दलहन गांव के बाद अब बसेंगे बीज ग्राम
देश के गोदाम गेहूं व चावल से अटे पड़े हैं। लेकिन दाल की कटोरी विलायत की दाल से ही भर रही है। विदेशी मुद्रा खर्च करके सरकार आजिज आ चुकी है। फिर भी बात नहीं बन रही है। थक हार कर अधिक दलहन उगाने की मशक्कत शुरू की गई है। किसानों का रोना है कि उन्हें अच्छे बीज ही नहीं मिल पा रहा है। जबकि सरकारी कृषि वैज्ञानिकों की फेहरिस्त में कई सौ वेरायटी तैयार हैं। यह है सरकारी अंतरविरोध। इसी को दूर करने के लिए सरकार ने नई योजना चालू की है। कुछ नमूने आप भी देख लें।
सरकार की कोशिशें कामयाब हुईं तो आने वाले सालों में रोटी के साथ दाल भी मयस्सर हो सकती है। देश में दाल की कमी और उसकी बढ़ती कीमतों से परेशान सरकार सारे विकल्पों को खंगालने में जुट गयी है। इसके तहत पहले दलहन ग्राम और अब बीज ग्राम बसाने की योजना पर अमल शुरू कर दिया गया है।
दलहन खेती को लाभप्रद बनाने और प्रोत्साहित करने के लिए किसानों को उनके गांव में ही अच्छे व उन्नत फाउंडेशन बीज मुहैया कराने की योजना है। योजना के तहत गांव के किसानों को ही लघु बीज गोदाम स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। दलहन बीजों के भंडारण के लिए उन्हें उचित भाड़ा भी दिया जाएगा। किसानों को दलहन की वैज्ञानिक खेती का मुफ्त प्रशिक्षण देने की भी योजना है। यह योजना राज्यों के कृषि ïिवभाग, कृषि विश्वविद्यालय और राज्य बीज निगम के साझा प्रयास से संचालित की जाएगी।
योजना के तहत दलहन खेती के इच्छुक किसानों को प्रति आधा एकड़ खेत के लिए जरूरी फाउंडेशन बीजों की आपूर्ति 50 फीसदी के सब्सिडी मूल्य पर की जाएगी। पहले चरण में किसानों को प्रशिक्षित करने की योजना है, जिसमें 150 किसानों के समूह को प्रशिक्षण देने के लिए 15 हजार रुपये का प्रावधान किया गया है।
दलहन बीजों के भंडारण के लिए जो किसान अपने स्तर पर गोदाम बनाकर बीजों की भंडारण करेंगे, उन्हें 1500 से 3000 रुपये का भाड़ा दिया जाएगा। यह भाड़ा 10 और 20 क्विंटल दलहन बीजों पर मिलेगा। अनुसूचित व अनुसूचित जनजाति के किसानों को देय भाड़े की राशि सामान्य वर्ग के किसानों के मुकाबले अधिक होगी।
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Monday, October 18, 2010
बेमौत मारे जाते हैं बेजुबान
मौत से बचने वाले पशु अपाहिज और लाचार होकर हो जाते हैं बेकार
देश के करोड़ों बेजुबान हर साल बेमौत मारे जाते हैं, लेकिन उनकी आह और कराह किसी को सुनवाई नहीं पड़ती है। सरकारी आंकड़े को ही सही मान लें तो हर साल कोई २० हजार करोड़ रुपये की लागत का पशुधन संक्रामक बीमारियों की भेंट चढ़ जाता है। इसके लिए सरकार का फंड ऊंट के मुंह में जीरा के बराबर ही है। देश में कोई तीन चार संस्थान ही हैं, जहां गिनती के पशु चिकित्सक तैयार होते हैं, उनमें से भी ज्यादातर विदेश का रुख कर लेते हैं। यहां तो सब कुछ नीम हकीम खतरे जान है। यह रिपोर्ट भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉक्टर एमसी. शर्मा से बातचीत पर आधारित है। हजारों करोड़ रुपये का जो नुकसान आप देख रहे हैं, वह तो सिर्फ पशुओं के संक्रामक रोग है। जाने कितने औ रोग हैं, जिनका जिक्र कभी और किसी रिपोर्ट में देने की कोशिश करुंगा।
हर बार की तरह इस साल (२०१०-११) भी टीके के अभाव में करोड़ों पशु मुंहपका- खुरपका रोग से मरने के लिए अभिशप्त हैं। देश में इसका टीका बनाने वाली कंपनियों की उत्पादन क्षमता मांग के मुकाबले बहुत कम है। यही वजह है कि अब तक केवल 54 जिलों में ही पशुओं का संपूर्ण टीकाकरण हो सका है, बाकी भगवान भरोसे हैं। जबकि यह इतना खतरनाक रोग है कि जो पशु मौत से बच भी जाते हैं, वे अपाहिज व लाचार होकर किसी काम के नहीं रहते।
पिछले साल ही देश पूरे देश में मुंहपका-खुरपका रोग फैला था। लेकिन इन बेजुबानों की मौत पर देश के किसी कोने से कोई आह तक नहीं निकली। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस रोग से सालाना पांच से 20 हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है। देश में केवल 54 ऐसे जिले हैं जहां इस रोग का प्रकोप नहीं हुआ था। इनका संबंध हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से है। यहां शत प्रतिशत पशुओं का टीकाकरण हो चुका है। इन जिलों को छोड़कर देश के बाकी जिलों में पशुओं की जान 'राम भरोसेÓ है। यहां टीके की भारी किल्लत है।
भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉक्टर एमसी. शर्मा का कहना है कि सितंबर से नंवबर के महीने में पशुओं में 'खुरपका व मुंहपकाÓ रोग के फैलने की आशंका सबसे अधिक होती है। पशुओं के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। इसके वायरस अत्यधिक गरमी, अत्यधिक जाड़ा अथवा ज्यादा बारिश के समय तेजी से सक्रिय होते हैं। चारे का अभाव, कीचड़ व भीगने से पशुओं में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता कम हो जाती है, जिससे इसका प्रकोप और तेज हो जाता है। समूचे देश और पूरे एशिया में यह वायरस सक्रिय है। मुंहपका में पशु के मुंह में छाले, जीभ में घाव, अल्सर और मुंह से लगातार लार टपकती रहती है। जबकि खुरपका में पशु के खुर के बीच में घाव हो जाता है और उसमें कीड़े पड़ जाते हैं। कहने को ये दो रोग हैं, मगर इनका वायरस एक है, लिहाजा टीका भी एक है।
इस वायरस के प्रभाव से मादा पशु के साथ सांड की प्रजनन क्षमता खत्म हो जाती है। नर पशु की कार्य क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है। दुधारू पशु दूध देना बंद कर देते हैं। डॉक्टर शर्मा का कहना है कि छोटे पशुओं में 20 फीसदी और बड़े पशुओं में 10 फीसदी तक के प्रभावित होने की आशंका रहती है। गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सूअरों के अलावा जंगली हिरनों में इसका प्रकोप सर्वाधिक होता है।
पशुओं के इस संक्रामक रोग पर काबू पाने के लिए सरकार ने आधा अधूरा प्रयास शुरू किया है। इसके तहत देश के 270 जिलों को टीकाकरण योजना में शामिल किया गया है। लेकिन कब तक वहां टीका पहुंचेगा इसका जवाब मंत्रालय में किसी के पास नहीं है। देश में पशुओं के टीकाकरण के लिए सालाना 60 लाख टीके चाहिए। लेकिन उत्पादन सिर्फ 10 लाख टीकों का ही हो पाता है।
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देश के करोड़ों बेजुबान हर साल बेमौत मारे जाते हैं, लेकिन उनकी आह और कराह किसी को सुनवाई नहीं पड़ती है। सरकारी आंकड़े को ही सही मान लें तो हर साल कोई २० हजार करोड़ रुपये की लागत का पशुधन संक्रामक बीमारियों की भेंट चढ़ जाता है। इसके लिए सरकार का फंड ऊंट के मुंह में जीरा के बराबर ही है। देश में कोई तीन चार संस्थान ही हैं, जहां गिनती के पशु चिकित्सक तैयार होते हैं, उनमें से भी ज्यादातर विदेश का रुख कर लेते हैं। यहां तो सब कुछ नीम हकीम खतरे जान है। यह रिपोर्ट भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉक्टर एमसी. शर्मा से बातचीत पर आधारित है। हजारों करोड़ रुपये का जो नुकसान आप देख रहे हैं, वह तो सिर्फ पशुओं के संक्रामक रोग है। जाने कितने औ रोग हैं, जिनका जिक्र कभी और किसी रिपोर्ट में देने की कोशिश करुंगा।
हर बार की तरह इस साल (२०१०-११) भी टीके के अभाव में करोड़ों पशु मुंहपका- खुरपका रोग से मरने के लिए अभिशप्त हैं। देश में इसका टीका बनाने वाली कंपनियों की उत्पादन क्षमता मांग के मुकाबले बहुत कम है। यही वजह है कि अब तक केवल 54 जिलों में ही पशुओं का संपूर्ण टीकाकरण हो सका है, बाकी भगवान भरोसे हैं। जबकि यह इतना खतरनाक रोग है कि जो पशु मौत से बच भी जाते हैं, वे अपाहिज व लाचार होकर किसी काम के नहीं रहते।
पिछले साल ही देश पूरे देश में मुंहपका-खुरपका रोग फैला था। लेकिन इन बेजुबानों की मौत पर देश के किसी कोने से कोई आह तक नहीं निकली। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस रोग से सालाना पांच से 20 हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है। देश में केवल 54 ऐसे जिले हैं जहां इस रोग का प्रकोप नहीं हुआ था। इनका संबंध हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से है। यहां शत प्रतिशत पशुओं का टीकाकरण हो चुका है। इन जिलों को छोड़कर देश के बाकी जिलों में पशुओं की जान 'राम भरोसेÓ है। यहां टीके की भारी किल्लत है।
भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉक्टर एमसी. शर्मा का कहना है कि सितंबर से नंवबर के महीने में पशुओं में 'खुरपका व मुंहपकाÓ रोग के फैलने की आशंका सबसे अधिक होती है। पशुओं के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। इसके वायरस अत्यधिक गरमी, अत्यधिक जाड़ा अथवा ज्यादा बारिश के समय तेजी से सक्रिय होते हैं। चारे का अभाव, कीचड़ व भीगने से पशुओं में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता कम हो जाती है, जिससे इसका प्रकोप और तेज हो जाता है। समूचे देश और पूरे एशिया में यह वायरस सक्रिय है। मुंहपका में पशु के मुंह में छाले, जीभ में घाव, अल्सर और मुंह से लगातार लार टपकती रहती है। जबकि खुरपका में पशु के खुर के बीच में घाव हो जाता है और उसमें कीड़े पड़ जाते हैं। कहने को ये दो रोग हैं, मगर इनका वायरस एक है, लिहाजा टीका भी एक है।
इस वायरस के प्रभाव से मादा पशु के साथ सांड की प्रजनन क्षमता खत्म हो जाती है। नर पशु की कार्य क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है। दुधारू पशु दूध देना बंद कर देते हैं। डॉक्टर शर्मा का कहना है कि छोटे पशुओं में 20 फीसदी और बड़े पशुओं में 10 फीसदी तक के प्रभावित होने की आशंका रहती है। गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सूअरों के अलावा जंगली हिरनों में इसका प्रकोप सर्वाधिक होता है।
पशुओं के इस संक्रामक रोग पर काबू पाने के लिए सरकार ने आधा अधूरा प्रयास शुरू किया है। इसके तहत देश के 270 जिलों को टीकाकरण योजना में शामिल किया गया है। लेकिन कब तक वहां टीका पहुंचेगा इसका जवाब मंत्रालय में किसी के पास नहीं है। देश में पशुओं के टीकाकरण के लिए सालाना 60 लाख टीके चाहिए। लेकिन उत्पादन सिर्फ 10 लाख टीकों का ही हो पाता है।
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