महंगाई पर काबू पाने के लिए सरकार अब किसानों पर बोझ डालने की तैयारी में है। यानी महंगाई घटाने की कीमत अब किसानों को सहनी पड़ सकती है। खेती की लागत बढ़ने के बावजूद सरकार खरीफ फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने नहीं जा रही है। धान का समर्थन मूल्य किसानों को पिछले साल के बराबर ही मिलेगा। यानी समर्थन मूल्य में कोई वृद्धि नहीं की जाने वाली है। जबकि दलहन के मूल्य में की जाने वाली प्रस्तावित वृद्धि नाकाफी है। इसका सीधा असर खरीफ की खेती पर पड़ सकता है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले दिनों दिसंबर तक मुद्रास्फीति की दर को पांच-छह फीसदी तक लाने का भरोसा दिलाया था। इसी के मद्देनजर एमएसपी में वृद्धि की उम्मीद नहीं है। समर्थन मूल्य तय करने के लिए गठित कृषि लागत व मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने अपनी सिफारिशें सरकार को सौंप दी हैं। इस पर संबंधित मंत्रालयों ने विचार कर लिया है। ज्यादातर राज्यों ने भी अपनी राय रख दी है। अब खरीफ फसलों के समर्थन मूल्य के इस मसौदे पर केंद्रीय मंत्रिमंडल की मुहर लगनी है।
आयोग की सिफारिशों में धान के 'ए' ग्रेड का मूल्य 1030 रुपये और सामान्य धान 1000 रुपये प्रति क्विंटल है, जो पिछले खरीफ सीजन में किसानों के प्राप्त मूल्य के बराबर ही है। मक्के का समर्थन मूल्य 880 रुपये तय किया गया है, जबकि पिछले खरीफ सीजन में यह 840 रुपये था। सबसे अधिक हैरानी दलहन फसलों के समर्थन मूल्य को देखकर हो सकती है, जिसमें 400 से 500 रुपये प्रति क्ंिवटल की वृद्धि तो की गई है। लेकिन एमएसपी पहले से ही इतना कम है कि इस वृद्धि का कोई मतलब नहीं रह जाता है।
उदाहरण के लिए पिछले साल अरहर दाल घरेलू बाजार में एक सौ रुपये प्रति किलो बिकी, तब अरहर का एमएसपी एक तिहाई से भी कम, यानी 2300 रुपये प्रति क्ंिवटल था। चालू सीजन में अरहर दाल 80 रुपये किलो बिक रही है। सीएसीपी ने इसका समर्थन मूल्य 2800 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। मूंग का समर्थन मूल्य 2760 रुपये से बढ़ाकर 3170 रुपये और उड़द का 2520 रुपये से 2900 रुपये किया गया है। लेकिन इन बढ़े मूल्यों का कोई औचित्य नहीं है। खुले बाजार में मूंग व उड़द की दालें 70 रुपये प्रति किलो से नीचे नहीं है।
खाद्य तेलों की आयात निर्भरता लगातार बढ़ने के बावजूद खरीफ सीजन की प्रमुख तिलहन फसलों का एमएसपी मामूली रूप से बढ़ाया गया है। मूंगफली 2100 रुपये से बढ़ाकर 2300 रुपये और तिल के मूल्य 2850 रुपये में सिर्फ 50 रुपये की वृद्धि की गई है, जिसके लिए 2900 रुपये प्रति क्विंटल का मूल्य सुझाया गया है। कपास का मूल्य 3000 रुपये प्रति गांठ ज्यों का त्यों ही रखा गया है।
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Friday, May 28, 2010
Tuesday, May 25, 2010
फर्जी बैनामों से मिल जायेगी निजात
घट जायेगा बटाई की जमीन का विवाद, महफूज रहेगी आपकी जमीन
'लैंड टाइटलिंग बिल-2010' का मसौदा तैयार।
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सुरेंद्र प्रसाद सिंह।
फर्जी बैनामा करना अथवा कराना फिर आसान नहीं होगा। आपकी जमीन पूरी तरह महफूज रहेगी। इस तरह की धोखाधड़ी को रोकने के लिए केंद्र सरकार एक ऐसा कानून बना रही है, जिसमें जमीन के असल मालिक की गारंटी सरकार को लेना होगा। साथ ही बटाई पर दी जाने वाली जमीन के मालिकाना हक को लेकर उठने वाले विवाद भी घटेंगे। भू राजस्व के मुकदमों में कमी आने की भी संभावना है।
केंद्रीय भू संसाधन विभाग की सचिव रीता सिन्हा ने विधेयक के मसौदे के बारे में 'जागरण' से बातचीत में बताया कि विभिन्न राज्यों में भूमि प्रबंधन व राजस्व की भाषा व कानून फिलहाल अलग-अलग है। ज्यादातर राज्यों में भूमि सुधार नहीं हो पाये हैं। जमीनों के बंटवारे में ढेर सारी खामियां है, जिसे प्रस्तावित विधेयक के मार्फत ठीक करने का प्रयास किया जायेगा। इससे देशभर के भूमि बंदोबस्त कानून में एकरूपता आ जायेगी। राज्यों से इस अहम मसले पर गहन विचार-विमर्श किया जा रहा है।
'लैंड टाइटलिंग बिल-2010' का मसौदा आम लोगों की प्रतिक्रिया के लिए जारी कर दिया गया है। इसे देश की 17 भाषाओं में जारी किया गया है। इसे अमली जामा पहनाने से पहले जमीन के दस्तावेजों के रखरखाव व उनमें संशोधन आदि की प्राथमिक जिम्मेदारी निभाने वाले दो लाख पटवारियों को प्रशिक्षण दिया जाएगा। पूरी प्रणाली को पारदर्शी बनाने के लिए आंकड़े 'आन लाइन' किये जाएंगे। बैनामा करने वाले राजस्व, सर्वेक्षण और पंजीकरण विभाग फिलहाल अलग-अलग हैं, जिन्हें एक संयुक्त प्रणाली के तहत लाने के लिए लैंड टाइटलिंग अथॉरिटी का गठन किया जाएगा। सभी राज्यों से मसौदे में जरूरी संशोधन के लिए सुझाव मांगे गये हैं।
फिलहाल नक्शा और रजिस्ट्री आफिस के दस्तावेज में रकबा अलग-अलग दिखने से निचली अदालतों में विवादों की संख्या बढ़ी है। नये प्रावधान में नक्शों का डिजिटल बनाकर उसे सीधे दस्तावेजों से जोड़ दिया जाएगा। कुछ राज्यों में 12 साल तक बटाई पर दी गई जमीन का मालिकाना हक बदल जाता है, जो नई व्यवस्था से खत्म हो जायेगा। इससे भूमि के मालिक अपनी जमीन को बेखटका कांट्रैक्ट खेती के लिए लंबे समय के लिए दे सकते हैं।
यह कानून सबसे पहले देश के केंद्र शासित क्षेत्रों में लागू होगा। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्यों ने इसमें खास रुचि दिखाई है, जहां भूमि सुधार लगभग पूरा हो चुका है। लेकिन उन राज्यों में इसे लागू करने में काफी दिक्कतें पेश आयेंगी, जहां न भूमि सुधार नहीं हुआ है और न ही भूमि के बंदोबस्ती दस्तावेजों का कंप्यूटरीकरण किया जा सका है।
'लैंड टाइटलिंग बिल-2010' का मसौदा तैयार।
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सुरेंद्र प्रसाद सिंह।
फर्जी बैनामा करना अथवा कराना फिर आसान नहीं होगा। आपकी जमीन पूरी तरह महफूज रहेगी। इस तरह की धोखाधड़ी को रोकने के लिए केंद्र सरकार एक ऐसा कानून बना रही है, जिसमें जमीन के असल मालिक की गारंटी सरकार को लेना होगा। साथ ही बटाई पर दी जाने वाली जमीन के मालिकाना हक को लेकर उठने वाले विवाद भी घटेंगे। भू राजस्व के मुकदमों में कमी आने की भी संभावना है।
केंद्रीय भू संसाधन विभाग की सचिव रीता सिन्हा ने विधेयक के मसौदे के बारे में 'जागरण' से बातचीत में बताया कि विभिन्न राज्यों में भूमि प्रबंधन व राजस्व की भाषा व कानून फिलहाल अलग-अलग है। ज्यादातर राज्यों में भूमि सुधार नहीं हो पाये हैं। जमीनों के बंटवारे में ढेर सारी खामियां है, जिसे प्रस्तावित विधेयक के मार्फत ठीक करने का प्रयास किया जायेगा। इससे देशभर के भूमि बंदोबस्त कानून में एकरूपता आ जायेगी। राज्यों से इस अहम मसले पर गहन विचार-विमर्श किया जा रहा है।
'लैंड टाइटलिंग बिल-2010' का मसौदा आम लोगों की प्रतिक्रिया के लिए जारी कर दिया गया है। इसे देश की 17 भाषाओं में जारी किया गया है। इसे अमली जामा पहनाने से पहले जमीन के दस्तावेजों के रखरखाव व उनमें संशोधन आदि की प्राथमिक जिम्मेदारी निभाने वाले दो लाख पटवारियों को प्रशिक्षण दिया जाएगा। पूरी प्रणाली को पारदर्शी बनाने के लिए आंकड़े 'आन लाइन' किये जाएंगे। बैनामा करने वाले राजस्व, सर्वेक्षण और पंजीकरण विभाग फिलहाल अलग-अलग हैं, जिन्हें एक संयुक्त प्रणाली के तहत लाने के लिए लैंड टाइटलिंग अथॉरिटी का गठन किया जाएगा। सभी राज्यों से मसौदे में जरूरी संशोधन के लिए सुझाव मांगे गये हैं।
फिलहाल नक्शा और रजिस्ट्री आफिस के दस्तावेज में रकबा अलग-अलग दिखने से निचली अदालतों में विवादों की संख्या बढ़ी है। नये प्रावधान में नक्शों का डिजिटल बनाकर उसे सीधे दस्तावेजों से जोड़ दिया जाएगा। कुछ राज्यों में 12 साल तक बटाई पर दी गई जमीन का मालिकाना हक बदल जाता है, जो नई व्यवस्था से खत्म हो जायेगा। इससे भूमि के मालिक अपनी जमीन को बेखटका कांट्रैक्ट खेती के लिए लंबे समय के लिए दे सकते हैं।
यह कानून सबसे पहले देश के केंद्र शासित क्षेत्रों में लागू होगा। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्यों ने इसमें खास रुचि दिखाई है, जहां भूमि सुधार लगभग पूरा हो चुका है। लेकिन उन राज्यों में इसे लागू करने में काफी दिक्कतें पेश आयेंगी, जहां न भूमि सुधार नहीं हुआ है और न ही भूमि के बंदोबस्ती दस्तावेजों का कंप्यूटरीकरण किया जा सका है।
Tuesday, April 13, 2010
जीएम भांटे का नहीं ट्रांसजेनिक चिकेन का लुत्फ उठाइये
जनाब! जीएम बैगन को छोडि़ए। आइए अब ट्रांसजेनिक चिकन का लुत्फ उठाइए। चिकन के साथ मछली का भी स्वाद लीजिए। जेलीफिश के जीन वाली इस मुर्गी की खासियत यह भी होगी कि रात के अंधेरे में इसके पंख चमकेंगे। देश में पहली बार वैज्ञानिकों ने विभिन्न जीव जंतुओं के जीन को मुर्गे व मुर्गी में डालकर प्रयोग किया, जिसमें पहली सफलता मछली के जीन वाली देसी मुर्गी को मिली। वैज्ञानिकों का दावा है कि इससे चिकन की उत्पादकता बहुत अधिक बढ़ जाएगी। साथ ही इस ट्रांसजेनिक चिकन में एक नायाब किस्म का प्रोटीन मिलेगा, जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होगा। यह दावा है इसे विकसित करन वाले कृषि वैज्ञानिकों का। उनका दावा तो और भी बहुत हैं,जैसे एड्स व कैंसर जैसे रोगों का मुकाबला करने वाले जीन भी इसमें डाला जा सकता है। हालांकि दुनिया में यह करतब करने वाला भारत चौथा देश होगा।
वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि जीएम चिकन के विकसित कर लेने से मिली सफलता से अब भेड़, बकरी और अन्य पशुओं की ट्रांसजेनिक प्रजाति विकसित करने की उम्मीद बढ़ गई है। साथ ही इससे बर्ड फ्लू की बीमारी को रोकने में सफलता मिलेगी।
हैदराबाद के पोल्ट्री निदेशालय के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर टी. के. भट्टाचार्य के नेतृत्व वाली वैज्ञानिकों की टीम ने कम अवधि में अत्यधिक उत्पादकता मुर्गी विकसित करने में सफलता प्राप्त की है। इस विधि में मछली की एक खास प्रजाति के जीन को मुर्गी में डाल दिया गया। फिलहाल यह सफलता प्रयोगशाला के स्तर पर मिल गई है, जल्दी ही इस प्रौद्योगिकी को व्यावसायिक उत्पादन के लिए जारी कर दिया जाएगा।
जेली फिश के ग्रीन फ्लोरोसेंट प्रोटीन जीन के माध्यम से ही ट्रांसजेनिक चिकन विकसित करने में कामयाबी मिल पाई है। जेलीफिश की चमकार भी मुर्गे की पंख को मिल गई है। इस खास जीन को पहले मुर्गे में डाला गया, जिसे उसके वीर्य का प्रयोग मुर्गियों में किया गया। इसके बाद इन मुर्गियों के 263 अंडों से जो चूजे निकले, उनमें से 16 ट्रांसजेनिक पाए गए। इन रंगीन पंख वाले ट्रांसजेनिक चिकन की नियंत्रित वातावरण में जांच पूरी की गई।
अपनी इस ईजाद से बेहद उत्साहित वैज्ञानिकों की मानें तो ट्रांसजेनिक चिकन से पोल्ट्री क्षेत्र में क्रांति आ जाएगी। इसमें मिलने वाला प्रोटीन मानव व पशु दोनों के लिए फायदेमंद साबित होगा। जल्दी ही इस प्रौद्योगिकी को लोगों के उपयोग के लायक बना दिया जाएगा।
वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि जीएम चिकन के विकसित कर लेने से मिली सफलता से अब भेड़, बकरी और अन्य पशुओं की ट्रांसजेनिक प्रजाति विकसित करने की उम्मीद बढ़ गई है। साथ ही इससे बर्ड फ्लू की बीमारी को रोकने में सफलता मिलेगी।
हैदराबाद के पोल्ट्री निदेशालय के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर टी. के. भट्टाचार्य के नेतृत्व वाली वैज्ञानिकों की टीम ने कम अवधि में अत्यधिक उत्पादकता मुर्गी विकसित करने में सफलता प्राप्त की है। इस विधि में मछली की एक खास प्रजाति के जीन को मुर्गी में डाल दिया गया। फिलहाल यह सफलता प्रयोगशाला के स्तर पर मिल गई है, जल्दी ही इस प्रौद्योगिकी को व्यावसायिक उत्पादन के लिए जारी कर दिया जाएगा।
जेली फिश के ग्रीन फ्लोरोसेंट प्रोटीन जीन के माध्यम से ही ट्रांसजेनिक चिकन विकसित करने में कामयाबी मिल पाई है। जेलीफिश की चमकार भी मुर्गे की पंख को मिल गई है। इस खास जीन को पहले मुर्गे में डाला गया, जिसे उसके वीर्य का प्रयोग मुर्गियों में किया गया। इसके बाद इन मुर्गियों के 263 अंडों से जो चूजे निकले, उनमें से 16 ट्रांसजेनिक पाए गए। इन रंगीन पंख वाले ट्रांसजेनिक चिकन की नियंत्रित वातावरण में जांच पूरी की गई।
अपनी इस ईजाद से बेहद उत्साहित वैज्ञानिकों की मानें तो ट्रांसजेनिक चिकन से पोल्ट्री क्षेत्र में क्रांति आ जाएगी। इसमें मिलने वाला प्रोटीन मानव व पशु दोनों के लिए फायदेमंद साबित होगा। जल्दी ही इस प्रौद्योगिकी को लोगों के उपयोग के लायक बना दिया जाएगा।
Sunday, April 11, 2010
मुट्ठीभर चारे के भरोसे श्वेतक्रांति का सपना
सरकार ने सचमुच में 'ऊंट के मुंह में जीरा' ही डाला है। पशुओं के चारा विकसा के लिए उसने प्रति पशु सिर्फ सवा दो रुपये का प्रावधान किया है। इसी मुट्ठीभर चारे से वह श्वेतक्रांति का स्वप्न देख रही है। जबकि दूध के मूल्य ४५ से ५० रुपये प्रति किलो पहुंच गये है। हालात यही रहे तो नौनिहालों के मुंह का दूध भी छिन जायेगा। बजट में चारा विकास, उन्नतशील बीज, चारागाहों को बचाने और उनकेरखरखाव के लिए 47 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। यह राशि देश के कुल 20 करोड़ से अधिक पशुओं के लिए होगी।
बजट आवंटन को पशुओं की संख्या के हिसाब से देखें तो प्रत्येक पशु के हिस्से सालाना सवा दो रुपये का खर्च आता है। यह आवंटन चारा विकास योजना के लिए किया गया है। डेयरी विकास से जुड़े लोगों का कहना है कि सरकार एक ओर तो इस क्षेत्र में छह प्रतिशत की विकास दर का लक्ष्य तय कर रही है, वहीं दूसरी ओर पशुओं को भरपेट चारे की व्यवस्था तक नहीं की गई है।
पशुओं के लिए घरेलू चारे की पैदावार जरूरत के मुकाबले 40 फीसदी ही होती है। हरा चारा तो दूर, पशुओं का पेट भरने को सूखा चारा भी उपलब्ध नहीं है। चारे की मांग व आपूर्ति में भारी असंतुलन है। एक आंकड़े के मुताबिक दुधारू पशुओं के लिए हरे चारे की सालाना मांग 106 करोड़ टन है, जबकि आपूर्ति केवल 40 करोड़ टन ही है। सूखे चारे की 60 करोड़ टन की मांग के मुकाबले आपूर्ति 45 करोड़ टन हो पाती है। हरा चारे में 63 फीसदी और सूखा चारे में 24 फीसदी की कमी बनी हुई है। मांग आपूर्ति का यह अंतर सालों साल बढ़ रहा है।
महंगाई के इस दौर में पशुओं के लिए मोटे अनाज, चूनी और खल के मूल्य भी बहुत बढ़ गये हैं। दुधारू पशुओं के लिए पौष्टिक तत्वों की भारी कमी है। ऐसी सूरत में दूध की उत्पादकता पर विपरीत असर पड़ रहा है। यही वजह है कि दूध की मांग के मुकाबले आपूर्ति नहीं बढ़ पा रही है, जिससे कीमतें पिछले एक साल में सात रुपये से 10 से १५ रुपये प्रति किलो तक बढ़ी हैं। देश में आधे से अधिक पशु भुखमरी के शिकार हैं।
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बजट आवंटन को पशुओं की संख्या के हिसाब से देखें तो प्रत्येक पशु के हिस्से सालाना सवा दो रुपये का खर्च आता है। यह आवंटन चारा विकास योजना के लिए किया गया है। डेयरी विकास से जुड़े लोगों का कहना है कि सरकार एक ओर तो इस क्षेत्र में छह प्रतिशत की विकास दर का लक्ष्य तय कर रही है, वहीं दूसरी ओर पशुओं को भरपेट चारे की व्यवस्था तक नहीं की गई है।
पशुओं के लिए घरेलू चारे की पैदावार जरूरत के मुकाबले 40 फीसदी ही होती है। हरा चारा तो दूर, पशुओं का पेट भरने को सूखा चारा भी उपलब्ध नहीं है। चारे की मांग व आपूर्ति में भारी असंतुलन है। एक आंकड़े के मुताबिक दुधारू पशुओं के लिए हरे चारे की सालाना मांग 106 करोड़ टन है, जबकि आपूर्ति केवल 40 करोड़ टन ही है। सूखे चारे की 60 करोड़ टन की मांग के मुकाबले आपूर्ति 45 करोड़ टन हो पाती है। हरा चारे में 63 फीसदी और सूखा चारे में 24 फीसदी की कमी बनी हुई है। मांग आपूर्ति का यह अंतर सालों साल बढ़ रहा है।
महंगाई के इस दौर में पशुओं के लिए मोटे अनाज, चूनी और खल के मूल्य भी बहुत बढ़ गये हैं। दुधारू पशुओं के लिए पौष्टिक तत्वों की भारी कमी है। ऐसी सूरत में दूध की उत्पादकता पर विपरीत असर पड़ रहा है। यही वजह है कि दूध की मांग के मुकाबले आपूर्ति नहीं बढ़ पा रही है, जिससे कीमतें पिछले एक साल में सात रुपये से 10 से १५ रुपये प्रति किलो तक बढ़ी हैं। देश में आधे से अधिक पशु भुखमरी के शिकार हैं।
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Tuesday, March 30, 2010
आईपीएल टीम बनाम दूसरी हरितक्रांति
दूसरी हरितक्रांति और दलहन विकास के लिए सिर्फ ७०० करोड़ रुपये का सरकार ने बजट में प्रावधान किया है। जबकि आईपीएल की एक टीम १७०२ करोड़ रुपये में बिकी है। यह गरीबों व भुखमरी के शिकार लोगों का देश है??????? खाद्यान्न की महंगाई ने जहां लोगों की रसोई का बजट खराब कर दिया है और गरीबों के पेट भरने के लाले पड़े हैं। महंगाई पर चर्चा कराने को लेकर पक्ष-विपक्ष की झांय-झांय में कई दिनों तक संसद नहीं चली। आईपीएल की २०-२० क्रिकेट में टीम खरीदने की होड़ देखकर भला कौन कहेगा यह गरीबों का देश है। लोगों को सस्ता खाद्यान्न और किसानों को उसकी उपज का उचित मूल्य दिलाने के वादे वाले सरकारी बजट को आईपीएल की बोली मुंह चिढ़ा रही है। यह मजाक नहीं तो भला क्या है? देश,समाज व सरकार की प्राथमिकता क्या है और क्या होनी चाहिए कौन तय करेगा?
कहते हैं, महंगाई को ठंडा करने के लिए वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने दलहन की उपज बढ़ाने को 300 करोड़ की घोषणा कर संसद में खूब वाहवाही लूटी। लोगों को बताने के लिए सरकार महंगाई से आजिज है। इसीलिए
दलहन व तिलहन की उपज बढ़ाने का फैसला किया है। वित्तमंत्री मुखर्जी ने बजट भाषण में जोर देकर कहा था कि आजादी के 60 सालों बाद भी दाल व तेल के मामले में देश आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। इसके लिए आम बजट में 300 करोड़ रुपये की लागत से 60 हजार गांवों को दलहन व तिलहन गांव के रुप में विकसित किया जायेगा। असिंचित क्षेत्रों से ऐसे गांवों का चयन किया जायेगा। इससे जल संरक्षण, संचयन और मिट्टी की जांच भी की जायेगी। उनकी इस घोषणा पर संसद में सत्ता पक्ष ने जमकर मेजें भी थपथपाई थी।
बजट के इस प्रावधान से प्रत्येक गांव के हिस्से 50 हजार रुपये आयेगा, जिस पर योजना के सफल होने पर संदेह है।
सरकार की इस योजना की "गंभीरता" पर कृषि संगठनों ने भी सवाल खड़ा किया। दरअसल, दलहन खेती की जमीनी मुश्किलों से सरकार वाकिफ नहीं है। दलहन खेती के लिए उन्नतशील बीज, वास्तविक न्यूनतम समर्थन मूल्य और जंगली जानवरों से मुक्ति के उपाय करने होंगे। नील गायों की बढ़ती संख्या ने दलहन खेती को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, खासतौर पर अरहर और उड़द को। प्रोटीन वाली दलहनी फसलों में रोग भी बहुत लगते हैं। देश में उन्नतशील प्रजाति की दलहन फसलो के बीज हैं और न ही इसके लिए जरूरी खादों का उत्पादन होता है। मजेदार यह है कि दलहन खेती के लिए जरूरी सिंगल सुपर फास्फेट और फास्फोरस वाली खादें बनती ही नहीं है। क्यों कि खाद कंपनियों को इसमें फायदा नहीं होता। दलहन फसलों की खेती भी वहीं होती है जहां की जमीन सबसे खराब होती है। किसान जानबूझकर अच्छे खेतों में इसकी बुवाई नहीं करता है। खासतौर पर इसकी खेती असिंचित क्षेत्रों में ज्यादा होती है। भला कहां से बढ़ेगी दलहन की उत्पादकता? उत्पादकता का आलम यह है कि हम बांग्लादेश और श्रीलंका से भी पीछे हैं।
कहते हैं, महंगाई को ठंडा करने के लिए वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने दलहन की उपज बढ़ाने को 300 करोड़ की घोषणा कर संसद में खूब वाहवाही लूटी। लोगों को बताने के लिए सरकार महंगाई से आजिज है। इसीलिए
दलहन व तिलहन की उपज बढ़ाने का फैसला किया है। वित्तमंत्री मुखर्जी ने बजट भाषण में जोर देकर कहा था कि आजादी के 60 सालों बाद भी दाल व तेल के मामले में देश आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। इसके लिए आम बजट में 300 करोड़ रुपये की लागत से 60 हजार गांवों को दलहन व तिलहन गांव के रुप में विकसित किया जायेगा। असिंचित क्षेत्रों से ऐसे गांवों का चयन किया जायेगा। इससे जल संरक्षण, संचयन और मिट्टी की जांच भी की जायेगी। उनकी इस घोषणा पर संसद में सत्ता पक्ष ने जमकर मेजें भी थपथपाई थी।
बजट के इस प्रावधान से प्रत्येक गांव के हिस्से 50 हजार रुपये आयेगा, जिस पर योजना के सफल होने पर संदेह है।
सरकार की इस योजना की "गंभीरता" पर कृषि संगठनों ने भी सवाल खड़ा किया। दरअसल, दलहन खेती की जमीनी मुश्किलों से सरकार वाकिफ नहीं है। दलहन खेती के लिए उन्नतशील बीज, वास्तविक न्यूनतम समर्थन मूल्य और जंगली जानवरों से मुक्ति के उपाय करने होंगे। नील गायों की बढ़ती संख्या ने दलहन खेती को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, खासतौर पर अरहर और उड़द को। प्रोटीन वाली दलहनी फसलों में रोग भी बहुत लगते हैं। देश में उन्नतशील प्रजाति की दलहन फसलो के बीज हैं और न ही इसके लिए जरूरी खादों का उत्पादन होता है। मजेदार यह है कि दलहन खेती के लिए जरूरी सिंगल सुपर फास्फेट और फास्फोरस वाली खादें बनती ही नहीं है। क्यों कि खाद कंपनियों को इसमें फायदा नहीं होता। दलहन फसलों की खेती भी वहीं होती है जहां की जमीन सबसे खराब होती है। किसान जानबूझकर अच्छे खेतों में इसकी बुवाई नहीं करता है। खासतौर पर इसकी खेती असिंचित क्षेत्रों में ज्यादा होती है। भला कहां से बढ़ेगी दलहन की उत्पादकता? उत्पादकता का आलम यह है कि हम बांग्लादेश और श्रीलंका से भी पीछे हैं।
सरकारी जांच के भरोसे पियेंगे पानी तो......
गरमी चरम पर मार्च में ही पहुंचने लगी है। तभी तो कुएं की पेंदी मे बेवाई फटने लगी है। ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल के बाकी स्रोतों के हाल बिगड़ने लगे हैं। दूषित पानी पीने को लोग मजबूर हैं। लेकिन पानी की जांच का बुरा हाल है। जैविक व रासायनिक तत्वों के लगातार घुलने से हालात बिगड़ने लगे हैं। तभी तो.....
अपने गांव व मुहल्ले के कुएं अथवा हैंडपंप से पानी पी रहे हों तो खुद जांच परख कर ही पियें। सरकार के भरोसे नहीं। सरकार साफ पेयजल देना तो दूर वह आपको पेयजल की गुणवत्ता भी नहीं जांच सकती। पूरे देश में जिला मुख्यालय के नीचे ऐसा कोई तंत्र नहीं है जो पानी की गुणवत्ता जांच सके। 14 राज्यों के 50 से अधिक जिला मुख्यालयों पर भी यह सुविधा नहीं है।
केंद्र सरकार ने वर्ष 2012 तक सबके लिए स्वच्छ पेयजल आपूर्ति की घोषणा की थी। लेकिन केंद्र से लेकर राज्य सरकारों की सुस्त चाल से साफ पानी पिलाने का वादा पूरा होता नहीं दिख रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की जांच के लिए सालाना 1.60 करोड़ नमूनों के परीक्षण होने चाहिए लेकिन राजीव गांधी पेयजल मिशन के तहत हुए सर्वेक्षण के ताजे आंकडे़ बताते हैं जिला मुख्यालयों में पानी की जांच के लिए बनी प्रयोगशालाओं में से 70 फीसदी निष्क्रिय हैं। उनमें न आधुनिक उपकरण हैं और न ही पर्याप्त कर्मचारी।
सबसे बुरा हाल उत्तरी क्षेत्र के राज्यों के भूजल का है, जहां पानी में फ्लोराइड, आर्सेनिक, नमक, लोहा और नाइट्रेट जैसे घातक तत्वों की मात्रा बहुत अधिक है। गंगा व यमुना के मैदानी क्षेत्रों के भूजल में उत्तराखंड से लेकर पश्चिम बंगाल तक खतरनाक तत्व मिले हुए हैं, जिसे पीने से यहां के लोगों में कई तरह की बीमारियां हो रही हैं। पंजाब व हरियाणा के भूजल में सोडियम, नाइट्रेट और अन्य घातक तत्वों की मात्रा घुली हुई है। हाल के एक सर्वेक्षण रिपोर्ट में राज्यों के जल निगमों व आापूर्ति विभागों पर टिप्पणी की गई है।
राजीव गांधी पेयजल मिशन आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड के 13 जिलों में से 10 जिला मुख्यालयों पर अभी तक पानी की जांच की सुविधा नहीं है। परीक्षण प्रयोगशाला खोलने में उत्तराखंड, पंजाब, नगालैंड, जम्मू-काश्मीर, चंडीगढ़, बिहार और महाराष्ट्र फिसड्डी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और झारखंड में जिला मुख्यालयों पर प्रयोगशालायें तो हैं लेकिन वहां जांच शायद ही होती है।
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अपने गांव व मुहल्ले के कुएं अथवा हैंडपंप से पानी पी रहे हों तो खुद जांच परख कर ही पियें। सरकार के भरोसे नहीं। सरकार साफ पेयजल देना तो दूर वह आपको पेयजल की गुणवत्ता भी नहीं जांच सकती। पूरे देश में जिला मुख्यालय के नीचे ऐसा कोई तंत्र नहीं है जो पानी की गुणवत्ता जांच सके। 14 राज्यों के 50 से अधिक जिला मुख्यालयों पर भी यह सुविधा नहीं है।
केंद्र सरकार ने वर्ष 2012 तक सबके लिए स्वच्छ पेयजल आपूर्ति की घोषणा की थी। लेकिन केंद्र से लेकर राज्य सरकारों की सुस्त चाल से साफ पानी पिलाने का वादा पूरा होता नहीं दिख रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की जांच के लिए सालाना 1.60 करोड़ नमूनों के परीक्षण होने चाहिए लेकिन राजीव गांधी पेयजल मिशन के तहत हुए सर्वेक्षण के ताजे आंकडे़ बताते हैं जिला मुख्यालयों में पानी की जांच के लिए बनी प्रयोगशालाओं में से 70 फीसदी निष्क्रिय हैं। उनमें न आधुनिक उपकरण हैं और न ही पर्याप्त कर्मचारी।
सबसे बुरा हाल उत्तरी क्षेत्र के राज्यों के भूजल का है, जहां पानी में फ्लोराइड, आर्सेनिक, नमक, लोहा और नाइट्रेट जैसे घातक तत्वों की मात्रा बहुत अधिक है। गंगा व यमुना के मैदानी क्षेत्रों के भूजल में उत्तराखंड से लेकर पश्चिम बंगाल तक खतरनाक तत्व मिले हुए हैं, जिसे पीने से यहां के लोगों में कई तरह की बीमारियां हो रही हैं। पंजाब व हरियाणा के भूजल में सोडियम, नाइट्रेट और अन्य घातक तत्वों की मात्रा घुली हुई है। हाल के एक सर्वेक्षण रिपोर्ट में राज्यों के जल निगमों व आापूर्ति विभागों पर टिप्पणी की गई है।
राजीव गांधी पेयजल मिशन आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड के 13 जिलों में से 10 जिला मुख्यालयों पर अभी तक पानी की जांच की सुविधा नहीं है। परीक्षण प्रयोगशाला खोलने में उत्तराखंड, पंजाब, नगालैंड, जम्मू-काश्मीर, चंडीगढ़, बिहार और महाराष्ट्र फिसड्डी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और झारखंड में जिला मुख्यालयों पर प्रयोगशालायें तो हैं लेकिन वहां जांच शायद ही होती है।
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