Wednesday, November 28, 2012
समझौते के बाद भी केंद्र की मुश्किलें नहीं होंगी कम
-राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति को लागू करना भी राज्यों का अधिकार क्षेत्र
-ज्यादातर मांगों का ताल्लुक राज्यों से, छह महीने में पूरा करने का वायदा
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नई दिल्ली।
सत्याग्रहियों से समझौता कर केंद्र सरकार भूमिहीन आदिवासियों को मनाने में भले ही सफल हो गई हो, लेकिन अब उसकी राह और कठिन हो गई है। राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति तैयार करने पर सहमति तो बन गई है, लेकिन जमीन संबंधी मसलों को सुलझाने के लिए राज्यों को ही आगे आना होगा। समझौता-पत्र में दर्ज मांगों में ज्यादातर का ताल्लुक राज्यों से है, जिन्हें पूरा कर पाना अकेले केंद्र के बस की बात नहीं है। और तो और, जो काम केंद्र सरकार अब तक नहीं कर पाई, उसे अगले छह महीने में पूरा करना होगा।
आगरा के समझौता-पत्र में सभी 10 मांगों को पूरा करने के लिए समयबद्ध कार्यक्रम निश्चित किया गया है। इसी निर्धारित समय में केंद्र सरकार राज्यों को मनाएगी भी। गैर कांग्र्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और उनकी सरकारें भला केंद्र की मंशा कैसे पूरा होने देंगी? इससे आने वाले दिनों में राजनीतिक रार के बढऩे के आसार हैं। हालांकि भाजपा शासित मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक दिन पहले ही भूमिहीन आदिवासी और अनुसूचित जाति के लोगों की मांगों को पूरा करने के लिए तमाम वायदे दोनों हाथों से उलीचे
समझौते के मुताबिक भूमिहीन आदिवासी और अनुसूचित जाति के लोगों के लिए राज्यों को जो कुछ करना है, उसमें एक दर्जन से अधिक मांगे शामिल हैं। एकता परिषद के नेता पीवी राजगोपाल का स्पष्ट कहना है कि केंद्र सरकार इन मांगों के लिए राज्यों पर दबाव बनाए। इसके लिए राज्य के मुख्यमंत्री, राजस्व मंत्री और उनके आला अफसरों के साथ विचार-विमर्श करे।
मौजूदा नियम व कानूनों को धता बताकर बड़ी संख्या में आदिवासियों की जमीनों पर गैर आदिवासियों के कब्जे को हटाकर उन्हें उनका हक दिलाना एक बड़ी समस्या है। अनुसूचित जातियों और आदिवासियों को आवंटित जमीनों का हस्तांतरण करना भी राज्यों के अधिकार क्षेत्र का मसला है। उद्योगों को लीज अथवा अन्य विकास परियोजनाओं के लिए अधिग्रहीत जमीनों का बड़ा हिस्सा सालों-साल से उपयोग नहीं हो रहा है। खाली पड़ी इन जमीनों को दोबारा भूमिहीनों में वितरित करना होगा और आदिवासी और अनुसूचित जाति के लोगों की परती और असिंचित भूमि को सिंचित बनाने के लिए मनरेगा के माध्यम के उपजाऊ बनाने पर जोर देना होगा।
बटाईदार और पट्टाधारकों को भी भूस्वामियों की तरह अधिकार हो, ताकि उन्हें बैंकों से कृषि ऋण आदि मिल सके। भूमि संबंधी सभी दस्तावेजों को पारदर्शी तरीके से ग्राम स्तर पर ही प्रबंधन किया जाए। भूमिहीनों के घर के लिए जमीनों का अधिग्रहण किया जाए। भूदान की समस्त भूमि का पुनर्सर्वेक्षण और भौतिक सत्यापन करके उस पर हुए अतिक्रमण को हटाया जाए। खाली हुई जमीन भूमिहीनों और वंचित वर्ग में वितरित की जाए।
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सत्याग्रहियों व केंद्र में समझौता, परसों आगरा में एलान
-ताज नगरी में 11 अक्तूबर को होगा समझौता पत्र पर हस्ताक्षर
-दो दिनों की लंबी चर्चा के बाद 10 सूत्री समझौते को मिली मंजूरी
भूमिहीन आदिवासी सत्याग्रहियों और सरकार के बीच दो दिनों तक चली वार्ता के बाद मंगलवार को समझौते पर सहमति हो गई। समझौता पत्र के प्रावधानों की घोषणा आगरा में 11 अक्तूबर को होगी। समझौते में सत्याग्रहियों की लगभग सभी मांगों को 10 सूत्रीय समझौते में समेटने की कोशिश की गई है। आगरा में आयोजित भूमिहीन आदिवासियों की प्रस्तावित जनसभा में उन्हीं के समक्ष समझौता पत्र पर हस्ताक्षर भी किए जाएंगे।
ग्वालियर वार्ता के टूटने के बाद समझौते का दूसरा चरण राजधानी दिल्ली में तब शुरू हुआ, जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खुद पहल की। उन्होंने केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश को इसका दायित्व सौंपा और समझौता कराने तक वार्ता जारी रखने को कहा। इसका जिक्र सोमवार को पत्रकारों से हुई बातचीत में भी जयराम ने किया। दरअसल चार साल पहले इन्हीं आंदोलनकारियों की मांग को स्वीकार करते हुए प्रधानमंत्री सिंह ने राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद का गठन किया था, लेकिन आज तक इसकी एक भी बैठक नहीं हो सकी है। इससे आंदोलनकारी ज्यादा खफा हैं।
सूत्रों के अनुसार समझौता पत्र में 10 मांगों को मंजूरी दी गई है। इसमें भूमि सुधार परिषद का पुनर्गठन, भूमिहीन आदिवासियों को आवास के लिए जमीन, भूमि संबंधी विवादों के निपटारे के लिए फास्ट ट्रैक ट्रिब्यूनल का गठन, मछुआरों, खेतिहर मजदूरों, नमक खेती मजदूर, कुष्ठ रोगी, बीड़ी मजदूर समेत अन्य अदृश्य समूहों को भूमि उपलब्ध कराने का प्रावधान शामिल किया गया है।
आदिवासी व अनुसूचित जाति के लोगों की जमीन पर दबंगों का कब्जा हटाना, विनोबा भावे के भूदान में मिली जमीन का वितरण के लिए राष्ट्रीय स्तर की कमेटी का गठन करने का प्रावधान शामिल किया गया है। राज्यों से जुड़ी मांगों के लिए राज्यों को विस्तार से पत्र लिखा जाएगा। जरूरत पडऩे पर राजस्व मंत्रियों का सम्मेलन और मुख्यमंत्रियों के साथ बैठकों का सिलसिला शुरू किया जाएगा। इन मांगों पर चर्चा के बाद दोनों पक्षों की ओर सहमति बन गई है।
सूत्रों ने बताया कि समझौते के मसौदे पर तो सोमवार को ही सहमति बन गई थी, लेकिन एकता परिषद के वार्ताकार परिषद के नेता राजगोपाल की हामी चाहते थे। दूसरी तरफ सरकार के वार्ताकार जयराम भी प्रधानमंत्री कार्यालय से मसौदे पर मुहर लगवाने के लिए एक दिन का और समय लिया। दोनों पक्षों के वार्ताकार मंगलवार को मिले और आधे घंटे में ही मसौदे को हरी झंडी दे दी गई।
जयराम रमेश ने बताया 'उनके और सत्याग्रहियों के बीच लगभग सभी मुद्दों पर सहमति बन गई है। 11 अक्तूबर को आगरा में सत्याग्रहियों की सभा में सरकार समझौते के प्रावधानों का एलान करेगी।Ó उन्होंने उम्मीद जताई कि भूमिहीन आदिवासी प्रेम की ताज नगरी आगरा से ही अपने अपने घरों को लौट जाएंगे। ऐतिहासिक नगरी में जरूरत पड़ी तो दोनों पक्षों की ओर से समझौते पर हस्ताक्षर भी किए जाएंगे। सत्याग्रहियों की ओर से एससी बहर ने समझौैता हो जाने की पुष्टि कर दी है।
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सरकार नहीं रोक सकी लाख भूमिहीनों का कारवां
विशेष
ग्वालियर।
सरकार की साख गिरने के बाद अब भूमिहीन खेतिहर मजदूर भी उस पर भरोसा करने को तैयार नहीं हैं। ऐसे ही एक लाख पद यात्रियों को समझाने गए दो केंद्रीय मंत्रियों को ग्वालियर से आज खाली हाथ लौटना पड़ा। वजह सिर्फ यह थी कि चार साल पहले जब इसी दिल्ली में इन्हीं एक लाख लोगों ने जमघट लगाया था, तब प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद का गठन कर दिया गया था। चार साल बीत गए लेकिन परिषद की एक मीटिंग तक नहीं हुई। इसीलिए खफा भूमिहीन आदिवासियों ने फिर दिल्ली की ओर कूच कर दिया है।
सरकार ने आज भी उनके साथ छलावा किया। ग्वालियर जाने वाली टीम में पहले मुद्दे से जुड़े चार बड़े मंत्रियों को जाना था, जिसमें नोडल मंत्री किशोरचंद्र देव भी शामिल थे। लेकिन वो नहीं भेजे गए। सिंधिया को तो ग्वालियर का होने के नाते भेजा गया। झोपड़ी बनाने भर को जमीन की मांग कर रहे भूमिहीन खेतिहर मजदूर और आदिवासियों का हुजूम केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक से शुरू होकर देश के 25 राज्यों के कुल 352 जिलों की पांच हजार किमी की पदयात्रा कर चुका है।
ग्वालियर पहुंचे इन पद यात्रियों का फाइनल पड़ाव राजधानी दिल्ली है, जहां पहुंचने में 16 दिन और लगेंगे। इसका एलान उन्होंने बहुत पहले ही कर दिया था। लेकिन केंद्र सरकार की आंख तब खुली, जब इन गरीबों व मजलूमों का हुजूम दिल्ली के नजदीक आ धमका।
पिछले साल डेढ़ साल से सिविल सोसाइटी के आंदोलनों से आजिज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एकता परिषद के नेतृत्व में दिल्ली की ओर बढ़ रही इस मुसीबत को रोकने का जिम्मा संबंधित विभागों के मंत्रियों को सौंपा। भूमि संसाधन, ग्र्रामीण विकास, आदिवासी मामले, सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता के मंत्रियों को इनसे वार्ता करने को कहा गया। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के नेतृत्व में बुधवार को किशोरचंद्र देव, मुकुल वासनिक और ज्योतिरादित्य सिंधिया को ग्वालियर जाना था। लेकिन ऐन वक्त पर सिर्फ जयराम रमेश और सिंधिया को चार्टर्ड हवाई जहाज से ग्वालियर भेजा गया।
ग्वालियर के मेला मैदान में अनुशासित तरीके से बैठे लाखों भूमिहीन व आदिवासियों के समक्ष दो घंटे से अधिक चली भाषणबाजी के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकला। दरअसल जिस परिपत्र पर हस्ताक्षर होना था, उसे पेश नहीं किया जा सका। दोनों ओर से एक दूसरे के लिए विस्तार से लिखे पत्र जारी किए गए। सरकार की ओर से जहां 11 अक्तूबर को दिल्ली में एक और बड़ी बैठक का प्रस्ताव रखा गया, वहीं आंदोलनकारियों ने इसे स्वीकार करते हुए तब तक पदयात्रा जारी रखने का एलान कर दिया। पदयात्रियों को पटाने में केंद्रीय मंत्रियों का राजनीतिक व रणनीतिक कौशल काम नहीं आया।
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दूध से जला, मट्ठा भी.....
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कहते हैं, दूध से जला म_ा भी फूंक फूंक कर पीता है। कुछ ऐसा ही केंद्र सरकार के साथ भी हुआ। ग्वालियर तक चढ़ आए आंदोलनकारियों को लौटाने के लिए जाने वाले केंद्रीय मंत्रियों का दल ऐन मौके पर छोटा कर दिया गया। पद यात्रियों ने इसे सरकार की पेशबंदी मानते हुए सही अर्थों में नहीं लिया और वहां गए केंद्रीय मंत्रियों को बिना समझौते के लौटा दिया। आंदोलनकारियों को सरकार की मंशा पर संदेह पैदा हो गया। उनका कहना था कि सरकार जानबूझकर लंबा समय खींच रही है।
सूत्रों की मानें तो सरकार ने फजीहत के डर से मंत्रियों का बड़ा समूह वहां नहीं भेजा। क्योंकि बाबा रामदेव को मनाने के लिए तीन बड़े केंद्रीय मंत्री एयरपोर्ट पहुंचे थे, जिसे लेकर बड़ी थू थू हुई थी।
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Saturday, September 22, 2012
नामी बनिया सरनामी चोर
खुदरा क्षेत्र में कारोबार करने वाली विदेशी कंपनियों को दिया रास्ता
साल डेढ़ साल में आ धमकेंगी विदेशी दुकानें
हम इतने भी भोले नहीं कि आंखों के सामने पड़ी मक्खी को निगल जाएं। लेकिन सरकार है कि हमे बुद्धू ही समझती है। विदेशी कंपनियो को देश में खुदरा कारोबार करने की छूट देकर सरकार बड़ी हेकड़ी से किसानों और उपभोक्ताओं के भले गिना रही है। इतना ही रोजी रोजगार आने के सब्जबाग दिखा रही है। हमने जिसे सरकार बनाया उसने तो सारे फैसले कर लिए हैं। विदेशी दुकानों के आने का रास्ता खुल भी गया है। दुनिया की भारी भरकम कंपनी वालमार्ट ने अगले साल डेढ़ साल में यहां आ धमकने का ऐलान भी कर दिया है। भगवान करें वैसा ही हो सरकार जैसा कह रही है। लेकिन ऐसा भला होगा कैसे? देसी बड़ी कंपनियों की दुकानें तो पहले से ही देश के कई शहरों में खुल चुकी हैं। इनका अनुभव बहुत अच्छा तो नहीं रहा। यहां उधारी तो चवन्नी की नहीं मिल सकती।
शुरु में दुकानें खुलीं तो क्या साफ सफाई, वातानुकूलित माहौल, पहिये वाली ट्राली पकड़कर घूमतें मेम साहबें और कीमतें बड़ी वाजिब। अदरक, लहसुन, नीबू, धनिया, हरी मिर्च और पुदीने वाला चटनी पैक सिर्फ पांच रुपये में। कटा कटाया सलाद और न जाने कितने तरह की सब्जियां बड़े सस्ते में ले जाइए, गरम करिए और पेट पूजा। यहां मोजा-जूता से लेकर टाई और सूट मिल रहा है तो दुकान के दूसरे छोर पर दूध और आलू भी बिक रहा है। इलेक्ट्रानिक्स के सामान व गारमेंट के बड़े ब्रांड भी उपलब्ध हैं।
बस फिर क्या था, इनकी ख्याति नामी बनिया और सरनानी चोर की तरह फैलने लगी। भीड़ कुछ ऐसे उमड़नी शुरु हुई कि सामान खरीदने के बाद बिल बनवाने की होड़ लगने लगी। लेकिन यह सब कितने दिन चला। साल डेढ़ साल में ही लोगों का मोह भंग होने लगा। बदबूदार सब्जी मंडी की ओर ही लोगों ने रुख करना शुरु कर दिया। यह तो रही उपभोक्ताओं के हित अथवा अहित की बात। विदेशी खुदरा कंपनियों को लाने के हिमायती नेताओं से भला कोई क्यों पूछता कि आखिर उनका विरोध उनके ही देश में क्यों हो रहा है। इसके चलते उनके नए स्टोर अब नहीं खुल पा रहे है।
इसका दूसरा पक्ष किसानों के हितों का है। दावा है कि विदेशी कंपनी आएगी तो किसानों से ही तो उनके उत्पाद खरीदेगी, बिचौलिए नहीं होंगे तो माल सस्ता मिलेगा। अरे भाई। अब घरेलू कंपनियों के कामकाज पर नजर डालिए। शुरु में इन कंपनियों के ट्रक गांवों की ओर रुख किए। लेकिन थोक में खरीदने के चक्कर में औने-पौने भाव देने पर उतर आई। क्यों कि इन कंपनियों ने जिन्हें खेतों से सब्जियां खरीदने का दायित्व सौंपा था, वे खुद बिचौलिए की भूमिका में आ गए हैं। यानी किसानों को तो वही भाव मिल रहा है जिस भाव पर उसका माल व्यापारी खेतों से सीधे खरीदते हैं। किसान व उपभोक्ता दोनों इससे रोजाना रूबरू हो रहे हैं, इसके बावजूद सरकार को भला यह क्यों नहीं दिख रहा है। तभी तो मक्खी निकलने का दबाव बनाया जा रहा है।
Wednesday, June 13, 2012
'त्रिशंकु कस्बों के बुनियादी विकास के लिए अब नई योजना
न गांव रहे और न कस्बे बन पाए तो उन्हें क्या कहें। हमे तो सूझ नहीं रहा,लेकिन सरकार ने उन्हें त्रिशंकु की संज्ञा से नवाजा है। क्यों कि उन्हें न तो ग्रामीण विकास मंत्रालय से मदद मिलती है और न ही शहरी विकास से।
उनका विकास कैसे हो? सरकार ने अब उन्हें 'त्रिशंकु कस्बों के रूप में चिन्हित किया है। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 'पुरा को संशोधित कर इन त्रिशंकु कस्बों के विकास की योजना तैयार की है। निजी-सरकारी भागीदारी (पीपीपी) के आधार पर इन कस्बों का विकास किया जाएगा। सरकार ने इस मद में 1500 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है।
आबादी के हिसाब से पिछले एक दशक में देश में ऐसे त्रिशंकु कस्बों की संख्या बढ़कर तीन गुना हो गई है। इस श्रेणी में ऐसे 'गांवों को रखा गया है, जिनकी आबादी पांच हजार से अधिक है। ऐसे कस्बों जिनके 75 फीसदी पुरुष गैर कृषि रोजगारों में हों और आबादी का घनत्व प्रति किलोमीटर 400 अथवा इससे अधिक हो उन्हें न तो शहरी विकास मंत्रालय से मदद मिल पाती है और न ही ग्रामीण विकास मंत्रालय से।
लिहाजा प्रॉविजन आफ अर्बन एमिनीटीज इन रूरल एरियाज (पुरा) वाली योजना में सरकार ने भारी संशोधन कर दिया गया है। अब इसका लाभ उन गांवों को मिलेगा, जिनका शहरीकरण तो हो गया है, लेकिन जो शहर की श्रेणी में नहीं आ पाए हैं। यहां सरकारी निजी भागीदारी (पीपीपी) के आधार पर योजनाएं संचालित होंगी। सरकार ऐसी प्रत्येक परियोजना पर 40 रुपये का अनुदान देगी बाकी खर्च निजी क्षेत्र को करना होगा।
कस्बे में सड़क, पेयजल, सफाई, स्ट्रीट लाइट और सीवर लाइन बिछाई जाएगी। निजी क्षेत्र अपने निवेश की वसूली शुल्क लगाकर अगले 10 सालों में कर सकेगा। जयराम रमेश ने बताया कि राज्य सरकार की देखरेख में ग्र्राम पंचायत और निजी कंपनी के बीच सभी शर्तों पर समझौता होगा, जिसमें कस्बे का विकास और शुल्क के प्रावधान का जिक्र होगा।
वर्ष 2001 में देश में ऐसे त्रिशंकु कस्बों की संख्या 1362 थी, जो 2011 में बढ़कर 3894 हो गई है। उत्तर प्रदेश में ऐसे कस्बों की संख्या 66 से बढ़कर 267 हो गई है। पश्चिम बंगाल और केरल में इनकी संख्या में सबसे ज्यादा वृद्धि हुई है। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा 'ऐसे त्रिशंकु कस्बों में बुनियादी ढांचे की हालत बहुत खराब है। इसी समस्या के समाधान के लिए मंत्रालय ने गांवों में शहरों जैसी सुविधा (पुरा) योजना को संशोधित कर दिया। अब यह योजना इन्हीं त्रिशंकु कस्बों के लिए होगी।Ó हैरानी जताते हुए रमेश ने कहा 'इन कस्बों के विकास के लिए इनका कोई माई बाप नहीं है।Ó चालू वित्त वर्ष में केरल के ऐसे दो कस्बों के विकास का कार्य निजी क्षेत्र के सहयोग से शुरू करा दिया गया है।
घूरों के दिन बहुरेंगे, गांवों को मिलेंगे लाखों
कहते हैं कि कुछ सालों में घूरों के भी दिन बहुरते हैं तो सचमुच में बहुरने वाले हैं। सरकार ने तो यही फैसला किया है। घूरे वह भी गांव के। सीसीईए ने इसकी घोषणा कर दी है। ग्रामीण क्षेत्रों में कूड़ा-कचरा प्रबंधन व निपटान के लिए सरकार ने पहली बार नायाब पहल करते हुए देश के हर गांव को एकमुश्त वित्तीय मदद देने का फैसला किया है। आबादी के हिसाब से हर गांव को न्यूनतम 7 लाख और अधिकतम 20 लाख रुपये की वित्तीय मदद मुहैया कराई जाएगी।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीईए) की बैठक में संपूर्ण स्वच्छता अभियान का नाम बदलकर निर्मल भारत अभियान कर दिया गया। साथ ही ग्र्रामीण क्षेत्रों में कचरा प्रबंधन के लिए गांवों को मदद देने के प्रस्ताव पर फैसला लिया गया। बैठक में ग्र्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक शौचालय बनाने पर दी जाने वाली वित्तीय मदद को दोगुना से भी अधिक बढ़ाकर 10 हजार रुपये कर दिया गया है।
खुले में शौच करने की प्रवृत्ति खत्म करने के लिए ग्र्रामीण शौचालयों के लिए केंद्र की ओर से 2100 रुपये मिलते थे, उसे बढ़ाकर 3200 रुपये कर दिया गया है। जबकि राज्य सरकार की हिस्सेदारी 1000 से बढ़ाकर 1400 रुपये और लाभार्थी की 300 से बढ़ाकर 900 रुपये की गई है। ग्र्रामीण विकास मंत्रालय के उस प्रस्ताव को भी मंजूरी मिल गई है, जिसमें मनरेगा की हिस्सेदारी 1200 से बढ़ाकर 4500 रुपये की गई है।
सीसीईए की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वच्छता अभियान को उन 200 जिलों में प्राथमिकता के तौर पर चलाने की बात कही, जिनमें कुपोषण की समस्या सबसे अधिक है। निर्मल भारत अभियान का लाभ सिर्फ बीपीएल परिवारों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इसका लाभ सभी परिवारों को दिया जा सकेगा। गरीब परिवारों को प्राथमिकता जरूर दी जाएगी। सीसीईए में यह भी फैसला लिया गया कि इंदिरा आवास योजना के मकानों में शौचालय अनिवार्य रूप से बनाए जाएंगे। योजना में घर बनाने की लागत को भी बढ़ाने का प्रस्ताव है।
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कहां कितने निर्मल गांव
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-उप्र के 52 हजार गांवों में से केवल 1080 गांव निर्मल
-बिहार के कुल 8474 गांवों में से 217 गांव निर्मल
-झारखंड के 4464 गांव में से 225 निर्मल
-हरियाणा में 6500 में से 1600 गांव निर्मल
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Friday, June 1, 2012
मैं उस जमाने का हूं.....हां जी
हैरानी इसी बात की है कि मैं उस जमाने का हूँ, जब दहेज में हाथ घड़ी, रेडियो और साइकिल मिल जाने पर लोग बहुत खुश होते थे। तब बहुएं जलाई नहीं जाती थीं। बच्चे स्कूलों के नतीजे आने पर आत्महत्या नहीं करते थे। इसकी जगह स्कूल में मास्टर जी और घर में पिताजी, धुन दिया करते थे। बच्चे चौदह-पन्द्रह साल तक बच्चे ही रहा करते थे तब मानवाधिकार अजूबी चिरई होती थी। कम लोग ही जानते थे। मैं उस जमाने का हूँ जब कुँए का पानी गर्मियों में ठंडा और सर्दियों में गरम होता था। घरों में फ्रिज नहीं मटके और 'दुधहांड़ी' होती थी दही तब सफेद नहीं हल्का ललौक्षा लिए होता था। सर्दियों में कोल्हू गड़ते ही ताज़े गुड़ की महक से पूरा गांव गमक उठता था। गरीबों के पेट भरने की मुश्किलें खत्म हो जाती थीं। माई उसी ऊख के रस में चावल डालकर बखीर बना लेती थी। आम की बगिया तो थी पर 'माज़ा' नहीं था। 'राब' का शरबत तो था पर कोल्डड्रिंक्स नहीं थे। पैसे बहुत कम थे पर जिंदगी बहुत मीठी। सचमुच मैं उस जमाने का हूँ जब गर्मियां आज जैसी ही होती थीं पर एक अकेला 'बेना' उसे हराने के लिए काफी होता था। दुपहरिया में दरवाजे की सिकड़ी चढ़ा दी जाती थी। बच्चों को घरों में नजरबंद करने में ही माई अपनी सफलता समझती थी। माई थी कि बगल वाली काकी के साथ बिछौने पर साड़ी चढ़ाई जाती थी। सींक से बने 'बेने' और उन पर झालरें लगाने की कला कमाल की थी। तब सरकार की मोहताज नहीं थी जिंदगी बल्कि जीवन में रची बसी थी खुशी। मैं उस ज़माने का हूँ जब गांव में खलिहान हुआ करते थे। मशीनें कम थीं। ज्यादा लोग बैल या भैसो कि जोड़ी रखते थे। महीनों दंवाई यानी मड़ाई चलती थी तब कहीं फसल घर आ पाती थी। पइर पर सोने का सुख मेट्रेस पर सोने वाला क्या जाने। अचानक आई आंधी से भूसा और अनाज बचाते हुए ..हम न जाने कब जिंदगी की आँधियों से लड़ना सीख गये पता ही नही चला। मैं उस जमाने का हूँ जब किसान अपनी जरूरत की हर चीज़ जैसे धान, गेंहू, गन्ना, सरसों, ज्वार, चना, आलू , धनिया लहसुन, प्याज, अरहर, तिल्ली और सांवा सब कुछ पैदा कर लेता था। धरती आज भी वही है पर आज नकदी (फसलों) का ज़माना है। बुरा हो इस आर्थिक उदारीकरण का जिस पैसे के पीछे इतना जोर लगा के दौड़े अब न तो उस पैसे की कोई कीमत है और न इंसान की।
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