Wednesday, April 11, 2012
छटेंगे बूढ़े श्रमिक, एफसीआइ में खुलेगी नई भर्ती
खाद्य सुरक्षा कानून के अमल से पहले सरकार खाद्यान्न भंडारण की सबसे बड़ी एजेंसी एफसीआइ के ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन करने की तैयारी में जुट गई है। आधुनिक भंडारण प्रणाली का मशीनीकरण कर श्रमिकों का उपयोग सीमित किया जाएगा। भंडारण क्षमता बढ़ाने के साथ एफसीआइ में कर्मचारियों व श्रमिकों की भारी में कटौती की जाएगी। बूढ़े श्रमिकों की छंटनी के साथ एफसीआइ में नए श्रमिकों की भर्ती की जाएगी।
केंद्रीय उपभोक्ता व खाद्य मंत्री थामस का कहना है कि उम्र दराज श्रमिकों को ढोना मुनासिब नहीं है। इनकी छंटनी होगी और उनकी जगह नई भर्तियां की जाएंगी। श्रमिकों की शारीरिक क्षमता का परीक्षण भी किया जाएगा। ऐसे श्रमिकों की बड़ी संख्या है, जिनकी उम्र कागज में तो कम दर्ज है, लेकिन असल में बूढ़े हो चले हैं। अब वे छद्म नाम से श्रमिक के तौर पर काम कर रहे हैं। ऐसे लोगों को कार्यमुक्त करना अपरिहार्य हो गया है। श्रमिक यूनियनें भी इसके लिए राजी हैं।
खाद्य मंत्री केवी थॉमस ने कहा कि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के अमल की राह में आने वाली मुश्किलों को समय से सुलझा लिया जाएगा। उन्होंने माना कि भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) का पुनर्गठन एक बड़ी चुनौती है। इसमें पर्याप्त सुधार की योजना तैयार कर ली गई है। खाद्य सब्सिडी कम करने के लिए कई तरह के खर्च में कटौती करनी होगी। थामस ने बताया कि चीन व अन्य देशों के आधुनिक रखरखाव की तर्ज पर यहां भी खाद्यान्न के लादने व उतारने का काम पल्लेदारों के बजाए मशीनें करेंगी।
गोदामों को मैकेनाइज्ड करने की राह में श्रमिक यूनियनें रोड़ा बनी हुई हैं। हालांकि एफसीआइ प्रबंधन उनसे लगातार चर्चा कर रहा है। खाद्य मंत्री थामस ने पहल करते हुए खुद उनसे कई दौर की बातचीत की है। नए श्रमिकों की भर्ती खोल दी जाएगी, जिससे यह समस्या खत्म हो सकती है। लेकिन इससे पहले एफसीआइ में बूढ़े हो चले श्रमिकों की छुïट्टी की जाएगी।
एफसीआइ में वर्तमान में लगभग 50 हजार से अधिक श्रमिक काम कर रहे हैं। इन्हें मोटे तौर पर चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है। पहले वर्ग में ठेका श्रमिक हैं। जबकि दूसरे वर्ग के श्रमिक एफसीआइ में पंजीकृत हैं और वो जितना काम करते हैं, उसी के अनुरूप मजदूरी का भुगतान किया जाता है। तीसरी श्रेणी के श्रमिकों को न्यूनतम वेतन के साथ उनके काम के आधार पर भुगतान किया जाता है। चौथी श्रेणी के श्रमिक एफसीआइ के स्थायी होते हैं, जिन्हें सरकारी कर्मचारी के तौर पर सभी सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं। इनकी भर्ती उक्त तीनों वर्ग में लंबे समय तक काम करने के बाद एक तयशुदा प्रक्रिया के तहत की जाती है।
गांवों की सड़क के लिए विदेशी कर्ज की दरकार
गांवों को सड़कों से जोडऩे वाली बहुचर्चित प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना को संचालित करने के लिए विदेशी कर्ज की दरकार है। हजारों करोड़ रुपये के कर्ज की पहली किश्त को मंजूरी मिल चुकी है। जबकि कर्ज की ढाई हजार करोड़ की दूसरी किश्त के लिए केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय कोशिश कर रहा है। विदेशी कर्ज का उपयोग ग्र्रामीण सड़क निर्माण में नई प्रौद्योगिकी और अनुसंधान के मद में किया जाएगा।
केंद्रीय ग्र्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने इसके लिए वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी से अनुमति मांगी है ताकि दूसरी किश्त के लिए एडीबी से समय से समझौता हो सके। ग्र्रामीण विकास मंत्रालय की सबसे सफल योजनाओं में गिनी जाने वाली प्रधानमंत्री ग्र्रामीण सड़क योजना (पीएमजीएसवाई) के लिए तत्काल धन की जरूरत है। इसका एक बड़ा हिस्सा विदेशी कर्ज से पूरा होता है।
पीएमजीएसवाई के लिए पिछले महीने ही एशियाई विकास बैंक (एडीबी) ने 4000 करोड़ रुपये के कर्ज की मंजूरी प्रदान की है। ग्रामीण विकास मंत्रालय का मानना है कि इतनी राशि से काम नहीं चलने वाला है, इसलिए 2500 करोड़ रुपये की दूसरी किश्त के लिए प्रस्ताव तैयार किया गया है। मसौदे को वित्त मंत्रालय के पास मंजूरी के लिए भेजा गया है। ग्र्रामीण विकास मंत्री रमेश ने वित्त मंत्री मुखर्जी को लिखे पत्र में प्रस्ताव का पूरा ब्यौरा दिया है।
ग्र्रामीण विकास मंत्रालय ने एडीबी के निर्धारित प्रारुप के मुताबिक तैयार प्रस्ताव वित्त मंत्रालय को भेजा गया है। एडीबी से प्राप्त ऋण का उपयोग मंत्रालय ग्र्रामीण सड़कों के निर्माण में नई प्रौद्योगिकी और अनुसंधान व विकास के लिए किया जाएगा। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने अपने पत्र में तैयार किए गए प्रस्ताव में विदेशी कर्ज वाले हिस्से के अनुपात का पूरा ध्यान रखने का हवाला दिया है।
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उपभोक्ता संरक्षण
उपभोक्ता अदालतों को और कारगर बनाने की तैयारी
राष्ट्रीय आयोग के सदस्यों को मिलेंगी हाईकोर्ट के जजों की सुविधाएं
उपभोक्ता फोरम के अध्यक्षों के बढ़ेंगे अधिकार
शिकायतों के निपटारे के लिए नियम-कानून होंगे सरल
उपभोक्ता अदालतों में खाली पदों को भरने के लिए सरकार का फैसला
उपभोक्ताओं के हित संरक्षण वाली अदालतों में जजों के खाली पदों को भरने के लिए सरकार ने नियमों को सरल बनाने का फैसला किया है। शिकायतों के समयबद्ध निपटारे के लिए जिला उपभोक्ता फोरम के अध्यक्षों को और अधिकार दिए जाएंगे। इसी तरह छोटी शिकायतों को भी उपभोक्ता अदालतों के दायरे में लाने का निर्णय किया गया है।
केंद्रीय उपभोक्ता मामले मंत्रालय ने यह प्रस्ताव तैयार किया है। इसके मुताबिक राष्ट्रीय उपभोक्ता शिकायत निवारण आयोग (एनसीडीआरसी) के सदस्यों को अब हाईकोर्ट के जजों की सेवा शर्तें और उनकी सुविधाएं उपलब्ध कराने का प्रस्ताव है। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय आयोग के 11 सदस्यों में से पांच पद रिक्त हैं। दूसरे प्रस्ताव में राज्य उपभोक्ता आयोग में सदस्यों की नियुक्ति की योग्यता को सरल बना दिया गया है। इसके तहत आयोग में सदस्यों की नियुक्ति के लिए संगठन अथवा विशेषज्ञों को भी स्थान दिया जा सकता है।
देश के तमाम जिला फोरम के अध्यक्षों के पद खाली होने से वहां की शिकायतों का निपटारा नहीं हो पा रहा है। यह बहुत पुरानी और गंभीर शिकायत है, जिसे सरकार ने काफी गंभीरता से लिया है। उपभोक्ता मंत्रालय ने कुछ प्रावधान किया है, इसके तहत जिन जिलों में अध्यक्ष के पद खाली होंगे, उसके पड़ोस वाले जिले के उपभोक्ता फोरम के अध्यक्ष को वहां का कार्यकारी अध्यक्ष नामित किया जा सकता है। इसके लिए राज्य आयोग की सहमति जरूरी है।
देश के 35 राज्यों के उपभोक्ता आयोग के अध्यक्ष की तीन पद और 629 सदस्यों में से 20 पद खाली चल रहे हैं। इसी तरह देश के 629 जिलों में से 60 अध्यक्षों के पद और 1250 सदस्यों में से 270 पद खाली हैं। इसके साथ छोटी शिकायतों को भी उपभोक्ता अदालतों के दायरे में लाने का प्रावधान किया गया है। साथ ही शिकायत के तरीके को और सरल बनाने का प्रयास किया गया है। इसके तहत पांच सौ रुपये वाले मामले भी यहां सुने जा सकेंगे, साथ ही शिकायतें आन लाइन भी की जा सकेंगी।
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केंद्र व सूबों की लड़ाई में फंसी गरीबों की गणना
गरीबी में आटा गीला
केंद्र व राज्यों के बीच की राजनीतिक कलह के चलते गरीबों की जनगणना भी अधर में लटक गई है। केंद्र और सूबों की इस राजनीतिक लड़ाई में गरीबों के पिसने की आशंका बढ़ गई है। गैर कांग्रेसी सरकार वाले ज्यादातर राज्यों में सामाजिक-आर्थिक जनगणना की सुगबुगाहट भी नहीं शुरू हो पाई है। इसकी वजह से गरीबों की योजनाओं के अमल में समस्या आ सकती है।
ज्यादातर राज्यों में गरीबों की जनगणना के तरीके पर ही एतराज है। उनके हिसाब से इसमें तमाम तरह की खामियां है, जिन्हें लेकर उन्होंने अपनी आपत्तियां पहले ही दर्ज करा दी हैं। उत्तर प्रदेश में बसपा और कांग्र्रेस के बीच राजनीतिक तकरार बाधा बनी हुई है। राज्य सरकार ने इस दिशा में कोई पहल ही नहीं की है। बिहार सरकार ने गरीबों की संख्या और गणना की प्रक्रिया को दोषपूर्ण करार दिया है। इसमें सुधार करने के लिए अकेले बिहार ने केंद्र से अतिरिक्त 90 करोड़ रुपये की मदद मांगी है।
सामाजिक-आर्थिक जनगणना दिसंबर 2011 तक पूरा करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। लेकिन देश के किसी भी राज्य में जनगणना पूरी नहीं हो पाई है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और गुजरात जैसे बड़े राज्यों में गरीबों की गणना चालू भी नहीं हो सकी है। यही नहीं, कांग्रेस शासित दिल्ली और केरल प्रदेश में भी जनगणना शुरू नहीं की जा सकी है। महाराष्ट्र में यह गणना पांच फीसदी क्षेत्रों में ही पूरी हो पाई है।
गरीबों की जनगणना में विलंब होने के बाबत ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, वहां देरी हो रही है। उनका कहना है कि महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय के चुनाव हैं। उड़ीसा में पंचायतों के चुनाव हो रहे हैं, जबकि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। लेकिन उनके इस दावे के विपरीत पंजाब में विधानसभा चुनाव होने हैं, पर वहां जनगणना अंतिम दौर में है। ग्रामीण विकास मंत्रालय को उम्मीद है कि जून 2012 तक सभी राज्यों में गरीबों की जनगणना का काम पूरा कर लिया जाएगा। सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से इस काम को प्राथमिकता के स्तर पर पूरा करने का आग्रह किया गया है।
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Saturday, December 31, 2011
विवादों के पर्यायः मणिशंकर अय्यर
ब्यूरोक्रेट से कांग्रेस के नेता बने मणिशंकर अय्यर का विवादों से नाता पुराना है। मंत्री रहें अथवा नहीं। न उन्हें विवाद छोड़ता और न ही वो विवादों से नाता तोड़ते हैं। उनके मुंह से निकली बातों के इसी अंदाज मे मायने भी लगाए जाते रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सिपहसालार रहे अय्यर पर आज भी उस दौर की खुमारी चढ़ी रहती है। उनके ज्यादातर मित्र उन्हें मणि नाम से ही पुकारते हैं। उनके साथ संसद की लॉबी में बिताए दस मिनट का ब्यौरा पेश कर रहा हूं। मौका था २९ दिसंबर। स्थान- राज्यसभा की लॉबी। और वक्त था रात के करीब ९.३० बजे। मणि अपनी रौ में थे। साथ में गिने चुने कुछ पत्रकार उनके इर्द गिर्द खड़े थे।
तभी राज्यसभा की गैलरी से निकलकर जाने-माने फिल्मकार श्याम बेनेगल निकल रहे थे। बेनेगल ने मणि को देखा तो नमस्ते भी ठोंक दी। फिर क्या था मणि ने उनके समक्ष एक प्रस्ताव रख दिया। बेनेगल साहब एक फिल्म बनाइए। शीर्षक भी दे डाला....उल्लूवालियों की अमर कथाएं, बेनेगल परेशान भई यह कैसा शीर्षक है। पूछ भी दिया, इसके मायने...'एमएस' और 'एसएस' (मोंटेक व सुरंदर सिंह)। बेचारे श्याम थोड़ा सहमें पर चलते बने। उनके भीतर क्या चल रहा था राम जानें। लेकिन वहां खड़े पत्रकारों के हंसी छूट पड़ी। अभी हंसी रुकी नहीं कि इसी बीच कांग्रेस के उत्तर प्रदेश के एक दिन के मुख्यमंत्री रहे और मौजूदा सांसद जगदंबिका पाल दिख गए। पाल साहब ने मणि को देखा और हाथ मिलाया और चलते बने। बस इतने में मणि फिर फूट पड़े। कहा, इन महाशय का देखिए, राजीव जी प्रधानमंत्री थे, तो ये साहब मेरे पांव के हाथ लगाते थे और आज हाथ मिला रहे हैं। उनके चेहरे पर थोड़ा गुस्सा और बेचैनी थी।
अगला सीन कुछ यूं था कि इसी बीच पंजाब विधानसभा चुनाव में वहां की संगरुर सीट से प्रत्याशी बनने का एक दावेदार आ धमका। उसने मणि के आगे दोनों हाथ जोड़ते हुए थोड़ी पंजाबी तड़के वाली हिंदी में आग्रह करना शुरु कर दिया। बेखौफ बोलता रहा। उसके चुप होने के बाद बड़े इत्मीनान से मणि ने कहा कि भाई टिकट चाहिए तो कांग्रेस के किसी और नेता से संपर्क करो। संभव हो सके तो अहमद पटेल से मिलो। मेरी पैरव्वी का मतलब मिलता टिकट भी कट जाएगा। लेकिन दावेदार भी कहां थमता, हार माने बगैर उसने कहा, सरजी आप ही हमारे माईबाप है। आप पैरवी करिए टिकट मिले या न मिले। इसकी चिंता छोड़िए। मणि ने उसी से पूछा, अच्छा तो बोलो भाई, किससे कह दूं। कुछ नहीं सर जी। सिर्फ सीपी जोशी से बोल दो काम हो जाएगा। अरे बाप रे। लगा किसी ने डंक मार दिया। मणि ने उसका आवेदन उसके हाथ में पकड़ाते हुए झिड़की दी और कहा, जाओ यहां से हटो। कांग्रेस में मेरे दो दुश्मन है, इनमें एक सीपी और दूसरा जयराम। भला मैं इनसे कुछ कह सकता हूं।
तभी राज्यसभा की गैलरी से निकलकर जाने-माने फिल्मकार श्याम बेनेगल निकल रहे थे। बेनेगल ने मणि को देखा तो नमस्ते भी ठोंक दी। फिर क्या था मणि ने उनके समक्ष एक प्रस्ताव रख दिया। बेनेगल साहब एक फिल्म बनाइए। शीर्षक भी दे डाला....उल्लूवालियों की अमर कथाएं, बेनेगल परेशान भई यह कैसा शीर्षक है। पूछ भी दिया, इसके मायने...'एमएस' और 'एसएस' (मोंटेक व सुरंदर सिंह)। बेचारे श्याम थोड़ा सहमें पर चलते बने। उनके भीतर क्या चल रहा था राम जानें। लेकिन वहां खड़े पत्रकारों के हंसी छूट पड़ी। अभी हंसी रुकी नहीं कि इसी बीच कांग्रेस के उत्तर प्रदेश के एक दिन के मुख्यमंत्री रहे और मौजूदा सांसद जगदंबिका पाल दिख गए। पाल साहब ने मणि को देखा और हाथ मिलाया और चलते बने। बस इतने में मणि फिर फूट पड़े। कहा, इन महाशय का देखिए, राजीव जी प्रधानमंत्री थे, तो ये साहब मेरे पांव के हाथ लगाते थे और आज हाथ मिला रहे हैं। उनके चेहरे पर थोड़ा गुस्सा और बेचैनी थी।
अगला सीन कुछ यूं था कि इसी बीच पंजाब विधानसभा चुनाव में वहां की संगरुर सीट से प्रत्याशी बनने का एक दावेदार आ धमका। उसने मणि के आगे दोनों हाथ जोड़ते हुए थोड़ी पंजाबी तड़के वाली हिंदी में आग्रह करना शुरु कर दिया। बेखौफ बोलता रहा। उसके चुप होने के बाद बड़े इत्मीनान से मणि ने कहा कि भाई टिकट चाहिए तो कांग्रेस के किसी और नेता से संपर्क करो। संभव हो सके तो अहमद पटेल से मिलो। मेरी पैरव्वी का मतलब मिलता टिकट भी कट जाएगा। लेकिन दावेदार भी कहां थमता, हार माने बगैर उसने कहा, सरजी आप ही हमारे माईबाप है। आप पैरवी करिए टिकट मिले या न मिले। इसकी चिंता छोड़िए। मणि ने उसी से पूछा, अच्छा तो बोलो भाई, किससे कह दूं। कुछ नहीं सर जी। सिर्फ सीपी जोशी से बोल दो काम हो जाएगा। अरे बाप रे। लगा किसी ने डंक मार दिया। मणि ने उसका आवेदन उसके हाथ में पकड़ाते हुए झिड़की दी और कहा, जाओ यहां से हटो। कांग्रेस में मेरे दो दुश्मन है, इनमें एक सीपी और दूसरा जयराम। भला मैं इनसे कुछ कह सकता हूं।
Tuesday, December 20, 2011
कहीं पीडीएस के 'मुन्नाभा' न मार ले जाएं रियायती अनाज
खाद्य सुरक्षा विधेयक की खामियां-2
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- 31 दिसंबर 2011 तक पूरी नहीं हो पाएगी गरीबों की पहचान और गणना
- गरीबों की संख्या को लेकर केंद्र व राज्यों के बीच टकराव बरकरार
- गैर सरकारी संगठनों ने भी गरीबों की गणना पर जताई आपत्ति
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सुरेंद्र प्रसाद सिंह
खाद्य सुरक्षा विधेयक के अमल में गरीबों की पहचान को लेकर सरकार के सामने बड़ी चुनौती है। इस मसले का व्यावहारिक समाधान न हुआ तो गरीबों के रियायती अनाज की लूट में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के 'मुन्नाभाईÓ बाजी मार ले जाएंगे। कई राज्य सरकारों और संगठनों ने केंद्र को इस तरह से होने वाली गड़बड़ी की जानकारी दे दी है।
राजनीतिक वजहों से सरकार खाद्य सुरक्षा विधेयक लाने की भारी हड़बड़ी में है, जिसका लाभ अनाज के चोर उठा सकते हैं। गरीबों की पहचान करने के लिए आर्थिक-सामाजिक जनगणना-2011 लांच की गई है, जिसे हर हाल में 31 दिसंबर 2011 तक पूरा करना था। इसी जनगणना के आंकड़ों के आधार पर गरीबों की पहचान की जाएगी। लेकिन उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में यह जनगणना शुरू ही नहीं हो सकी है। जबकि महाराष्ट्र में सिर्फ एक फीसदी और आंध्र प्रदेश में 15 फीसदी काम पूरा हो पाया है। बिहार ने इस पूरी प्रक्रिया पर सवाल खड़ा किया था।
जनगणना के ताजा आंकड़ों के आधार पर खाद्य सुरक्षा विधेयक को लागू की जाएगी। ग्रामीण विकास मंत्रालय के सूत्रों की मानें तो जनगणना इतनी धीमी गति से हो रही है कि इसके आंकड़ों के आधार पर राशन प्रणाली किसी भी हाल में अप्रैल 2012 से चालू नहीं हो सकती है। अव्वल तो यह है कि गरीबों की पहचान वाली यह पूरी प्रक्रिया ही विवादों से घिरी है। इसमें एपीएल, बीपीएल और एएवाई जैसी श्रेणियां खत्म हो जाएंगी। इसमें सिर्फ सामान्य और प्राथमिकता क्षेत्र वाले उपभोक्ता शामिल होंगे। निर्धारित सात मानकों को आधार बनाया गया है, जिन पर गैर सरकारी संगठनों का प्रबल विरोध है।
गरीबों की पहचान और उनकी संख्या को लेकर केंद्र व राज्यों के बीच भी लगातार विरोध के स्वर उभरते रहे हैं। गरीबों की संख्या पहले ही 37.2 फीसदी मान ली गई है, जिसे राज्य सरकारें मानने को तैयार नहीं हैं। हालांकि खाद्य सुरक्षा विधेयक में इस आंकड़े से कहीं अधिक परिवारों को रियायती अनाज देने का प्रावधान है। योजना आयोग के आंकड़ों में फिलहाल जहां 6.52 करोड़ परिवारों को गरीब माना गया है, वहीं राज्य सरकारें 10.76 करोड़ परिवारों को गरीब मानती हैं। उन्हें राशनकार्ड भी जारी किया गया है।
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- 31 दिसंबर 2011 तक पूरी नहीं हो पाएगी गरीबों की पहचान और गणना
- गरीबों की संख्या को लेकर केंद्र व राज्यों के बीच टकराव बरकरार
- गैर सरकारी संगठनों ने भी गरीबों की गणना पर जताई आपत्ति
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सुरेंद्र प्रसाद सिंह
खाद्य सुरक्षा विधेयक के अमल में गरीबों की पहचान को लेकर सरकार के सामने बड़ी चुनौती है। इस मसले का व्यावहारिक समाधान न हुआ तो गरीबों के रियायती अनाज की लूट में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के 'मुन्नाभाईÓ बाजी मार ले जाएंगे। कई राज्य सरकारों और संगठनों ने केंद्र को इस तरह से होने वाली गड़बड़ी की जानकारी दे दी है।
राजनीतिक वजहों से सरकार खाद्य सुरक्षा विधेयक लाने की भारी हड़बड़ी में है, जिसका लाभ अनाज के चोर उठा सकते हैं। गरीबों की पहचान करने के लिए आर्थिक-सामाजिक जनगणना-2011 लांच की गई है, जिसे हर हाल में 31 दिसंबर 2011 तक पूरा करना था। इसी जनगणना के आंकड़ों के आधार पर गरीबों की पहचान की जाएगी। लेकिन उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में यह जनगणना शुरू ही नहीं हो सकी है। जबकि महाराष्ट्र में सिर्फ एक फीसदी और आंध्र प्रदेश में 15 फीसदी काम पूरा हो पाया है। बिहार ने इस पूरी प्रक्रिया पर सवाल खड़ा किया था।
जनगणना के ताजा आंकड़ों के आधार पर खाद्य सुरक्षा विधेयक को लागू की जाएगी। ग्रामीण विकास मंत्रालय के सूत्रों की मानें तो जनगणना इतनी धीमी गति से हो रही है कि इसके आंकड़ों के आधार पर राशन प्रणाली किसी भी हाल में अप्रैल 2012 से चालू नहीं हो सकती है। अव्वल तो यह है कि गरीबों की पहचान वाली यह पूरी प्रक्रिया ही विवादों से घिरी है। इसमें एपीएल, बीपीएल और एएवाई जैसी श्रेणियां खत्म हो जाएंगी। इसमें सिर्फ सामान्य और प्राथमिकता क्षेत्र वाले उपभोक्ता शामिल होंगे। निर्धारित सात मानकों को आधार बनाया गया है, जिन पर गैर सरकारी संगठनों का प्रबल विरोध है।
गरीबों की पहचान और उनकी संख्या को लेकर केंद्र व राज्यों के बीच भी लगातार विरोध के स्वर उभरते रहे हैं। गरीबों की संख्या पहले ही 37.2 फीसदी मान ली गई है, जिसे राज्य सरकारें मानने को तैयार नहीं हैं। हालांकि खाद्य सुरक्षा विधेयक में इस आंकड़े से कहीं अधिक परिवारों को रियायती अनाज देने का प्रावधान है। योजना आयोग के आंकड़ों में फिलहाल जहां 6.52 करोड़ परिवारों को गरीब माना गया है, वहीं राज्य सरकारें 10.76 करोड़ परिवारों को गरीब मानती हैं। उन्हें राशनकार्ड भी जारी किया गया है।
अनाज की खुली लूट का रास्ता खोल देगा खाद्य सुरक्षा विधेयक
खाद्य सुरक्षा विधेयक की खामियां
-मौजूदा राशन प्रणाली केभरोसे खाद्य सुरक्षा के मायने दोगुनी लूट
-राशन प्रणाली में 60 फीसदी चावल व 20 फीसदी गेहूं हो जाता है चोरी
सुरेंद्र प्रसाद सिंह
ध्वस्त राशन प्रणाली पर खाद्य सुरक्षा विधेयक का बोझ डालने का सीधा मतलब खाद्य सब्सिडी में दोगुनी लूट है। सरकार इसी मरी राशन प्रणाली के भरोसे देश की तीन चौथाई जनता को रियायती मूल्य पर अनाज बांटने का मंसूबा पाले बैठी है। जबकि उसी की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक 60 फीसदी रियायती दर वाला गेहूं और 20 फीसदी चावल गरीबों तक पहुंचने से पहले ही लूट लिया जाता है।
पिछले वित्त वर्ष के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक राशन प्रणाली ध्वस्त हो चुकी है। इसमें आधे से ज्यादा अनाज का लीकेज (चोरी) हो जाता है। अनाज की यह लूट एफसीआइ के गोदामों से लेकर राशन के दुकानदारों तक होती है। प्रणाली में सुधार के सारे उपाय नाकाफी साबित हुए हैं। इन तथ्यों से वाकिफ होने के बावजूद सरकार इसी चरमराई प्रणाली पर दोहरा बोझ डालने का मंसूबा पाले बैठी है।
राशन प्रणाली में फिलहाल 35 करोड़ लोगों को राशन वितरित किया जाता है। जबकि प्रस्तावित विधेयक में अब 80 करोड़ लोगों को राशन देने का प्रावधान है। जाहिर है मौजूदा राशन प्रणाली के लिए यह बड़ा बोझ होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो राशन अनाज की लूट बढ़कर दोगुनी हो जाएगी।
इन तथ्यों के बावजूद सरकार ने राशन प्रणाली में आमूल सुधार करने पर बहुत जोर नहीं दिया है। प्रस्तावित विधेयक में राशन प्रणाली को सुधारने का जिम्मा राज्य सरकारों पर छोड़ दिया गया है। इससे खाद्य सुरक्षा विधेयक के रियायती अनाज में खुली लूट की आशंका है। इक्का-दुक्का राज्यों को छोड़कर बाकी राज्यों में राशन प्रणाली में भारी खामियां गिनाई गई हैं। संसद में सरकार के एक जवाब के मुताबिक पूर्वोत्तर राज्यों के राशन का पूरा अनाज खुले बाजार में बिकने के लिए पहुंच जाता है।
खाद्य सुरक्षा विधेयक में कुछ प्रावधान जरूर किया गया है, लेकिन इसके अमल को लेकर संदेह है। विधेयक के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों के 75 फीसदी जिन लोगों को रियायती अनाज देना है, उनमें से 46 फीसदी गरीबों को अनाज इसी पुरानी प्रणाली पर देने की व्यवस्था है। लेकिन 29 फीसदी सामान्य उपभोक्ताओं को रियायती अनाज देने के लिए राशन प्रणाली में सुधार जरूरी होगा। इसी तरह 50 फीसदी शहरी उपभोक्ताओं में 22 फीसदी सामान्य उपभोक्ताओं के लिए सुधार करना होगा। लेकिन विधेयक में सुधार का जिम्मा राज्यों के ऊपर छोड़ दिया गया है। सुधार के लिए राशन प्रणाली का कंप्यूटरीकरण, राशन कार्ड को 'आधारÓ से जोडऩे और कूपन व्यवस्था शुरू करने की व्यवस्था दी गई है। लेकिन राशन प्रणाली में सुधार के लिए वित्तीय मदद को लेकर प्रावधान में स्पष्ट निर्देश नहीं हैं। इसे लेकर केंद्र व राज्यों के बीच तकरार होनी तय है। इसी तरह अभी तक 'आधारÓ का भविष्य भी अनिश्चित है।
-मौजूदा राशन प्रणाली केभरोसे खाद्य सुरक्षा के मायने दोगुनी लूट
-राशन प्रणाली में 60 फीसदी चावल व 20 फीसदी गेहूं हो जाता है चोरी
सुरेंद्र प्रसाद सिंह
ध्वस्त राशन प्रणाली पर खाद्य सुरक्षा विधेयक का बोझ डालने का सीधा मतलब खाद्य सब्सिडी में दोगुनी लूट है। सरकार इसी मरी राशन प्रणाली के भरोसे देश की तीन चौथाई जनता को रियायती मूल्य पर अनाज बांटने का मंसूबा पाले बैठी है। जबकि उसी की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक 60 फीसदी रियायती दर वाला गेहूं और 20 फीसदी चावल गरीबों तक पहुंचने से पहले ही लूट लिया जाता है।
पिछले वित्त वर्ष के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक राशन प्रणाली ध्वस्त हो चुकी है। इसमें आधे से ज्यादा अनाज का लीकेज (चोरी) हो जाता है। अनाज की यह लूट एफसीआइ के गोदामों से लेकर राशन के दुकानदारों तक होती है। प्रणाली में सुधार के सारे उपाय नाकाफी साबित हुए हैं। इन तथ्यों से वाकिफ होने के बावजूद सरकार इसी चरमराई प्रणाली पर दोहरा बोझ डालने का मंसूबा पाले बैठी है।
राशन प्रणाली में फिलहाल 35 करोड़ लोगों को राशन वितरित किया जाता है। जबकि प्रस्तावित विधेयक में अब 80 करोड़ लोगों को राशन देने का प्रावधान है। जाहिर है मौजूदा राशन प्रणाली के लिए यह बड़ा बोझ होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो राशन अनाज की लूट बढ़कर दोगुनी हो जाएगी।
इन तथ्यों के बावजूद सरकार ने राशन प्रणाली में आमूल सुधार करने पर बहुत जोर नहीं दिया है। प्रस्तावित विधेयक में राशन प्रणाली को सुधारने का जिम्मा राज्य सरकारों पर छोड़ दिया गया है। इससे खाद्य सुरक्षा विधेयक के रियायती अनाज में खुली लूट की आशंका है। इक्का-दुक्का राज्यों को छोड़कर बाकी राज्यों में राशन प्रणाली में भारी खामियां गिनाई गई हैं। संसद में सरकार के एक जवाब के मुताबिक पूर्वोत्तर राज्यों के राशन का पूरा अनाज खुले बाजार में बिकने के लिए पहुंच जाता है।
खाद्य सुरक्षा विधेयक में कुछ प्रावधान जरूर किया गया है, लेकिन इसके अमल को लेकर संदेह है। विधेयक के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों के 75 फीसदी जिन लोगों को रियायती अनाज देना है, उनमें से 46 फीसदी गरीबों को अनाज इसी पुरानी प्रणाली पर देने की व्यवस्था है। लेकिन 29 फीसदी सामान्य उपभोक्ताओं को रियायती अनाज देने के लिए राशन प्रणाली में सुधार जरूरी होगा। इसी तरह 50 फीसदी शहरी उपभोक्ताओं में 22 फीसदी सामान्य उपभोक्ताओं के लिए सुधार करना होगा। लेकिन विधेयक में सुधार का जिम्मा राज्यों के ऊपर छोड़ दिया गया है। सुधार के लिए राशन प्रणाली का कंप्यूटरीकरण, राशन कार्ड को 'आधारÓ से जोडऩे और कूपन व्यवस्था शुरू करने की व्यवस्था दी गई है। लेकिन राशन प्रणाली में सुधार के लिए वित्तीय मदद को लेकर प्रावधान में स्पष्ट निर्देश नहीं हैं। इसे लेकर केंद्र व राज्यों के बीच तकरार होनी तय है। इसी तरह अभी तक 'आधारÓ का भविष्य भी अनिश्चित है।
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