Monday, October 18, 2010

दालों के लिए अब नई मशक्कत

दलहन गांव के बाद अब बसेंगे बीज ग्राम

देश के गोदाम गेहूं व चावल से अटे पड़े हैं। लेकिन दाल की कटोरी विलायत की दाल से ही भर रही है। विदेशी मुद्रा खर्च करके सरकार आजिज आ चुकी है। फिर भी बात नहीं बन रही है। थक हार कर अधिक दलहन उगाने की मशक्कत शुरू की गई है। किसानों का रोना है कि उन्हें अच्छे बीज ही नहीं मिल पा रहा है। जबकि सरकारी कृषि वैज्ञानिकों की फेहरिस्त में कई सौ वेरायटी तैयार हैं। यह है सरकारी अंतरविरोध। इसी को दूर करने के लिए सरकार ने नई योजना चालू की है। कुछ नमूने आप भी देख लें।
सरकार की कोशिशें कामयाब हुईं तो आने वाले सालों में रोटी के साथ दाल भी मयस्सर हो सकती है। देश में दाल की कमी और उसकी बढ़ती कीमतों से परेशान सरकार सारे विकल्पों को खंगालने में जुट गयी है। इसके तहत पहले दलहन ग्राम और अब बीज ग्राम बसाने की योजना पर अमल शुरू कर दिया गया है।
दलहन खेती को लाभप्रद बनाने और प्रोत्साहित करने के लिए किसानों को उनके गांव में ही अच्छे व उन्नत फाउंडेशन बीज मुहैया कराने की योजना है। योजना के तहत गांव के किसानों को ही लघु बीज गोदाम स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। दलहन बीजों के भंडारण के लिए उन्हें उचित भाड़ा भी दिया जाएगा। किसानों को दलहन की वैज्ञानिक खेती का मुफ्त प्रशिक्षण देने की भी योजना है। यह योजना राज्यों के कृषि ïिवभाग, कृषि विश्वविद्यालय और राज्य बीज निगम के साझा प्रयास से संचालित की जाएगी।
योजना के तहत दलहन खेती के इच्छुक किसानों को प्रति आधा एकड़ खेत के लिए जरूरी फाउंडेशन बीजों की आपूर्ति 50 फीसदी के सब्सिडी मूल्य पर की जाएगी। पहले चरण में किसानों को प्रशिक्षित करने की योजना है, जिसमें 150 किसानों के समूह को प्रशिक्षण देने के लिए 15 हजार रुपये का प्रावधान किया गया है।
दलहन बीजों के भंडारण के लिए जो किसान अपने स्तर पर गोदाम बनाकर बीजों की भंडारण करेंगे, उन्हें 1500 से 3000 रुपये का भाड़ा दिया जाएगा। यह भाड़ा 10 और 20 क्विंटल दलहन बीजों पर मिलेगा। अनुसूचित व अनुसूचित जनजाति के किसानों को देय भाड़े की राशि सामान्य वर्ग के किसानों के मुकाबले अधिक होगी।
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बेमौत मारे जाते हैं बेजुबान

मौत से बचने वाले पशु अपाहिज और लाचार होकर हो जाते हैं बेकार

देश के करोड़ों बेजुबान हर साल बेमौत मारे जाते हैं, लेकिन उनकी आह और कराह किसी को सुनवाई नहीं पड़ती है। सरकारी आंकड़े को ही सही मान लें तो हर साल कोई २० हजार करोड़ रुपये की लागत का पशुधन संक्रामक बीमारियों की भेंट चढ़ जाता है। इसके लिए सरकार का फंड ऊंट के मुंह में जीरा के बराबर ही है। देश में कोई तीन चार संस्थान ही हैं, जहां गिनती के पशु चिकित्सक तैयार होते हैं, उनमें से भी ज्यादातर विदेश का रुख कर लेते हैं। यहां तो सब कुछ नीम हकीम खतरे जान है। यह रिपोर्ट भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉक्टर एमसी. शर्मा से बातचीत पर आधारित है। हजारों करोड़ रुपये का जो नुकसान आप देख रहे हैं, वह तो सिर्फ पशुओं के संक्रामक रोग है। जाने कितने औ रोग हैं, जिनका जिक्र कभी और किसी रिपोर्ट में देने की कोशिश करुंगा।
हर बार की तरह इस साल (२०१०-११) भी टीके के अभाव में करोड़ों पशु मुंहपका- खुरपका रोग से मरने के लिए अभिशप्त हैं। देश में इसका टीका बनाने वाली कंपनियों की उत्पादन क्षमता मांग के मुकाबले बहुत कम है। यही वजह है कि अब तक केवल 54 जिलों में ही पशुओं का संपूर्ण टीकाकरण हो सका है, बाकी भगवान भरोसे हैं। जबकि यह इतना खतरनाक रोग है कि जो पशु मौत से बच भी जाते हैं, वे अपाहिज व लाचार होकर किसी काम के नहीं रहते।
पिछले साल ही देश पूरे देश में मुंहपका-खुरपका रोग फैला था। लेकिन इन बेजुबानों की मौत पर देश के किसी कोने से कोई आह तक नहीं निकली। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस रोग से सालाना पांच से 20 हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है। देश में केवल 54 ऐसे जिले हैं जहां इस रोग का प्रकोप नहीं हुआ था। इनका संबंध हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से है। यहां शत प्रतिशत पशुओं का टीकाकरण हो चुका है। इन जिलों को छोड़कर देश के बाकी जिलों में पशुओं की जान 'राम भरोसेÓ है। यहां टीके की भारी किल्लत है।
भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉक्टर एमसी. शर्मा का कहना है कि सितंबर से नंवबर के महीने में पशुओं में 'खुरपका व मुंहपकाÓ रोग के फैलने की आशंका सबसे अधिक होती है। पशुओं के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। इसके वायरस अत्यधिक गरमी, अत्यधिक जाड़ा अथवा ज्यादा बारिश के समय तेजी से सक्रिय होते हैं। चारे का अभाव, कीचड़ व भीगने से पशुओं में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता कम हो जाती है, जिससे इसका प्रकोप और तेज हो जाता है। समूचे देश और पूरे एशिया में यह वायरस सक्रिय है। मुंहपका में पशु के मुंह में छाले, जीभ में घाव, अल्सर और मुंह से लगातार लार टपकती रहती है। जबकि खुरपका में पशु के खुर के बीच में घाव हो जाता है और उसमें कीड़े पड़ जाते हैं। कहने को ये दो रोग हैं, मगर इनका वायरस एक है, लिहाजा टीका भी एक है।
इस वायरस के प्रभाव से मादा पशु के साथ सांड की प्रजनन क्षमता खत्म हो जाती है। नर पशु की कार्य क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है। दुधारू पशु दूध देना बंद कर देते हैं। डॉक्टर शर्मा का कहना है कि छोटे पशुओं में 20 फीसदी और बड़े पशुओं में 10 फीसदी तक के प्रभावित होने की आशंका रहती है। गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सूअरों के अलावा जंगली हिरनों में इसका प्रकोप सर्वाधिक होता है।
पशुओं के इस संक्रामक रोग पर काबू पाने के लिए सरकार ने आधा अधूरा प्रयास शुरू किया है। इसके तहत देश के 270 जिलों को टीकाकरण योजना में शामिल किया गया है। लेकिन कब तक वहां टीका पहुंचेगा इसका जवाब मंत्रालय में किसी के पास नहीं है। देश में पशुओं के टीकाकरण के लिए सालाना 60 लाख टीके चाहिए। लेकिन उत्पादन सिर्फ 10 लाख टीकों का ही हो पाता है।
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Tuesday, August 10, 2010

सरकारी उलटबांसियां

खपरैल वाली झोपड़ी सरकार के लिए 'पक्का' मकान
ईंट की दीवारों से बना आशियाना हुआ 'कच्चा' मकान
उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के गरीबों का नुकसान, इंदिरा आवास योजना के लाभ से वंचित


कबीरदास की उलटबांसियां पढ़ते थे तो लगता है बेवजह का मजाक बक रखा है कबीर ने। लेकिन आंखों से देखा तो टकटकी ही लगी रही, वह भी भारत सरकार की। कागज पर जो लिख उठा, उसे पत्थर की लकीर मानिये। पिछले एक दशक पहले मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाकों की झोपडि़यों को सरकारी मुलाजिमों ने पक्का मकान लिख रखा है। इसे ठीक कराने वहां के मुख्यमंत्री ने न जाने कितनी बार दिल्ली का चक्कर लगा लिया। लेकिन ग्रामीण विकास मंत्रालय वालों को कहना है कि इसे तो योजना आयोग ठीक करेगा, उससे पूछा तो जवाब टका सा। भाई यह गलती है तो इस पंचवर्षीय योजना में तो ठीक नहीं होती। इंतजार करिये १२वीं योजना की। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री ने भी चिट्ठियां लिख रखा है। आप भी उनकी कारस्तानी के कुछ नमूने देखिए....
कच्ची दीवार और खपरैल को आप क्या मानेंगे? कच्चा या पक्का। सरकार तो इसे 'पक्का मकान' मानती है जबकि ईंट की दीवारों से बने मकान को 'कच्चा'। उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश को गरीबों को इसी उलटबांसी का नुकसान उठाना पड़ा है। इंदिरा आवास योजना में सबसे वह गरीब बाहर हो गई जिन्होंने अपनी कच्ची मड़ैया को खपरैल से ढकने की 'गलती' की थी।
देश के इन दोनों बड़े सूबों के गरीब इंदिरा आवास योजना के लाभ का लेने में केरल और बिहार जैसे राज्यों से भी पिछड़ गये हैं। जबकि देश के कुछ दूसरे राज्यों के लोग समझदार निकले। उन्होंने अपने ईंट व सीमेंट से बने मकानों की छत पर पुआल व पशु चारा रख कर उसे कच्चे मकान की श्रेणी में दर्ज करा लिया। मकानों के वर्गीकरण में घालमेल का यह नतीजा सालों बाद समझ में आया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के अनुसूचित जनजाति बहुल ब्लॉकों में 99 फीसदी मकान कच्ची मिट्टी अथवा घासफूस के बने हैं लेकिन ज्यादातर झोपडि़यों को खपरैल से ढका होने के कारण पक्का मान लिया गया है। ऐसे मकान वाले गरीबों को इंदिरा आवास योजना का लाभ नहीं मिल पाया है। मध्य प्रदेश ने पिछले साल 1.14 लाख बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया तो उत्तर प्रदेश ने 4.93 लाख इंदिरा आवास बनाने का। इसके मुकाबले बिहार जैसे राज्य में गरीबों के लिए मकानों का लक्ष्य 10.98 लाख रहा।
इंदिरा आवास योजना में उन्हीं गरीबों को मकान बनाने के लिए सरकारी मदद मिलती है, जिनके मकान कच्चे हों अथवा वे बेघर हों। इसका निर्धारण भी जनगणना के आंकड़ों और योजना आयोग सर्वेक्षण से होता है। कच्चे-पक्के मकानों की इस परिभाषा के चलते बड़े राज्यों के गरीब सस्ती आवास योजनाओं का लाभ लेने में लगातार पिछड़ रहे हैं।
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अनाज के कटोरे का पानी सूखा

- पूर्वी उत्तर प्रदेश में पेयजल तक का संकट गहराया
- धान की रोपाई पर सबसे ज्यादा असर
मध्य प्रदेश की सोयाबीन पट्टी हुई सूनी
मानसून की बारिश से पूरा देश भले ही बल्ले-बल्ले कर रहा हो, लेकिन खाद्यान्न उत्पादन में अहम भूमिका निभाने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश के बड़े हिस्से में सूखे जैसी हालत पैदा हो गई है। बिहार में ४३ फीसदी कम बारिश हुई, लेकिन चुनावी साल होने के चलते वहां के राजनीतिक दल अपनी-अपनी रोटी सेंक रहे हैं। मुख्यमंत्री नीतीश प्रधानमंत्री से पांच हजार करोड़ मांग गये है। राजनीतिक हासिये पर पहुंच चुके लोजपा नेता राम विलास पासवान राज्यसभा में केंद्र से बिहार के लिे १५ हजार करोड़ रुपये मांग रहे है। भला हो पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों का, जहां के ज्यादातर जिलों में ६५ फीसदी तक कम बारिश हुई है। धान की रोपाई तो दूर, खेत में पुनपुना रही जोन्हरी (मक्का) भी मुरझाये पड़ी है। लेकिन उनकी राज्य सरकार को उनके बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं है। संसद में सूखे रेवडि़यों के लिए मारा मारी मची है। केंद्र सरकार की कांग्रेस भी चुटकी लेने से बाज नहीं आई। कहा वहां से कोई मांग ही नहीं आ रही है। भला एसे में केंद्र क्या कर सकता है।
मौसम विभाग ने शुक्रवार को साफ कर दिया कि इन इलाकों में बारिश औसत से कम रहेगी। यहां बादल बरसेंगे भी तो सितंबर में। यानी तब तक खरीफ खेती की संभावनाएं खत्म हो चुकी होंगी।
मौसम विभाग ने अगस्त व सितंबर माह में होने वाली बारिश के पूर्वानुमान के बारे में बताया कि बंगाल की खाड़ी में बनने वाला कम दबाव का क्षेत्र पूरी तरह विकसित होकर आगे नहीं बढ़ पा रहा है। इसी वजह से पूरब से आने वाली मानसूनी हवाएं पूर्वी राज्यों में बारिश नहीं ला पा रही हैं। यही वजह है कि इस पूरे इलाके में अभी भी 24 फीसदी कम बारिश हुई है। जबकि बीते सप्ताह झारखंड में 46 फीसदी, बिहार में 29 फीसदी और पूर्वी उत्तर प्रदेश में 32 फीसदी कम बारिश हुई। जबकि पश्चिमी मध्य में 26 फीसदी और पूर्वी मध्य प्रदेश में 18 फीसदी कम बारिश रिकॉर्ड की गई। इससे धान की रोपाई बुरी तरह प्रभावित हुई है। मध्य प्रदेश में सोयाबीन की बुवाई नहीं हो पाई है।
इसके चलते धान की रोपाई में भारी कमी दर्ज की गई है। कृषि मंत्रालय पिछले साल के सूखे में हुई धान की रोपाई रकबा से तुलना कर अपनी पीठ ठोंक रहा है। जबकि वर्ष 2008 में इसी अवधि में हुई रोपाई से इस बार धान की खेती बहुत पीछे चल रही है। धान रोपाई का ताजा आंकड़ा 212 लाख हेक्टेयर है, जबकि वर्ष 2008 में यह आंकड़ा 231 लाख हेक्टेयर पहुंच गया है। मौसम विज्ञानियों ने कहा कि मानसून की विदाई के वक्त सितंबर के आखिर तक भी इस पूरे इलाके में बारिश 10 फीसदी कम रहेगी। बिहार और झारखंड में राजनीतिक दलों ने राज्य को सूखाग्रस्त घोषित करने में बाजी मार ली है। पिछड़ा तो पूर्वी उत्तर प्रदेश।
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Sunday, June 20, 2010

आर्सेनिक से दूषित बोरो धान पर पाबंदी की तैयारी

हड्डियों के कमजोर होने का खतरा, दांत पीले पड़कर गिरने का खतरा और ऐसे ही न जाने कितने और बीमारियों का अंदेशा। चौंकिये नहीं, हम धूम्रपान या नशीले पदार्थो की बात नहीं कर रहे। बल्कि यह मसला उस चावल का है जिसमें आर्सेनिक यानी संखिया के अंश मिले हैं। पूर्वी राज्यों के मुख्य भोजन में शामिल बोरो चावल आर्सेनिक की मौजूदगी के कारण खतरनाक हो चला है। यह जोखिम अन्य चावलों पर लागू नहीं होता है। सरकार ने यह चेतावनी उन राज्यों को दे दी है, जहां बोरो धान की सिंचाई आर्सेनिक युक्त भूजल से होती है।
पश्चिम बंगाल, असम, उड़ीसा, बिहार व पूर्वी क्षेत्रों में बोरो धान की खेती खरीफ की जगह रबी सीजन में होती है। पश्चिम बंगाल के कुल धान उत्पादन में बोरो धान की हिस्सेदारी 40 फीसदी है, जबकि असम में 35 फीसदी और बिहार में 20 फीसदी। असिंचित क्षेत्रों में नलकूप की सिंचाई के भरोसे पैदा होने वाले इस धान में आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर से अधिक पाई गई है। इसका कुप्रभाव भी वहां देखने को मिल रहा है। इस बारे में पश्चिम बंगाल के कृषि विभाग के प्रमुख सचिव संजीव अरोड़ा ने बताया कि बोरो धान की खेती नदियों की घाटियों में होती है।
अरोड़ा का कहना है कि दरअसल खरीफ सीजन में धान की खेती मानसूनी बारिश से तैयार हो जाती है, लेकिन रबी सीजन में बोरो धान के लिए सिंचाई की सख्त जरूरत होती है। देश के पूर्वी राज्यों में गहरे नलकूप नहीं हैं, इसकी जगह कम गहराई से खींचे गये पानी में आर्सेनिक जैसा खतरनाक तत्व घुला हुआ है। उसकी सिंचाई से तैयार धान में भी आर्सेनिक पहुंचता है। उन्होंने बताया कि पश्चिम बंगाल के 75 विकास खंडों में बोरो धान की खेती होती है। सरकार ने इसे चरणबद्ध तरीके से बंद करने की योजना तैयार की है।
असम के ब्रह्मपुत्र नदी के इलाके में बोरो धान की जबर्दस्त खेती होती है, लेकिन नदियों के किनारे लगे नलकूपों से आर्सेनिक युक्त पानी से पूरी फसल दूषित हो गई है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस सिंचाई से आलू की खेती पर आर्सेनिक का कोई असर नहीं है। यह समस्या सिर्फ बोरो धान में ही है। बिहार में गंगा व अन्य नदियों के किनारे के आर्सेनिक भूजल वाले इलाके में बोरो खेती अब खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है। बोरो खेती करने के विकल्पों में गहरे नलकूपों की जरूरत होगी, जिसके लिए किसान तैयार नहीं होते हैं। हालांकि केंद्र सरकार इसके लिए पर्याप्त सब्सिडी देने को राजी है।
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जलवायु परिवर्तन से सिर्फ नुकसान ही नहीं, नफा भी

जलवायु परिवर्तन के नुकसान ही नहीं फायदे भी हैं। कृषि क्षेत्र के जानकारों का दावा है कि भारत में खेती को इसका फायदा मिला है। वैश्विक स्तर पर गेहूं व चावल जैसे अनाज की पैदावार में बढ़ोतरी हुई है तो उसके पीछे जलवायु परिवर्तन का भी हाथ है। इस संबंध में हुए अध्ययन से यह तथ्य भी सामने आया है कि देश के कई हिस्सों का औसत तापमान बढ़ा तो कुछ जगहों पर घटा भी है। आईसीएआर के ताजा अध्ययन में इस तरह का खुलासा किया गया है।
कृषि मंत्रालय के अधीन भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने अपने हाल के एक अध्ययन में यह खुलासा किया है। जलवायु में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ने से गेहूं, चावल और तिलहन की फसलों को जहां बहुत फायदा हुआ है, वहीं मक्का, ज्वार, बाजरा और गन्ने की फसल के लिए यह फायदेमंद नहीं रहा है।
अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक मौसम में भारी उतार चढ़ाव का सीधा असर खेती पर पड़ा है। महाराष्ट्र में प्याज की खेती का खास अध्ययन किया गया, जिसमें 1997 की रबी फसल में तापमान के बहुत बढ़ जाने से प्याज में गांठ नहीं पड़ी। इसी तरह अगले साल 1998 में भारी बारिश हो जाने खेत में खड़ी प्याज की फसल में कई तरह की बीमारियों का प्रकोप हो गया और फसल चौपट हो गई। यह सब जलवायु परिवर्तन का प्रभाव था।
इसी तरह हिमाचल प्रदेश का सेब उत्पादक क्षेत्र बदल गया। कम सर्दी और बर्फ कम पड़ने के चलते फसल का क्षेत्र परिवर्तित होने लगा है। कई ऐसे नये क्षेत्रों लाहौल और स्पीति में सेब की खेती होने लगी, जहां नहीं होती थी। आईसीएआर के अध्ययन में 1901 से 2005 के बीच के जलवायु के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया, जिसमें पाया गया कि तापमान में वृद्धि पिछले पांच दशकों में सर्वाधिक हुई है।
आंकड़ों के विश्लेषण में हैरान करने वाले नतीजे सामने आये। देश के 47 प्रमुख स्थानों पर पिछले 50 सालों के तापमान के आंकड़ों में पाया गया कि केंद्रीय, दक्षिण और पूर्वोत्तर में तापमान बढ़ा है। इसके मुकाबले गुजरात, कोकण क्षेत्र, मध्य प्रदेश के पश्चिमोत्तर और पूर्वी राजस्थान का औसत तापमान घटा है।
2007 में गठित इंटर गवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के नतीजे के मुताबिक तापमान में तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से फसलों की उत्पादकता बढ़ सकती है। लेकिन आईसीएआर ने स्पष्ट किया है कि अगर तापमान इससे अधिक बढ़ तो खाद्यान्न की उत्पादकता पर विपरीत असर पड़ना तय है।
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Friday, June 4, 2010

कूपन की राशन प्रणाली से पैदा होगा नया तेलगी

खाद्य सुरक्षा कानून कितने गरीबों को दिया जाएगा? उनकी संख्या क्या है? जिस सार्वजनिक वितरण प्रणाली जरिये अनाज दिया जाना है वह तो ध्वस्त हो चुकी है। यह कहना है योजना आयोग के पूर्व सचिव व गरीबों की संख्या के आंकलन के लिए गठित कमेटी के अध्यक्ष डॉक्टर एन.सी. सक्सेना का। उनकी रिपोर्ट में देश की आधी ग्रामीण आबादी गरीबी रेखा से नीचे जी रही है। वह कहते हैं कि योजना का संचालन करने का वाला खाद्य मंत्रालय खुद इसकी जड़ें काटने में जुटा है। बढ़ती खाद्य सब्सिडी वित्त मंत्रालय की आंखों में खटकती रहती है। प्रस्तुत है डा. सक्सेना और सुरेंद्र की बातचीत के अंश।
गरीबों के आकलन के लिए गठित दूसरी कमेटियों से आपकी रिपोर्ट बिल्कुल अलग क्यों है?
बीपीएल की पहचान के तरीके बताने के लिए सक्सेना कमेटी बनाई गई थी। लेकिन बाद में गरीबों की संख्या का अनुमान लगाने को भी कह दिया गया। बहुत विस्तार में जाने के बजाय मैंने भारत सरकार के 1975 में बनाये मानक पर ही अमल किया। इसके मुताबिक 2400 कैलोरी से कम खाने वाले ग्रामीण गरीबी रेखा से नीचे माना गया है। इस मानक के आधार पर तीन चौथाई ग्रामीण बीपीएल वर्ग में हैं।
देश की 50 फीसदी आबादी को गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाला (बीपीएल) बताने के पीछे का क्या आधार है?
ग्रामीण क्षेत्रों के बॉटम गरीबों की 30 फीसदी आबादी में अनाज की खपत साढ़े आठ किलो मासिक है। जबकि टॉप 20फीसदी ग्रामीणों में अनाज की खपत 11.50 किलो मासिक है। बॉटम गरीबों को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, जिसके लिए उन्हें जरुरी प्रोटीन नहीं मिलता है। बराबरी पर लाने के लिए 50 फीसदी इन गरीबों को बीपीएल का लाभ मिलना ही चाहिए। गरीबों की संख्या को लेकर 60 सालों में भी कोई राय क्यों नहीं बन पाई। इस बारे में राज्यों की भूमिका क्या है?
ऐसा नहीं है। हर पांच साल बाद गरीबों की संख्या का निर्धारण होता है। वर्ष 2005 में गरीबों की संख्या 27.5 फीसदी तय थी, जिसे सही नहीं माना जा सकता है। योजना आयोग तेंदुलकर रिपोर्ट के आधार इसे बढ़ाकर 42 फीसदी मानने की बात कर रहा है। राज्यों के आंकड़ों को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश को ही लें। बांदा में भी उतने ही गरीब हैं, जितने मेरठ में हैं। अंतर जिलों की भिन्नता को नकार दिया गया है। तेंदुलकर रिपोर्ट को मानें तो उड़ीसा में गरीबों की संख्या 65 फीसदी हो जाएगी। लेकिन यह सभी जिलों पर लागू नहीं होगी।
केंद्र सरकार जिस राशन प्रणाली (पीडीएस) को ध्वस्त मानती है, उसी तंत्र के मार्फत बहुचर्चित खाद्य सुरक्षा कानून लागू होना है। यह कैसे संभव है?
पीडीएस सभी राज्यों में ध्वस्त नहीं हुई है। तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ से लेकर उड़ीसा तक अच्छी चल रही है। राशन प्रणाली जहां बहुत खराब है वे राज्य हैं, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली। हैरानी यह है कि केंद्र सरकार ने इसे सुधारने का कोई कारगर कदम उठाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। योजना आयोग की 2004 की रिपोर्ट के मुताबिक पीडीएस में 58 फीसदी लीकेज है। तब से सालाना 29 हजार करोड़ रुपये पानी में जा रहा है।
राशन प्रणाली के लिए केंद्र का निगरानी तंत्र क्यों विफल है?
फेल तो तब हो, जब कोई निगरानी तंत्र हो। केंद्र के पास कोई ऐसा तंत्र नहीं है। केंद्र की बाकी योजनाओं की सघन निगरानी होती है, सिर्फ सार्वजनिक राशन प्रणाली को छोड़कर। दरअसल, यह पीडीएस को बदनाम करने की एक बड़ी साजिश है, जिसमें खाद्य मंत्रालय शामिल है। मंत्रालय के अधिकारी खुद इसे बंद कराना चाहते हैं। भला ऐसे में प्रणाली में सुधार कैसे होगा। सभी बिगाड़ने में लगे है। अंदर-अंदर इसकी जड़ें काट रहे हैं। कृषि व वित्त मंत्रालय तो इसे फूटी आंखों नहीं देखना चाहते हैं। कृषि मंत्रालय का जोर जहां किसानों को फसलों के अच्छे मूल्य देने पर होता है, वहीं वित्त मंत्रालय खाद्य सब्सिडी बढ़ने से परेशान है। दोनों मंत्रालयों का उपभोक्ताओं के हितों से कोई लेना देना नहीं है।
गरीबों को सस्ता अनाज देने के लिए पीडीएस जरूरी है, पर इसमें सुधार के क्या उपाय हैं?
जिन राज्यों में पीडीएस अच्छा चल रहा है, उनका मॉडल दूसरे राज्यों में लागू करें। सस्ते गल्ले की दुकानें निजी डीलरों की जगह पंचायत, सहकारी समितियों और स्वयं सहायता समूहों को दिया जाना चाहिए। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ में ऐसा ही किया गया है। साथ ही राशन प्रणाली के दायरे में 30 फीसदी जगह ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल किया जाना चाहिए। छत्तीसगढ़ में 70 फीसदी, तमिलनाडु व कर्नाटक में 100 फीसदी लोगों को राशन दुकानों से अनाज दिया जाता है। विकलांग, विधवाओं, सेवानिवृत्त फौजियों व प्रभावशाली लोगों को दुकानों का आवंटन बंद होना चाहिए। हमारा सिस्टम बिल्कुल उल्टा है। इस योजना का मकसद ऐसे लोगों को कमीशन खिलाने की जगह उपभोक्ताओं का हित होना चाहिए।
पीडीएस को अनाज कूपन व बायोमीट्रिक प्रणाली से चलाने का क्या असर होगा?
कूपन का चलन आंध्र प्रदेश और बिहार है। इसके मार्फत गरीब अनाज उठाते हैं। लेकिन यह पीडीएस का विकल्प नहीं बल्कि एक अंग है। इसे शत प्रतिशत लागू किया गया तो कूपन तेलगी पैदा हो जाएगा। इससे सही आदमी की पहचान भर हो सकेगी। कर्नाटक व आंध्र प्रदेश में थंब इंप्रेशन का प्रयोग शुरु किया गया है। हरियाणा में बायोमीट्रिक सिस्टम शुरू होने वाला है। जिसे पायलट आधार पर तो चलाया जा सकता है लेकिन फिलहाल यह विकल्प नहीं बन सकता है।
गरीबों की संख्या और अनाज की मात्रा बढ़ाकर खाद्य सुरक्षा कानून लागू हुआ इतना अनाज कहां से आयेगा?
पर्याप्त अनाज है। देश की 60 फीसदी जनता को खाद्यान्न वितरित करना संभव है। प्रत्येक परिवार को 35 किलो के हिसाब से अनाज देने पर कुल चार करोड़ टन अनाज चाहिए। जबकि सरकारी खरीद 4.5 करोड़ टन होती है। अनाज कम नहीं है। समूची खाद्य व्यवस्था गंभीर कुप्रबंधन की शिकार है। समन्वित रुप से सोचने की जरूरत है।
खाद्य सुरक्षा कानून में कुछ कड़े प्रावधान भी शामिल किये गये हैं। वे कितने कारगर साबित होंगे?
मनरेगा में भी ऐसे कड़े प्रावधान हैं। खाद्य सुरक्षा कानून सामान्य तौर पर ठीक ही लगता है। लेकिन इसका संचालन करने वाले पीडीएस को कौन ठीक करेगा? कड़े प्रावधानों से कुछ नहीं होने वाला है। मनरेगा में सालभर में सिर्फ 15 दिन काम पाने वालों की संख्या एक करोड़ है। लेकिन केवल 43 लोगों को बेरोजगारी भत्ता मिल पाया। इस मुद्दे पर आखिर कोई क्यों नहीं बोल रहा है। दिल्ली में 8 फीसदी और मुंबई में 12 फीसदी गरीब सड़कों रहते हैं। जिनके पास राशन कार्ड नहीं है क्यों कि कार्ड के लिए स्थायी पता चाहिए। पहले तो ऐसे गरीब विरोधी आदेशों को समाप्त करना होगा।
गरीबों के जीवन स्तर में सुधार के लिए क्या उपाय चाहिए?
कृषि क्षेत्र पर ज्यादा जोर देकर निवेश बढ़ाना चाहिए। सिंचाई सुविधाएं बढ़ानी चाहिए। बिहार में सड़कें तो हैं, लेकिन बिजली न होने से सिंचाई भला कैसे होगी? देश के सभी जिलों में ब्लॉकों की स्थापना खेती को प्रोत्साहित करने के लिए की गई थी। लेकिन अब उसका पूरा ध्यान वहां हैं जहां पैसा व सब्सिडी है। कृषि मार्केटिंग को मजबूत करना होगा। फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ाने में कोताही नहीं होनी चाहिए। अनाज के दाम बढ़ने पर ही उत्पादकता बढ़ जायेगी। रोजगार सृजन के लिए लघु उद्योग क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
गरीबों के जीवन स्तर को जानने के लिए आपने पूरे देश का भ्रमण किया होगा। बदतर हाल कहां के हैं? गरीबों के जीवन स्तर में कुछ सुधार भी हुआ है?
देश के 50 फीसदी के लोगों का जीवन स्तर सुधरा है। जबकि पांच फीसदी लोगों के जीवन स्तर में उछाल आया है। बाकी फीसदी लोग घोर गरीबी में रह रहे हैं। गरीबी की हद उड़ीसा के कुछ इलाकों में है। महिलाओं के पास पूरे तन ढकने के कपड़े तक नहीं है। उत्तर प्रदेश के बांदा और चित्रकूट में गरीबी चरम पर है। बिहार व झारखंड में हालत ठीक नहीं है। मेवात में गरीबी है।
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