Wednesday, November 18, 2015

गांवों में भी होती है कला, साहित्य व संस्कृति की खेतीः


भारत बसता तो गांवों में है, पर साहित्य, कला और उसकी संस्कृति शहरों में ही क्यों दिखती है। भले ही वह गांवों में प्रफुल्लित होती है। गांवों में भी संस्कृति, साहित्य व कला की खेती होती है। उसकी फसलें भी लहलहाती हैं, लेकिन पक कर यहीं पीढी दर पीढ़ी उगती व मरती रहती है। गांवों के लिए यह सब स्वाभाविक है। बस दिखती नहीं है या लोग देखते नहीं है। लोक कलाओं, परंपराओं, खानपान, वेशभूषा और न जाने क्या क्या गांवों से चुराकर शहरों के लोग अपना बनाकर पेश करने से बाज नहीं आ रहे हैं। गांवों में भोर से ही शुरु होकर रात में सो जाने तक गीत गवनई, किस्सागोई, चुहलबाजी, नृ्त्य, कारीगरी यहां हर क्षण निर्क्षर होकर बहती रहती है। इसके लिए जोर लगाने और आयोजन करने की जरूरत नहीं पड़ती है। जाति, वर्ग, धर्म व संप्रदायों के हिसाब से एक ही गांव में अलग-अलग बोली और न जाने कितने तरह की लोक कलाएं सहज रूप से रचती बसती हैं, जिसका कोई मोल नहीं होता है। गोबर व मिट्टी के लेप से बनाई जाने वाले चित्रों को देखकर कला के पारखी भी दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं। घरेलू पशुओं की बोली, रंभाने की आवाज, गले में बंधी घंटी के सुर, चक्की की घर्र घर्र, पंप सेट के पट्टे की तयताल और भी बहुत कुछ। हवाओं के झोंके से बज उठने वाली फसलों के संगीत। तीज त्यौहारों की तैयारियां, गाए जाने नाना प्रकार के गीत और उनके सुर ताल, उतार चढ़ाव, विशुद्ध परंपरागत वाद्ययंत्रों की झनकार व थाप। सब कुछ तो है गांवों में, लेकिन उसे न कोई जानने की कोशिश करता है और न ही उसे बचाने की कोशिश। धोबिययू नृत्य के साथ गीत को सुने न जाने कितने साल हो गये। अब न जाने वह होगा या नहीं पता नहीं। कहरवा गीत और उसके साथ बजाए जाने वाली अनूठी ढपली और भी कुछ जो टिभुक-टिभुक कर बजता था। भला उसे कैसे भुला पाएंगे। बिरहा, लोरकी, लाचारी, कहरवा,धोबियऊ, सुबह-सुबह जाता चलाकर गाई जाने वाले गीत, तीन त्योहार, शादी बिआह, लोकाचार और तो और अपने पाहुन के स्वागत में जो गाली गाई जाती है, वह कहीं और नहीं पाई जा सकती। और भी कई तरह के गाने व गीत है। उनके रचयिता व लेखक साहित्यकारों की श्रेणी में नहीं रखे जाते, भला वे इस श्रेणी में कैसे आ सकते हैं? उनके पांव चमाचम फर्श पर फिसल जाएंगे। साहित्यकारों की नफीस बोलचाल में वे फिट नहीं बैठेंगे। तभी तो वे गंवार हैं, हां भइयां वे गांवों में रहेंगे तो गंवार तो होंगे ही। बस....। लोक परंपराओं के नाम पर शहरों में फुहड़ पातर गाने व अनाप-शनाप चीजें धड़ल्ले से दिखाई जाने लगी हैं। कर

Monday, October 26, 2015


http://m.jagran.com/video/v13427.html

Sunday, June 21, 2015

नखड़ुओं के संगी हैं हम, खबर सच्ची है

तीनों नखड़ू मेरे गांव के हैं। सभी अपने आप में अनूठे। सबसे छोटे नखड़ू प्राइमरी स्कूल गये तो लेकिन सतिराम मुंशी जी के डंडे के जोर से घबरा कर तौबा कर लिया और अब खेती किसानी और मेहनत मजूरी में जुट गये। जीवन सुख से चल रहा है। दूसरे नखड़ू, जिसकी संक्षिप्त चर्चा आगे करुंगा। वह कुछ अनूठे हैं। जिनकी चर्चा करने जा रहा हूं वह नखड़ू मुझसे सीनियर थे। कोई तीन चार चाल। बकौल उनके परिवार वालों के, नखड़ू बड़े होनहार थे। दो-तीन साल में एक क्लास पास करने में दो तीन साल से ज्यादा नहीं ही लेते थे। उनके बाकी भाई तो पढ़ाई के मैदान में खेत रहे। लेकिन नखड़ू पढ़ने से मुंह नहीं मोड़ा। 16 तक की करने में कोई २२ साल लगा दिये। नखड़ू एक क्लास में कई-कई साल की मेहनत से एम.ए. तक की आखिरकार पढा़ई कर डाली। उन्हें सिर्फ पास भर का नंबर चाहिए था जो मिला। घर वालों का धैर्य चाहिए था, वह भी मिला। उनके पास होने पर बाजा बजता था। लड़ुआ बंटा। कई पीढ़ी बाद किसी ने इतनी ऊंची पढाई की थी। धूमधाम से शादी हुई। नखड़ू बड़े आदमी हो गये। इसीलिए खेतों में काम करना भी बंद कर दिया। कई साल तक एमए की खुमारी में डूबे रहे। नाते-रिश्तेदारी में घूमते रहे। गांव के उनकी जाति के टोले के सबसे पढ़ंकू बनने के चक्कर में बिरहा लचारी भी लिखने का शौक पाल लिया। लेकिन यह बिजनेस नहीं चला। लेकिन बच्चों की बढ़ती संख्या ने नखड़ू की अर्थ व्यवस्था को खराब कर दिया। भाइयों की नजर में नखड़ू जंग लगी मशीन दिखने लगे। लेकिन किसी रिश्तेदार के सहयोग से अपनी तहसील की कचहरी में नौकरी लग गई। तहसील के लेखपाल के चपरासी हो गये। लेखपाल खुद इंटर पास और नखड़ू एमए। नखड़ू के लिए यह भाग्य-भाग्य की बात है भइया। सरकारी नौकरी की आस अभी बाकी है। बचपन में नखड़ू अमरुद को मरुद और आदमी को इदमी कहा करते थे। उनकी यह जबान आज भी गांव के नयी पीढ़ी के लड़कों के लिए आकर्षण है। तहसील क्या गये उन्हें राजनीति का माहिर मान लिया गया। उनका साहब (लेखपाल) किसी का खेत जब चाहे तभी घटा-बढ़ाकर नाप देता है। लेखपाल साहब से नखड़ू की सिफारिश काम आती है। फिर ठीक भी कराते हैं। रोजाना २० से २५ किमी साइकिल का लोहा पेरते तहसील जाते है। खुश बहुत हैं। नखड़ू की याद अनायास ही आई। नखड़ू को याद करने की कोशिश की है। अगली पोस्ट में दूसरे व अनोखे नखड़ू की चर्चा करुंगा, जो मोगली के बाप जैसे हैं......

Tuesday, April 14, 2015

पांच दिन से थाने में खड़ी मंत्री की गाड़ी


हरियाणा की मनोहरलाल खट्टर सरकार में शामिल मंत्री कविता जैन की गाड़ी दस अप्रैल से थाने में खड़ी है। मंत्री की जगह गाड़ी अभियुक्त बनी खड़ी है। उसकी सुरक्षा थाने की पुलिस कर रही है। दरअसल सोनीपत से चंडीगढ़ के रास्ते में महिला मंत्री कविता जैन की गाड़ी ने नीलोखड़ी कस्बे के पास एक मोटरसाइकिल सवार को टक्कर मार दी। इसमें बाइक पर सवार दो युवक जखमी हो गये। मामले को दबाने व घायलों के घर वालों से मुकदमा दर्ज न कराने का दबाव बनाया जा रहा है। समझौते के प्रयास जारी हैं। तब तक अभियुक्त बनी गाड़ी थाने की हिरासत में है। लेकिन पुलिस वाले मुंह खोलने से बच रहे हैं।

Monday, April 13, 2015

गुलाबी पगड़ी का खौफ


भूमि अधिग्रहण अध्यादेश और किसानों के मसले पर 19 अप्रैल को दिल्ली के रामलीला मैदान में होने वाली कांग्रेस रैली को लेकर हरियाणा कांग्रेस अंतर्कलह से जूझ रही है। प्रदेश इकाई हरियाणा कांग्रेस और हुड्डा कांग्रेस में बंट गई है। दोनों के बीच सियासी जंग तेज हो गई है। इसमें एक का नेतृत्व युवा नेता अशोक तंवर कर रहे हैं तो दूसरे की कमान पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के हाथ है। तंवर और हुड्डा ने समर्थकों की ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटाने की तैयारी शुरू कर दी है। लेकिन हुड्डा की गुलाबी पगड़ी ने तंवर के साथ-साथ दिल्ली राज्य इकाई के अध्यक्ष अजय माकन, राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष पॉयलट और यूपी कांग्रेस के पर्टी मुखिया निर्मल खत्री की बेचैनी बढ़ा दी है। हुड्डा अपने समर्थकों को गुलाबी पगड़ी बांधकर ही आने का स्पष्ट निर्देश दिया है। एेसे में दूसरी की भीड़ को अपना बताकर पल्ला झाड़ने वाले नेताओं के इससे होश उड़े हुए हैं। हुड्डा की गुलाबी पगड़ी का खौफ स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हुड्डा ने अपने एक दशक के कार्यकाल में कांग्रेसी जनसभाओं में गुलाबी पगड़ी से अपनी एक विशेष पहचान बना ली है। हरियाणा कांग्रेस राजनीति में इसे हुड्डा कांग्रेस कहा जाता है। दिल्ली हरियाणा से तीन तरफ से घिरी हुई है। जबकि राजस्थान और यूपी दिल्ली के साथ सटे हुए बड़े राज्य हैं। तंवर, माकन, पायलट व खत्री को गुलाबी पगड़ी बेचैन किए हुए है। गुलाबी पगड़ी से भीड़ का आंकड़ा बढ़ा तो हुड्डा व उसके सांसद पुत्र को श्रेय मिलेगा। हालांकि भीड़ कम हुई तो पिता-पुत्र की हवा बिगड़नी तय है। इसीलिए हुड्डा ने अपने विश्वासपात्रों को ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटाने के निर्देश दिया है। रैली स्थल तक ले जाने और वापसी के लिए वाहन, खाने-पीने के साथ साथ गुलाबी पगडिय़ों की व्यवस्था हुड्डा समर्थक ही करेंगे। राजनीतिक पंडित कांग्रेस की इस प्रस्तावित रैली को कई मायनों में अहम मानते है। लोकसभा चुनाव में दुर्गति के बाद निराशा के भंवर में फंसी कांग्रेस फिर से जनता, विशेषकर देश के करोड़ों किसानों से रूबरू होकर उन्हें कांग्रेस के करीब लाने का स्वपन संजोये हुए है। कांग्रेस को इस रैली से कितना फायदा पहुंचेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, मगर ज्यों-ज्यों रैली का दिन नजदीक आ रहा है, त्यों-त्यों गुलाबी पगड़ी का खौफ भी बढ़ता जा रहा है। संकेत है कि गुलाबी पगड़ी का दिल्ली में जोर होने पर तंवर बड़े राजनीतिक भंवर में फंस सकते हैं। बाप-पूत (हुड्डा) का यह राजनीतिक दांव सभी पर भारी पड़ सकता है।
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