Saturday, September 22, 2012
नामी बनिया सरनामी चोर
खुदरा क्षेत्र में कारोबार करने वाली विदेशी कंपनियों को दिया रास्ता
साल डेढ़ साल में आ धमकेंगी विदेशी दुकानें
हम इतने भी भोले नहीं कि आंखों के सामने पड़ी मक्खी को निगल जाएं। लेकिन सरकार है कि हमे बुद्धू ही समझती है। विदेशी कंपनियो को देश में खुदरा कारोबार करने की छूट देकर सरकार बड़ी हेकड़ी से किसानों और उपभोक्ताओं के भले गिना रही है। इतना ही रोजी रोजगार आने के सब्जबाग दिखा रही है। हमने जिसे सरकार बनाया उसने तो सारे फैसले कर लिए हैं। विदेशी दुकानों के आने का रास्ता खुल भी गया है। दुनिया की भारी भरकम कंपनी वालमार्ट ने अगले साल डेढ़ साल में यहां आ धमकने का ऐलान भी कर दिया है। भगवान करें वैसा ही हो सरकार जैसा कह रही है। लेकिन ऐसा भला होगा कैसे? देसी बड़ी कंपनियों की दुकानें तो पहले से ही देश के कई शहरों में खुल चुकी हैं। इनका अनुभव बहुत अच्छा तो नहीं रहा। यहां उधारी तो चवन्नी की नहीं मिल सकती।
शुरु में दुकानें खुलीं तो क्या साफ सफाई, वातानुकूलित माहौल, पहिये वाली ट्राली पकड़कर घूमतें मेम साहबें और कीमतें बड़ी वाजिब। अदरक, लहसुन, नीबू, धनिया, हरी मिर्च और पुदीने वाला चटनी पैक सिर्फ पांच रुपये में। कटा कटाया सलाद और न जाने कितने तरह की सब्जियां बड़े सस्ते में ले जाइए, गरम करिए और पेट पूजा। यहां मोजा-जूता से लेकर टाई और सूट मिल रहा है तो दुकान के दूसरे छोर पर दूध और आलू भी बिक रहा है। इलेक्ट्रानिक्स के सामान व गारमेंट के बड़े ब्रांड भी उपलब्ध हैं।
बस फिर क्या था, इनकी ख्याति नामी बनिया और सरनानी चोर की तरह फैलने लगी। भीड़ कुछ ऐसे उमड़नी शुरु हुई कि सामान खरीदने के बाद बिल बनवाने की होड़ लगने लगी। लेकिन यह सब कितने दिन चला। साल डेढ़ साल में ही लोगों का मोह भंग होने लगा। बदबूदार सब्जी मंडी की ओर ही लोगों ने रुख करना शुरु कर दिया। यह तो रही उपभोक्ताओं के हित अथवा अहित की बात। विदेशी खुदरा कंपनियों को लाने के हिमायती नेताओं से भला कोई क्यों पूछता कि आखिर उनका विरोध उनके ही देश में क्यों हो रहा है। इसके चलते उनके नए स्टोर अब नहीं खुल पा रहे है।
इसका दूसरा पक्ष किसानों के हितों का है। दावा है कि विदेशी कंपनी आएगी तो किसानों से ही तो उनके उत्पाद खरीदेगी, बिचौलिए नहीं होंगे तो माल सस्ता मिलेगा। अरे भाई। अब घरेलू कंपनियों के कामकाज पर नजर डालिए। शुरु में इन कंपनियों के ट्रक गांवों की ओर रुख किए। लेकिन थोक में खरीदने के चक्कर में औने-पौने भाव देने पर उतर आई। क्यों कि इन कंपनियों ने जिन्हें खेतों से सब्जियां खरीदने का दायित्व सौंपा था, वे खुद बिचौलिए की भूमिका में आ गए हैं। यानी किसानों को तो वही भाव मिल रहा है जिस भाव पर उसका माल व्यापारी खेतों से सीधे खरीदते हैं। किसान व उपभोक्ता दोनों इससे रोजाना रूबरू हो रहे हैं, इसके बावजूद सरकार को भला यह क्यों नहीं दिख रहा है। तभी तो मक्खी निकलने का दबाव बनाया जा रहा है।
Wednesday, June 13, 2012
'त्रिशंकु कस्बों के बुनियादी विकास के लिए अब नई योजना
न गांव रहे और न कस्बे बन पाए तो उन्हें क्या कहें। हमे तो सूझ नहीं रहा,लेकिन सरकार ने उन्हें त्रिशंकु की संज्ञा से नवाजा है। क्यों कि उन्हें न तो ग्रामीण विकास मंत्रालय से मदद मिलती है और न ही शहरी विकास से।
उनका विकास कैसे हो? सरकार ने अब उन्हें 'त्रिशंकु कस्बों के रूप में चिन्हित किया है। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 'पुरा को संशोधित कर इन त्रिशंकु कस्बों के विकास की योजना तैयार की है। निजी-सरकारी भागीदारी (पीपीपी) के आधार पर इन कस्बों का विकास किया जाएगा। सरकार ने इस मद में 1500 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है।
आबादी के हिसाब से पिछले एक दशक में देश में ऐसे त्रिशंकु कस्बों की संख्या बढ़कर तीन गुना हो गई है। इस श्रेणी में ऐसे 'गांवों को रखा गया है, जिनकी आबादी पांच हजार से अधिक है। ऐसे कस्बों जिनके 75 फीसदी पुरुष गैर कृषि रोजगारों में हों और आबादी का घनत्व प्रति किलोमीटर 400 अथवा इससे अधिक हो उन्हें न तो शहरी विकास मंत्रालय से मदद मिल पाती है और न ही ग्रामीण विकास मंत्रालय से।
लिहाजा प्रॉविजन आफ अर्बन एमिनीटीज इन रूरल एरियाज (पुरा) वाली योजना में सरकार ने भारी संशोधन कर दिया गया है। अब इसका लाभ उन गांवों को मिलेगा, जिनका शहरीकरण तो हो गया है, लेकिन जो शहर की श्रेणी में नहीं आ पाए हैं। यहां सरकारी निजी भागीदारी (पीपीपी) के आधार पर योजनाएं संचालित होंगी। सरकार ऐसी प्रत्येक परियोजना पर 40 रुपये का अनुदान देगी बाकी खर्च निजी क्षेत्र को करना होगा।
कस्बे में सड़क, पेयजल, सफाई, स्ट्रीट लाइट और सीवर लाइन बिछाई जाएगी। निजी क्षेत्र अपने निवेश की वसूली शुल्क लगाकर अगले 10 सालों में कर सकेगा। जयराम रमेश ने बताया कि राज्य सरकार की देखरेख में ग्र्राम पंचायत और निजी कंपनी के बीच सभी शर्तों पर समझौता होगा, जिसमें कस्बे का विकास और शुल्क के प्रावधान का जिक्र होगा।
वर्ष 2001 में देश में ऐसे त्रिशंकु कस्बों की संख्या 1362 थी, जो 2011 में बढ़कर 3894 हो गई है। उत्तर प्रदेश में ऐसे कस्बों की संख्या 66 से बढ़कर 267 हो गई है। पश्चिम बंगाल और केरल में इनकी संख्या में सबसे ज्यादा वृद्धि हुई है। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा 'ऐसे त्रिशंकु कस्बों में बुनियादी ढांचे की हालत बहुत खराब है। इसी समस्या के समाधान के लिए मंत्रालय ने गांवों में शहरों जैसी सुविधा (पुरा) योजना को संशोधित कर दिया। अब यह योजना इन्हीं त्रिशंकु कस्बों के लिए होगी।Ó हैरानी जताते हुए रमेश ने कहा 'इन कस्बों के विकास के लिए इनका कोई माई बाप नहीं है।Ó चालू वित्त वर्ष में केरल के ऐसे दो कस्बों के विकास का कार्य निजी क्षेत्र के सहयोग से शुरू करा दिया गया है।
घूरों के दिन बहुरेंगे, गांवों को मिलेंगे लाखों
कहते हैं कि कुछ सालों में घूरों के भी दिन बहुरते हैं तो सचमुच में बहुरने वाले हैं। सरकार ने तो यही फैसला किया है। घूरे वह भी गांव के। सीसीईए ने इसकी घोषणा कर दी है। ग्रामीण क्षेत्रों में कूड़ा-कचरा प्रबंधन व निपटान के लिए सरकार ने पहली बार नायाब पहल करते हुए देश के हर गांव को एकमुश्त वित्तीय मदद देने का फैसला किया है। आबादी के हिसाब से हर गांव को न्यूनतम 7 लाख और अधिकतम 20 लाख रुपये की वित्तीय मदद मुहैया कराई जाएगी।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीईए) की बैठक में संपूर्ण स्वच्छता अभियान का नाम बदलकर निर्मल भारत अभियान कर दिया गया। साथ ही ग्र्रामीण क्षेत्रों में कचरा प्रबंधन के लिए गांवों को मदद देने के प्रस्ताव पर फैसला लिया गया। बैठक में ग्र्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक शौचालय बनाने पर दी जाने वाली वित्तीय मदद को दोगुना से भी अधिक बढ़ाकर 10 हजार रुपये कर दिया गया है।
खुले में शौच करने की प्रवृत्ति खत्म करने के लिए ग्र्रामीण शौचालयों के लिए केंद्र की ओर से 2100 रुपये मिलते थे, उसे बढ़ाकर 3200 रुपये कर दिया गया है। जबकि राज्य सरकार की हिस्सेदारी 1000 से बढ़ाकर 1400 रुपये और लाभार्थी की 300 से बढ़ाकर 900 रुपये की गई है। ग्र्रामीण विकास मंत्रालय के उस प्रस्ताव को भी मंजूरी मिल गई है, जिसमें मनरेगा की हिस्सेदारी 1200 से बढ़ाकर 4500 रुपये की गई है।
सीसीईए की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वच्छता अभियान को उन 200 जिलों में प्राथमिकता के तौर पर चलाने की बात कही, जिनमें कुपोषण की समस्या सबसे अधिक है। निर्मल भारत अभियान का लाभ सिर्फ बीपीएल परिवारों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इसका लाभ सभी परिवारों को दिया जा सकेगा। गरीब परिवारों को प्राथमिकता जरूर दी जाएगी। सीसीईए में यह भी फैसला लिया गया कि इंदिरा आवास योजना के मकानों में शौचालय अनिवार्य रूप से बनाए जाएंगे। योजना में घर बनाने की लागत को भी बढ़ाने का प्रस्ताव है।
---------------
कहां कितने निर्मल गांव
---------------
-उप्र के 52 हजार गांवों में से केवल 1080 गांव निर्मल
-बिहार के कुल 8474 गांवों में से 217 गांव निर्मल
-झारखंड के 4464 गांव में से 225 निर्मल
-हरियाणा में 6500 में से 1600 गांव निर्मल
--------------
Friday, June 1, 2012
मैं उस जमाने का हूं.....हां जी
हैरानी इसी बात की है कि मैं उस जमाने का हूँ, जब दहेज में हाथ घड़ी, रेडियो और साइकिल मिल जाने पर लोग बहुत खुश होते थे। तब बहुएं जलाई नहीं जाती थीं। बच्चे स्कूलों के नतीजे आने पर आत्महत्या नहीं करते थे। इसकी जगह स्कूल में मास्टर जी और घर में पिताजी, धुन दिया करते थे। बच्चे चौदह-पन्द्रह साल तक बच्चे ही रहा करते थे तब मानवाधिकार अजूबी चिरई होती थी। कम लोग ही जानते थे। मैं उस जमाने का हूँ जब कुँए का पानी गर्मियों में ठंडा और सर्दियों में गरम होता था। घरों में फ्रिज नहीं मटके और 'दुधहांड़ी' होती थी दही तब सफेद नहीं हल्का ललौक्षा लिए होता था। सर्दियों में कोल्हू गड़ते ही ताज़े गुड़ की महक से पूरा गांव गमक उठता था। गरीबों के पेट भरने की मुश्किलें खत्म हो जाती थीं। माई उसी ऊख के रस में चावल डालकर बखीर बना लेती थी। आम की बगिया तो थी पर 'माज़ा' नहीं था। 'राब' का शरबत तो था पर कोल्डड्रिंक्स नहीं थे। पैसे बहुत कम थे पर जिंदगी बहुत मीठी। सचमुच मैं उस जमाने का हूँ जब गर्मियां आज जैसी ही होती थीं पर एक अकेला 'बेना' उसे हराने के लिए काफी होता था। दुपहरिया में दरवाजे की सिकड़ी चढ़ा दी जाती थी। बच्चों को घरों में नजरबंद करने में ही माई अपनी सफलता समझती थी। माई थी कि बगल वाली काकी के साथ बिछौने पर साड़ी चढ़ाई जाती थी। सींक से बने 'बेने' और उन पर झालरें लगाने की कला कमाल की थी। तब सरकार की मोहताज नहीं थी जिंदगी बल्कि जीवन में रची बसी थी खुशी। मैं उस ज़माने का हूँ जब गांव में खलिहान हुआ करते थे। मशीनें कम थीं। ज्यादा लोग बैल या भैसो कि जोड़ी रखते थे। महीनों दंवाई यानी मड़ाई चलती थी तब कहीं फसल घर आ पाती थी। पइर पर सोने का सुख मेट्रेस पर सोने वाला क्या जाने। अचानक आई आंधी से भूसा और अनाज बचाते हुए ..हम न जाने कब जिंदगी की आँधियों से लड़ना सीख गये पता ही नही चला। मैं उस जमाने का हूँ जब किसान अपनी जरूरत की हर चीज़ जैसे धान, गेंहू, गन्ना, सरसों, ज्वार, चना, आलू , धनिया लहसुन, प्याज, अरहर, तिल्ली और सांवा सब कुछ पैदा कर लेता था। धरती आज भी वही है पर आज नकदी (फसलों) का ज़माना है। बुरा हो इस आर्थिक उदारीकरण का जिस पैसे के पीछे इतना जोर लगा के दौड़े अब न तो उस पैसे की कोई कीमत है और न इंसान की।
Wednesday, May 30, 2012
यूपी की ग्रामीण सड़कों को नहीं मिल पाई मंजूरी
-जून तक टल गई सड़कों के प्रस्तावों पर मंजूरी की मुहर
-उत्तर प्रदेश के 25 जिलों में सड़कों से नहीं जुड़ पाए हैं गांव
-नक्सल प्रभावित तीन जिलों के प्रस्ताव भी पेश कर पाए अफसर
-------------------
अफसरों की लापरवाही क्या कुछ नहीं करा सकती, उसका अंदाजा उत्तर प्रदेश के अधिकारियों की करतूतों से लगाया जा सकता है। उनकी गलती से गांवों को जोड़ने वाली सड़कों को केंद्र से मिलने वाली मंजूरी जून तक के लिए टाल दी गई। भला हो ऐसे अफसरों का, जिन्होंने यह कारनामा कर दिखाया। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत इन सड़कों के बनाए जाने की मंजूरी मिलनी थी। केंद्रीय ग्र्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने बैठक में हिस्सा लेने आए अफसरों को इस लेटलतीफी के लिए आड़े हाथों भी लिया। राज्य के दो दर्जन से अधिक जिलों में सभी गांव अभी भी सड़कों से नहीं जुड़ पाए हैैं।
ग्र्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा 'सभी गांवों के प्रधानमंत्री ग्र्रामीण सड़क योजना (पीएमजीएसवाई) के तहत सड़कों से जुडऩे के बाद ही पुरानी सड़कों के उच्चीकरण के प्रस्ताव पर विचार किया जाएगा। ऐसा न करने पर राज्य सरकारें छोटे गांवों को जोडऩे के बजाए उच्चीकरण पर ज्यादा ध्यान देने लगेंगी।Ó रमेश ने इस बात पर भी हैरानी जताई की उत्तर प्रदेश के नक्सल प्रभावित जिलों के भी गांव अभी तक सड़कों से नहीं जुड़ पाए हैं। जबकि ऐसे जिलों में सड़कों का निर्माण प्राथमिकता के आधार पर कराया जाता है।
राज्य में 25 जिले ऐसे हैं, जिनके सभी गांवों संपर्क मार्ग से नहीं जुड़ पाए हैं। पांच सौ से 999 तक की आबादी वाले सभी गांवों को जोडऩे की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार नहीं है। राज्य के मिर्जापुर, चंदौली और सोनभद्र जैसे नक्सलग्रस्त जिलों के 250 की आबादी वाले गांवों को जोडऩे का प्रस्ताव तैयार नहीं है।
बैठक में हिस्सा लेने आए उत्तर प्रदेश के अफसर उस समय सकते में आ गए, जब ग्र्रामीण विकास मंत्री ने उनसे राज्य की प्रस्तावित सड़कों की विस्तृत रिपोर्ट पेश करने को कहा। रिपोर्ट पेश करने में असमर्थ होने की दशा में केंद्रीय मंत्री ने उन्हें जून के आखिरी सप्ताह तक विस्तृत परियोजना रिपोर्ट पेश करने को कहा। राज्य के अफसर संपर्क मार्ग की रिपोर्ट के बजाए पुरानी सड़कों के उच्चीकरण वाली फाइलें पूरी तरह तैयार करके पहुंचे थे। लेकिन ग्र्रामीण मंत्रालय ने राज्य में संपर्क मार्ग का काम पूरा होने के बाद ही उच्चीकरण की फाइल पेश करने का निर्देश दिया।
-------------
गांवों में पीने के पानी का देना होगा शुल्क
2020 तक देश के 90 फीसदी गांवों में नलों से मिलेगा पेयजल
-राज्यों के मंत्रियों ने जयराम के प्रस्ताव पर बनाई सहमति
-बिहार ने पेयजल आपूर्ति की राष्ट्रीय नीति बनाने का रखा मसौदा
-नलों से पेयजल की आपूर्ति में उत्तर प्रदेश फिसड्डी
------------
गांवों में भी पीने के पानी का शुल्क देना होगा। केंद्र सरकार के इस प्रस्ताव पर लगभग सभी राज्यों से सहमति जताई है। इसके लिए प्रत्येक परिवार को रोजाना अपनी ग्र्राम पंचायत में एक रुपये की राशि जमा करानी होगी। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि ग्र्रामीण भारत के लोग साफ पानी के लिए शुल्क देने को राजी हैं। राज्यों के पेयजल व च्वच्छता मंत्रियों के सम्मेलन में इस पर आम सहमति बन गई। मिशन 2020 के तहत 90 फीसदी गांवों में नलों से पीने का पानी देने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। नलों से पेयजल आपूर्ति में उत्तर प्रदेश और बिहार फीसड्डी साबित हुए हैं।
पेयजल आपूर्ति औच् स्वच्छता पर राज्यों केमंत्रियों के दो दिवसीय सम्मेलन के अंतिम दिन ग्र्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि केंद्र के धन से पेयजल कार्यक्रम के तहत किसी राज्य को हैंडपंप लगाने की अनुमति नहीं दी जाएगी। उन्होंने कहा कि इसके विपरीत उत्तर प्रदेश और बिहार में सबसे अधिक मांग हैंडपंपों की होती है। सांसद निधि से भी तात्कालिक व्यवस्था के तहत हैंडपंप लगाए जा रहे हैं।
राज्यों के मंत्रियों के सम्मेलन उत्तर प्रदेश और बिहार में पेयजल आपूर्ति में ओवरहेड टैंकों और पाइप वाली योजनाओं को प्राथमिकता दी जाएगी। इन राज्यों में नलों से पेयजल आपूर्ति 10 फीसदी से भी कम होती है, जो देश में सबसे कम है। नलों से पेयजल आपूर्ति के बदले ग्र्रामीण परिवारों को महाराष्ट्र के गढ़चिरौली की तर्ज पर टोकन राशि के तौर पर एक रूपये रोजाना ग्र्राम पंचायत में जमा करना होगा। उस राशि का उपयोग पेयजल आपूर्ति के रखरखाव के लिए किया जाएगा।
पेजयल की समस्या गंभीर हो चुकी है। इसके हल के लिए केंद्र सरकार ने मिशन 2020 तैयार किया है, जिसके तहत 90 फीसदी गांवों में नलों से पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित की जाएगी। यह सभी लोगों का संवैधानिक अधिकार है। उत्तर प्रदेश के पेयजल आपूर्ति मंत्री अरविंद सिंह गोप ने राज्य में पेयजल समस्या से निजात पाने के लिए केंद्र से मदद की गुहार की। उन्होंने भरोसा दिया कि राज्य पेयजल अच्र स्वच्छता कार्यक्रम के लिए केंद्रीय मदद का पूरा उपयोग करेगा।
बिहार ने पेयजल आपूर्ति के लिए केंद्र से राष्ट्रीय नीति बनाने की बात कही तो झारखंड ने कहा कि उनके पिछड़े राज्य में पेयजल जल के लिए कम से कम चार हजार करोड़ रुपये की जरूरत है। हरियाणा ने मेवात और महेंद्रगढ़ के मरूभूमि वाले क्षेत्र में पेयजल आपूर्ति के लिए अतिरिक्त मदद की गुहार की। इन जिलों में खारे पानी की गंभीर समस्या है।
------------
यूपीए के तीन साल, महंगा आटा, महंगी दाल
सरकार उपलब्धियों का सच
--------------
-खाद्यान्न प्रबंधन पर भारी पड़ी सरकार की नीतिगत विफलता
-खाद्यान्न कारोबार पर प्रसंस्करण और थोक व्यापारियों का एकाधिकार
-गरीबों की दाल रोटी पर गहराया संकट
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि का सच गरीबों के लिए बहुत कड़वा है। देश में गेहूं की रिकार्ड पैदावार के बावजूद आटा और गेहूं की कीमत में दो से ढाई गुना का फर्क है। जबकि दाल दलहन के मुकाबले तीन गुनी तक महंगी है। यह इस बात का प्रमाण है कि खाद्यान्नों की भारी आपूर्ति के बावजूद सरकार जिंस बाजार को संभालने में विफल रही है। जिससे गरीबों की नहीं आम लोगों की दुश्वारियां बढ़ गई हैं। इसे शासन की विफलता के रूप में देखा जा सकता है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार के तीन साल के कार्यकाल की उपलब्धियां गिना रहे थे। अनाज के बंपर उत्पादन को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बताई है। यह सच भी है। लेकिन बाजार में आटा व दाल की कीमतों पर इसका कोई असर नहीं है। सरकार की खाद्य नीति में असंतुलन है। खाद्य उत्पादों पर लगाम कसने वाला प्रशासनिक अमला हार चुका है। खाद्यान्न प्रबंधन की खामियां इसके लिए जिम्मेदार हैं। मांग और आपूर्ति के सिद्धांत के विपरीत बाजार सटोरियों व जमाखोरों के हाथों में खेल रहा है।
अनाज की भारी पैदावार पर सरकार इतरा रही है, लेकिन उसके प्रबंधन की चूक पर वह चुप्पी साधे है। तभी तो जिंस बाजार में गेहूं साढ़े नौ से 11 रुपये किलो और आटा 20 से 25 रुपये किलो बिक रहा है। इसी तरह 33 रुपये किलो की अरहर और उसकी दाल 90 रुपये किलो। खुले बाजार में गेहूं समर्थन मूल्य 1285 रुपये प्रति क्विंटल से नीचे यानी 950 से 1100 रुपये क्विंटल पर बिक रहा है। लेकिन हैरानी यह कि जिंस बाजार में गेहूं आटे का मूल्य किसी भी हाल में 20 रुपये से नीचे नहीं है। प्रीमियम क्वालिटी के नाम पर गेहूं आटा 25 से 30 रुपये किलो तक बिक रहा है। ब्रांडेड गेहूं आटे का मूल्य इससे कहीं अधिक है।
दालों के मूल्य तो और भी अतार्किक तरीके से बढ़ाए गए हैं। घरेलू बाजार में अरहर की की कीमत 3300/3400 रुपये प्रति क्विंटल बिक रही है। जबकि अरहर की दालें 9000 से 9500 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गई हैं। दालों के प्रसंस्करण करने वालों की मानें तो प्रति किलो दाल पर 10 से 15 रुपये प्रति किलो की लागत आती है। लेकिन तैयार दालों के मूल्य खुदरा बाजार में बहुत अधिक हैं।
-------------
जिंस बाजार की
उलटबांसियां :
------------
--------------------
-खाद्यान्न पैदावार 25.50 करोड़ टन -गेहंू साढ़े नौ से 11 रुपये किलो -आटा 20 से 28 रुपये किलो -अरहर 33 से 34 रुपये किलो -अरहर दाल 70 से 85 रुपये किलो ----------------------
Subscribe to:
Posts (Atom)