बुवाई लेट। यानी दोनों जगहों पर गेहूं की बुवाई पीछे। गेहूं की बुवाई पिछड़ने की एक कहानी और। पश्चिम उत्तर प्रदेश की चीनी मिलें नहीं चलीं तो उनकी मुश्किल यह हो गई कि पेड़ी गन्ने वाले खेत ही खाली नहीं हो पाये। आगे भी संभावना नहीं है। यह कोई कम रकबा नहीं है। सरकारी आंकड़ों पर जाएं तो कोई नौ दस लाख एकड़ है।
गेहूं कारकबा पिछले साल के मुकाबले सर्वाधिक 30 लाख हेक्टेयर तक पिछड़ चुका है। बुवाई में देरी होने से गेहूं की उत्पादकता पर विपरीत असर पडऩे का खतरा है। इसे लेकर कृषि मंत्रालय के माथे पर भी बल पडऩे लगे हैं।
मानसून की अच्छी बारिश के चलते भूमि में पर्याप्त नमी को लेकर कृषि वैज्ञानिक व सरकार बेहद खुश थे। उम्मीद थी कि रबी की प्रमुख फसल गेहूं की बुवाई इस बार जल्दी हो जाएगी, जिससे उत्पादकता बढ़ेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गेहूं उत्पादक राज्यों- पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मानसून की अच्छी बारिश हुई थी। इससे वहां की भूमि में पर्याप्त नमी को देखते हुए बुवाई तेजी से शुरू तो हुई, लेकिन अचानक हुई बारिश ने उसे रोक दिया है। हरियाणा में गेहूं बुवाई ढाई लाख हेक्टेयर पीछे है, जबकि पंजाब में डेढ़ लाख हेक्टेयर।
इसके विपरीत पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ में पर्याप्त बारिश नहीं होने से खरीफ की फसलों पर विपरीत असर पड़ा था। जिससे खेतों में पलेवा (सिंचाई) करने के बाद ही बुवाई संभव हो पा रही है। परिणामस्वरूप यहां भूमि में नमी की कमी से बुवाई पिछड़ रही है।
कहीं सूखा कहीं बारिश के चलते उत्तर प्रदेश में पिछले साल अब तक जहां 30 लाख हेक्टेयर भूमि में गेहूं बो दिया गया था, वहां अभी तक केवल नौ लाख हेक्टेयर में ही गेहूं की बुवाई हो सकी है। कृषि मंत्रालय के लिए यह गंभीर चिंता का विषय है।
कृषि मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के मुताबिक मध्य प्रदेश में गेहूं बुवाई पांच लाख हेक्टेयर पीछे चल रही है। पिछले साल अब तक 17.71 लाख हेक्टेयर में गेहूं की बुवाई हो चुकी थी, जो चालू सीजन में 12.50 लाख हेक्टेयर ही हो पाई है। छत्तीसगढ़ में 80 फीसदी और महाराष्ट्र में 35 फीसदी कम रकबा में बुआई हुई है।
Monday, October 18, 2010
दालों के लिए अब नई मशक्कत
दलहन गांव के बाद अब बसेंगे बीज ग्राम
देश के गोदाम गेहूं व चावल से अटे पड़े हैं। लेकिन दाल की कटोरी विलायत की दाल से ही भर रही है। विदेशी मुद्रा खर्च करके सरकार आजिज आ चुकी है। फिर भी बात नहीं बन रही है। थक हार कर अधिक दलहन उगाने की मशक्कत शुरू की गई है। किसानों का रोना है कि उन्हें अच्छे बीज ही नहीं मिल पा रहा है। जबकि सरकारी कृषि वैज्ञानिकों की फेहरिस्त में कई सौ वेरायटी तैयार हैं। यह है सरकारी अंतरविरोध। इसी को दूर करने के लिए सरकार ने नई योजना चालू की है। कुछ नमूने आप भी देख लें।
सरकार की कोशिशें कामयाब हुईं तो आने वाले सालों में रोटी के साथ दाल भी मयस्सर हो सकती है। देश में दाल की कमी और उसकी बढ़ती कीमतों से परेशान सरकार सारे विकल्पों को खंगालने में जुट गयी है। इसके तहत पहले दलहन ग्राम और अब बीज ग्राम बसाने की योजना पर अमल शुरू कर दिया गया है।
दलहन खेती को लाभप्रद बनाने और प्रोत्साहित करने के लिए किसानों को उनके गांव में ही अच्छे व उन्नत फाउंडेशन बीज मुहैया कराने की योजना है। योजना के तहत गांव के किसानों को ही लघु बीज गोदाम स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। दलहन बीजों के भंडारण के लिए उन्हें उचित भाड़ा भी दिया जाएगा। किसानों को दलहन की वैज्ञानिक खेती का मुफ्त प्रशिक्षण देने की भी योजना है। यह योजना राज्यों के कृषि ïिवभाग, कृषि विश्वविद्यालय और राज्य बीज निगम के साझा प्रयास से संचालित की जाएगी।
योजना के तहत दलहन खेती के इच्छुक किसानों को प्रति आधा एकड़ खेत के लिए जरूरी फाउंडेशन बीजों की आपूर्ति 50 फीसदी के सब्सिडी मूल्य पर की जाएगी। पहले चरण में किसानों को प्रशिक्षित करने की योजना है, जिसमें 150 किसानों के समूह को प्रशिक्षण देने के लिए 15 हजार रुपये का प्रावधान किया गया है।
दलहन बीजों के भंडारण के लिए जो किसान अपने स्तर पर गोदाम बनाकर बीजों की भंडारण करेंगे, उन्हें 1500 से 3000 रुपये का भाड़ा दिया जाएगा। यह भाड़ा 10 और 20 क्विंटल दलहन बीजों पर मिलेगा। अनुसूचित व अनुसूचित जनजाति के किसानों को देय भाड़े की राशि सामान्य वर्ग के किसानों के मुकाबले अधिक होगी।
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देश के गोदाम गेहूं व चावल से अटे पड़े हैं। लेकिन दाल की कटोरी विलायत की दाल से ही भर रही है। विदेशी मुद्रा खर्च करके सरकार आजिज आ चुकी है। फिर भी बात नहीं बन रही है। थक हार कर अधिक दलहन उगाने की मशक्कत शुरू की गई है। किसानों का रोना है कि उन्हें अच्छे बीज ही नहीं मिल पा रहा है। जबकि सरकारी कृषि वैज्ञानिकों की फेहरिस्त में कई सौ वेरायटी तैयार हैं। यह है सरकारी अंतरविरोध। इसी को दूर करने के लिए सरकार ने नई योजना चालू की है। कुछ नमूने आप भी देख लें।
सरकार की कोशिशें कामयाब हुईं तो आने वाले सालों में रोटी के साथ दाल भी मयस्सर हो सकती है। देश में दाल की कमी और उसकी बढ़ती कीमतों से परेशान सरकार सारे विकल्पों को खंगालने में जुट गयी है। इसके तहत पहले दलहन ग्राम और अब बीज ग्राम बसाने की योजना पर अमल शुरू कर दिया गया है।
दलहन खेती को लाभप्रद बनाने और प्रोत्साहित करने के लिए किसानों को उनके गांव में ही अच्छे व उन्नत फाउंडेशन बीज मुहैया कराने की योजना है। योजना के तहत गांव के किसानों को ही लघु बीज गोदाम स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। दलहन बीजों के भंडारण के लिए उन्हें उचित भाड़ा भी दिया जाएगा। किसानों को दलहन की वैज्ञानिक खेती का मुफ्त प्रशिक्षण देने की भी योजना है। यह योजना राज्यों के कृषि ïिवभाग, कृषि विश्वविद्यालय और राज्य बीज निगम के साझा प्रयास से संचालित की जाएगी।
योजना के तहत दलहन खेती के इच्छुक किसानों को प्रति आधा एकड़ खेत के लिए जरूरी फाउंडेशन बीजों की आपूर्ति 50 फीसदी के सब्सिडी मूल्य पर की जाएगी। पहले चरण में किसानों को प्रशिक्षित करने की योजना है, जिसमें 150 किसानों के समूह को प्रशिक्षण देने के लिए 15 हजार रुपये का प्रावधान किया गया है।
दलहन बीजों के भंडारण के लिए जो किसान अपने स्तर पर गोदाम बनाकर बीजों की भंडारण करेंगे, उन्हें 1500 से 3000 रुपये का भाड़ा दिया जाएगा। यह भाड़ा 10 और 20 क्विंटल दलहन बीजों पर मिलेगा। अनुसूचित व अनुसूचित जनजाति के किसानों को देय भाड़े की राशि सामान्य वर्ग के किसानों के मुकाबले अधिक होगी।
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बेमौत मारे जाते हैं बेजुबान
मौत से बचने वाले पशु अपाहिज और लाचार होकर हो जाते हैं बेकार
देश के करोड़ों बेजुबान हर साल बेमौत मारे जाते हैं, लेकिन उनकी आह और कराह किसी को सुनवाई नहीं पड़ती है। सरकारी आंकड़े को ही सही मान लें तो हर साल कोई २० हजार करोड़ रुपये की लागत का पशुधन संक्रामक बीमारियों की भेंट चढ़ जाता है। इसके लिए सरकार का फंड ऊंट के मुंह में जीरा के बराबर ही है। देश में कोई तीन चार संस्थान ही हैं, जहां गिनती के पशु चिकित्सक तैयार होते हैं, उनमें से भी ज्यादातर विदेश का रुख कर लेते हैं। यहां तो सब कुछ नीम हकीम खतरे जान है। यह रिपोर्ट भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉक्टर एमसी. शर्मा से बातचीत पर आधारित है। हजारों करोड़ रुपये का जो नुकसान आप देख रहे हैं, वह तो सिर्फ पशुओं के संक्रामक रोग है। जाने कितने औ रोग हैं, जिनका जिक्र कभी और किसी रिपोर्ट में देने की कोशिश करुंगा।
हर बार की तरह इस साल (२०१०-११) भी टीके के अभाव में करोड़ों पशु मुंहपका- खुरपका रोग से मरने के लिए अभिशप्त हैं। देश में इसका टीका बनाने वाली कंपनियों की उत्पादन क्षमता मांग के मुकाबले बहुत कम है। यही वजह है कि अब तक केवल 54 जिलों में ही पशुओं का संपूर्ण टीकाकरण हो सका है, बाकी भगवान भरोसे हैं। जबकि यह इतना खतरनाक रोग है कि जो पशु मौत से बच भी जाते हैं, वे अपाहिज व लाचार होकर किसी काम के नहीं रहते।
पिछले साल ही देश पूरे देश में मुंहपका-खुरपका रोग फैला था। लेकिन इन बेजुबानों की मौत पर देश के किसी कोने से कोई आह तक नहीं निकली। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस रोग से सालाना पांच से 20 हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है। देश में केवल 54 ऐसे जिले हैं जहां इस रोग का प्रकोप नहीं हुआ था। इनका संबंध हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से है। यहां शत प्रतिशत पशुओं का टीकाकरण हो चुका है। इन जिलों को छोड़कर देश के बाकी जिलों में पशुओं की जान 'राम भरोसेÓ है। यहां टीके की भारी किल्लत है।
भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉक्टर एमसी. शर्मा का कहना है कि सितंबर से नंवबर के महीने में पशुओं में 'खुरपका व मुंहपकाÓ रोग के फैलने की आशंका सबसे अधिक होती है। पशुओं के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। इसके वायरस अत्यधिक गरमी, अत्यधिक जाड़ा अथवा ज्यादा बारिश के समय तेजी से सक्रिय होते हैं। चारे का अभाव, कीचड़ व भीगने से पशुओं में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता कम हो जाती है, जिससे इसका प्रकोप और तेज हो जाता है। समूचे देश और पूरे एशिया में यह वायरस सक्रिय है। मुंहपका में पशु के मुंह में छाले, जीभ में घाव, अल्सर और मुंह से लगातार लार टपकती रहती है। जबकि खुरपका में पशु के खुर के बीच में घाव हो जाता है और उसमें कीड़े पड़ जाते हैं। कहने को ये दो रोग हैं, मगर इनका वायरस एक है, लिहाजा टीका भी एक है।
इस वायरस के प्रभाव से मादा पशु के साथ सांड की प्रजनन क्षमता खत्म हो जाती है। नर पशु की कार्य क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है। दुधारू पशु दूध देना बंद कर देते हैं। डॉक्टर शर्मा का कहना है कि छोटे पशुओं में 20 फीसदी और बड़े पशुओं में 10 फीसदी तक के प्रभावित होने की आशंका रहती है। गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सूअरों के अलावा जंगली हिरनों में इसका प्रकोप सर्वाधिक होता है।
पशुओं के इस संक्रामक रोग पर काबू पाने के लिए सरकार ने आधा अधूरा प्रयास शुरू किया है। इसके तहत देश के 270 जिलों को टीकाकरण योजना में शामिल किया गया है। लेकिन कब तक वहां टीका पहुंचेगा इसका जवाब मंत्रालय में किसी के पास नहीं है। देश में पशुओं के टीकाकरण के लिए सालाना 60 लाख टीके चाहिए। लेकिन उत्पादन सिर्फ 10 लाख टीकों का ही हो पाता है।
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देश के करोड़ों बेजुबान हर साल बेमौत मारे जाते हैं, लेकिन उनकी आह और कराह किसी को सुनवाई नहीं पड़ती है। सरकारी आंकड़े को ही सही मान लें तो हर साल कोई २० हजार करोड़ रुपये की लागत का पशुधन संक्रामक बीमारियों की भेंट चढ़ जाता है। इसके लिए सरकार का फंड ऊंट के मुंह में जीरा के बराबर ही है। देश में कोई तीन चार संस्थान ही हैं, जहां गिनती के पशु चिकित्सक तैयार होते हैं, उनमें से भी ज्यादातर विदेश का रुख कर लेते हैं। यहां तो सब कुछ नीम हकीम खतरे जान है। यह रिपोर्ट भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉक्टर एमसी. शर्मा से बातचीत पर आधारित है। हजारों करोड़ रुपये का जो नुकसान आप देख रहे हैं, वह तो सिर्फ पशुओं के संक्रामक रोग है। जाने कितने औ रोग हैं, जिनका जिक्र कभी और किसी रिपोर्ट में देने की कोशिश करुंगा।
हर बार की तरह इस साल (२०१०-११) भी टीके के अभाव में करोड़ों पशु मुंहपका- खुरपका रोग से मरने के लिए अभिशप्त हैं। देश में इसका टीका बनाने वाली कंपनियों की उत्पादन क्षमता मांग के मुकाबले बहुत कम है। यही वजह है कि अब तक केवल 54 जिलों में ही पशुओं का संपूर्ण टीकाकरण हो सका है, बाकी भगवान भरोसे हैं। जबकि यह इतना खतरनाक रोग है कि जो पशु मौत से बच भी जाते हैं, वे अपाहिज व लाचार होकर किसी काम के नहीं रहते।
पिछले साल ही देश पूरे देश में मुंहपका-खुरपका रोग फैला था। लेकिन इन बेजुबानों की मौत पर देश के किसी कोने से कोई आह तक नहीं निकली। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस रोग से सालाना पांच से 20 हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है। देश में केवल 54 ऐसे जिले हैं जहां इस रोग का प्रकोप नहीं हुआ था। इनका संबंध हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से है। यहां शत प्रतिशत पशुओं का टीकाकरण हो चुका है। इन जिलों को छोड़कर देश के बाकी जिलों में पशुओं की जान 'राम भरोसेÓ है। यहां टीके की भारी किल्लत है।
भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉक्टर एमसी. शर्मा का कहना है कि सितंबर से नंवबर के महीने में पशुओं में 'खुरपका व मुंहपकाÓ रोग के फैलने की आशंका सबसे अधिक होती है। पशुओं के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। इसके वायरस अत्यधिक गरमी, अत्यधिक जाड़ा अथवा ज्यादा बारिश के समय तेजी से सक्रिय होते हैं। चारे का अभाव, कीचड़ व भीगने से पशुओं में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता कम हो जाती है, जिससे इसका प्रकोप और तेज हो जाता है। समूचे देश और पूरे एशिया में यह वायरस सक्रिय है। मुंहपका में पशु के मुंह में छाले, जीभ में घाव, अल्सर और मुंह से लगातार लार टपकती रहती है। जबकि खुरपका में पशु के खुर के बीच में घाव हो जाता है और उसमें कीड़े पड़ जाते हैं। कहने को ये दो रोग हैं, मगर इनका वायरस एक है, लिहाजा टीका भी एक है।
इस वायरस के प्रभाव से मादा पशु के साथ सांड की प्रजनन क्षमता खत्म हो जाती है। नर पशु की कार्य क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है। दुधारू पशु दूध देना बंद कर देते हैं। डॉक्टर शर्मा का कहना है कि छोटे पशुओं में 20 फीसदी और बड़े पशुओं में 10 फीसदी तक के प्रभावित होने की आशंका रहती है। गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सूअरों के अलावा जंगली हिरनों में इसका प्रकोप सर्वाधिक होता है।
पशुओं के इस संक्रामक रोग पर काबू पाने के लिए सरकार ने आधा अधूरा प्रयास शुरू किया है। इसके तहत देश के 270 जिलों को टीकाकरण योजना में शामिल किया गया है। लेकिन कब तक वहां टीका पहुंचेगा इसका जवाब मंत्रालय में किसी के पास नहीं है। देश में पशुओं के टीकाकरण के लिए सालाना 60 लाख टीके चाहिए। लेकिन उत्पादन सिर्फ 10 लाख टीकों का ही हो पाता है।
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Tuesday, August 10, 2010
सरकारी उलटबांसियां
खपरैल वाली झोपड़ी सरकार के लिए 'पक्का' मकान
ईंट की दीवारों से बना आशियाना हुआ 'कच्चा' मकान
उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के गरीबों का नुकसान, इंदिरा आवास योजना के लाभ से वंचित
कबीरदास की उलटबांसियां पढ़ते थे तो लगता है बेवजह का मजाक बक रखा है कबीर ने। लेकिन आंखों से देखा तो टकटकी ही लगी रही, वह भी भारत सरकार की। कागज पर जो लिख उठा, उसे पत्थर की लकीर मानिये। पिछले एक दशक पहले मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाकों की झोपडि़यों को सरकारी मुलाजिमों ने पक्का मकान लिख रखा है। इसे ठीक कराने वहां के मुख्यमंत्री ने न जाने कितनी बार दिल्ली का चक्कर लगा लिया। लेकिन ग्रामीण विकास मंत्रालय वालों को कहना है कि इसे तो योजना आयोग ठीक करेगा, उससे पूछा तो जवाब टका सा। भाई यह गलती है तो इस पंचवर्षीय योजना में तो ठीक नहीं होती। इंतजार करिये १२वीं योजना की। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री ने भी चिट्ठियां लिख रखा है। आप भी उनकी कारस्तानी के कुछ नमूने देखिए....
कच्ची दीवार और खपरैल को आप क्या मानेंगे? कच्चा या पक्का। सरकार तो इसे 'पक्का मकान' मानती है जबकि ईंट की दीवारों से बने मकान को 'कच्चा'। उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश को गरीबों को इसी उलटबांसी का नुकसान उठाना पड़ा है। इंदिरा आवास योजना में सबसे वह गरीब बाहर हो गई जिन्होंने अपनी कच्ची मड़ैया को खपरैल से ढकने की 'गलती' की थी।
देश के इन दोनों बड़े सूबों के गरीब इंदिरा आवास योजना के लाभ का लेने में केरल और बिहार जैसे राज्यों से भी पिछड़ गये हैं। जबकि देश के कुछ दूसरे राज्यों के लोग समझदार निकले। उन्होंने अपने ईंट व सीमेंट से बने मकानों की छत पर पुआल व पशु चारा रख कर उसे कच्चे मकान की श्रेणी में दर्ज करा लिया। मकानों के वर्गीकरण में घालमेल का यह नतीजा सालों बाद समझ में आया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के अनुसूचित जनजाति बहुल ब्लॉकों में 99 फीसदी मकान कच्ची मिट्टी अथवा घासफूस के बने हैं लेकिन ज्यादातर झोपडि़यों को खपरैल से ढका होने के कारण पक्का मान लिया गया है। ऐसे मकान वाले गरीबों को इंदिरा आवास योजना का लाभ नहीं मिल पाया है। मध्य प्रदेश ने पिछले साल 1.14 लाख बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया तो उत्तर प्रदेश ने 4.93 लाख इंदिरा आवास बनाने का। इसके मुकाबले बिहार जैसे राज्य में गरीबों के लिए मकानों का लक्ष्य 10.98 लाख रहा।
इंदिरा आवास योजना में उन्हीं गरीबों को मकान बनाने के लिए सरकारी मदद मिलती है, जिनके मकान कच्चे हों अथवा वे बेघर हों। इसका निर्धारण भी जनगणना के आंकड़ों और योजना आयोग सर्वेक्षण से होता है। कच्चे-पक्के मकानों की इस परिभाषा के चलते बड़े राज्यों के गरीब सस्ती आवास योजनाओं का लाभ लेने में लगातार पिछड़ रहे हैं।
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ईंट की दीवारों से बना आशियाना हुआ 'कच्चा' मकान
उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के गरीबों का नुकसान, इंदिरा आवास योजना के लाभ से वंचित
कबीरदास की उलटबांसियां पढ़ते थे तो लगता है बेवजह का मजाक बक रखा है कबीर ने। लेकिन आंखों से देखा तो टकटकी ही लगी रही, वह भी भारत सरकार की। कागज पर जो लिख उठा, उसे पत्थर की लकीर मानिये। पिछले एक दशक पहले मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाकों की झोपडि़यों को सरकारी मुलाजिमों ने पक्का मकान लिख रखा है। इसे ठीक कराने वहां के मुख्यमंत्री ने न जाने कितनी बार दिल्ली का चक्कर लगा लिया। लेकिन ग्रामीण विकास मंत्रालय वालों को कहना है कि इसे तो योजना आयोग ठीक करेगा, उससे पूछा तो जवाब टका सा। भाई यह गलती है तो इस पंचवर्षीय योजना में तो ठीक नहीं होती। इंतजार करिये १२वीं योजना की। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री ने भी चिट्ठियां लिख रखा है। आप भी उनकी कारस्तानी के कुछ नमूने देखिए....
कच्ची दीवार और खपरैल को आप क्या मानेंगे? कच्चा या पक्का। सरकार तो इसे 'पक्का मकान' मानती है जबकि ईंट की दीवारों से बने मकान को 'कच्चा'। उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश को गरीबों को इसी उलटबांसी का नुकसान उठाना पड़ा है। इंदिरा आवास योजना में सबसे वह गरीब बाहर हो गई जिन्होंने अपनी कच्ची मड़ैया को खपरैल से ढकने की 'गलती' की थी।
देश के इन दोनों बड़े सूबों के गरीब इंदिरा आवास योजना के लाभ का लेने में केरल और बिहार जैसे राज्यों से भी पिछड़ गये हैं। जबकि देश के कुछ दूसरे राज्यों के लोग समझदार निकले। उन्होंने अपने ईंट व सीमेंट से बने मकानों की छत पर पुआल व पशु चारा रख कर उसे कच्चे मकान की श्रेणी में दर्ज करा लिया। मकानों के वर्गीकरण में घालमेल का यह नतीजा सालों बाद समझ में आया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के अनुसूचित जनजाति बहुल ब्लॉकों में 99 फीसदी मकान कच्ची मिट्टी अथवा घासफूस के बने हैं लेकिन ज्यादातर झोपडि़यों को खपरैल से ढका होने के कारण पक्का मान लिया गया है। ऐसे मकान वाले गरीबों को इंदिरा आवास योजना का लाभ नहीं मिल पाया है। मध्य प्रदेश ने पिछले साल 1.14 लाख बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया तो उत्तर प्रदेश ने 4.93 लाख इंदिरा आवास बनाने का। इसके मुकाबले बिहार जैसे राज्य में गरीबों के लिए मकानों का लक्ष्य 10.98 लाख रहा।
इंदिरा आवास योजना में उन्हीं गरीबों को मकान बनाने के लिए सरकारी मदद मिलती है, जिनके मकान कच्चे हों अथवा वे बेघर हों। इसका निर्धारण भी जनगणना के आंकड़ों और योजना आयोग सर्वेक्षण से होता है। कच्चे-पक्के मकानों की इस परिभाषा के चलते बड़े राज्यों के गरीब सस्ती आवास योजनाओं का लाभ लेने में लगातार पिछड़ रहे हैं।
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अनाज के कटोरे का पानी सूखा
- पूर्वी उत्तर प्रदेश में पेयजल तक का संकट गहराया
- धान की रोपाई पर सबसे ज्यादा असर
मध्य प्रदेश की सोयाबीन पट्टी हुई सूनी
मानसून की बारिश से पूरा देश भले ही बल्ले-बल्ले कर रहा हो, लेकिन खाद्यान्न उत्पादन में अहम भूमिका निभाने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश के बड़े हिस्से में सूखे जैसी हालत पैदा हो गई है। बिहार में ४३ फीसदी कम बारिश हुई, लेकिन चुनावी साल होने के चलते वहां के राजनीतिक दल अपनी-अपनी रोटी सेंक रहे हैं। मुख्यमंत्री नीतीश प्रधानमंत्री से पांच हजार करोड़ मांग गये है। राजनीतिक हासिये पर पहुंच चुके लोजपा नेता राम विलास पासवान राज्यसभा में केंद्र से बिहार के लिे १५ हजार करोड़ रुपये मांग रहे है। भला हो पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों का, जहां के ज्यादातर जिलों में ६५ फीसदी तक कम बारिश हुई है। धान की रोपाई तो दूर, खेत में पुनपुना रही जोन्हरी (मक्का) भी मुरझाये पड़ी है। लेकिन उनकी राज्य सरकार को उनके बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं है। संसद में सूखे रेवडि़यों के लिए मारा मारी मची है। केंद्र सरकार की कांग्रेस भी चुटकी लेने से बाज नहीं आई। कहा वहां से कोई मांग ही नहीं आ रही है। भला एसे में केंद्र क्या कर सकता है।
मौसम विभाग ने शुक्रवार को साफ कर दिया कि इन इलाकों में बारिश औसत से कम रहेगी। यहां बादल बरसेंगे भी तो सितंबर में। यानी तब तक खरीफ खेती की संभावनाएं खत्म हो चुकी होंगी।
मौसम विभाग ने अगस्त व सितंबर माह में होने वाली बारिश के पूर्वानुमान के बारे में बताया कि बंगाल की खाड़ी में बनने वाला कम दबाव का क्षेत्र पूरी तरह विकसित होकर आगे नहीं बढ़ पा रहा है। इसी वजह से पूरब से आने वाली मानसूनी हवाएं पूर्वी राज्यों में बारिश नहीं ला पा रही हैं। यही वजह है कि इस पूरे इलाके में अभी भी 24 फीसदी कम बारिश हुई है। जबकि बीते सप्ताह झारखंड में 46 फीसदी, बिहार में 29 फीसदी और पूर्वी उत्तर प्रदेश में 32 फीसदी कम बारिश हुई। जबकि पश्चिमी मध्य में 26 फीसदी और पूर्वी मध्य प्रदेश में 18 फीसदी कम बारिश रिकॉर्ड की गई। इससे धान की रोपाई बुरी तरह प्रभावित हुई है। मध्य प्रदेश में सोयाबीन की बुवाई नहीं हो पाई है।
इसके चलते धान की रोपाई में भारी कमी दर्ज की गई है। कृषि मंत्रालय पिछले साल के सूखे में हुई धान की रोपाई रकबा से तुलना कर अपनी पीठ ठोंक रहा है। जबकि वर्ष 2008 में इसी अवधि में हुई रोपाई से इस बार धान की खेती बहुत पीछे चल रही है। धान रोपाई का ताजा आंकड़ा 212 लाख हेक्टेयर है, जबकि वर्ष 2008 में यह आंकड़ा 231 लाख हेक्टेयर पहुंच गया है। मौसम विज्ञानियों ने कहा कि मानसून की विदाई के वक्त सितंबर के आखिर तक भी इस पूरे इलाके में बारिश 10 फीसदी कम रहेगी। बिहार और झारखंड में राजनीतिक दलों ने राज्य को सूखाग्रस्त घोषित करने में बाजी मार ली है। पिछड़ा तो पूर्वी उत्तर प्रदेश।
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- धान की रोपाई पर सबसे ज्यादा असर
मध्य प्रदेश की सोयाबीन पट्टी हुई सूनी
मानसून की बारिश से पूरा देश भले ही बल्ले-बल्ले कर रहा हो, लेकिन खाद्यान्न उत्पादन में अहम भूमिका निभाने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश के बड़े हिस्से में सूखे जैसी हालत पैदा हो गई है। बिहार में ४३ फीसदी कम बारिश हुई, लेकिन चुनावी साल होने के चलते वहां के राजनीतिक दल अपनी-अपनी रोटी सेंक रहे हैं। मुख्यमंत्री नीतीश प्रधानमंत्री से पांच हजार करोड़ मांग गये है। राजनीतिक हासिये पर पहुंच चुके लोजपा नेता राम विलास पासवान राज्यसभा में केंद्र से बिहार के लिे १५ हजार करोड़ रुपये मांग रहे है। भला हो पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों का, जहां के ज्यादातर जिलों में ६५ फीसदी तक कम बारिश हुई है। धान की रोपाई तो दूर, खेत में पुनपुना रही जोन्हरी (मक्का) भी मुरझाये पड़ी है। लेकिन उनकी राज्य सरकार को उनके बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं है। संसद में सूखे रेवडि़यों के लिए मारा मारी मची है। केंद्र सरकार की कांग्रेस भी चुटकी लेने से बाज नहीं आई। कहा वहां से कोई मांग ही नहीं आ रही है। भला एसे में केंद्र क्या कर सकता है।
मौसम विभाग ने शुक्रवार को साफ कर दिया कि इन इलाकों में बारिश औसत से कम रहेगी। यहां बादल बरसेंगे भी तो सितंबर में। यानी तब तक खरीफ खेती की संभावनाएं खत्म हो चुकी होंगी।
मौसम विभाग ने अगस्त व सितंबर माह में होने वाली बारिश के पूर्वानुमान के बारे में बताया कि बंगाल की खाड़ी में बनने वाला कम दबाव का क्षेत्र पूरी तरह विकसित होकर आगे नहीं बढ़ पा रहा है। इसी वजह से पूरब से आने वाली मानसूनी हवाएं पूर्वी राज्यों में बारिश नहीं ला पा रही हैं। यही वजह है कि इस पूरे इलाके में अभी भी 24 फीसदी कम बारिश हुई है। जबकि बीते सप्ताह झारखंड में 46 फीसदी, बिहार में 29 फीसदी और पूर्वी उत्तर प्रदेश में 32 फीसदी कम बारिश हुई। जबकि पश्चिमी मध्य में 26 फीसदी और पूर्वी मध्य प्रदेश में 18 फीसदी कम बारिश रिकॉर्ड की गई। इससे धान की रोपाई बुरी तरह प्रभावित हुई है। मध्य प्रदेश में सोयाबीन की बुवाई नहीं हो पाई है।
इसके चलते धान की रोपाई में भारी कमी दर्ज की गई है। कृषि मंत्रालय पिछले साल के सूखे में हुई धान की रोपाई रकबा से तुलना कर अपनी पीठ ठोंक रहा है। जबकि वर्ष 2008 में इसी अवधि में हुई रोपाई से इस बार धान की खेती बहुत पीछे चल रही है। धान रोपाई का ताजा आंकड़ा 212 लाख हेक्टेयर है, जबकि वर्ष 2008 में यह आंकड़ा 231 लाख हेक्टेयर पहुंच गया है। मौसम विज्ञानियों ने कहा कि मानसून की विदाई के वक्त सितंबर के आखिर तक भी इस पूरे इलाके में बारिश 10 फीसदी कम रहेगी। बिहार और झारखंड में राजनीतिक दलों ने राज्य को सूखाग्रस्त घोषित करने में बाजी मार ली है। पिछड़ा तो पूर्वी उत्तर प्रदेश।
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