Wednesday, May 30, 2012

यूपी की ग्रामीण सड़कों को नहीं मिल पाई मंजूरी

-जून तक टल गई सड़कों के प्रस्तावों पर मंजूरी की मुहर -उत्तर प्रदेश के 25 जिलों में सड़कों से नहीं जुड़ पाए हैं गांव -नक्सल प्रभावित तीन जिलों के प्रस्ताव भी पेश कर पाए अफसर ------------------- अफसरों की लापरवाही क्या कुछ नहीं करा सकती, उसका अंदाजा उत्तर प्रदेश के अधिकारियों की करतूतों से लगाया जा सकता है। उनकी गलती से गांवों को जोड़ने वाली सड़कों को केंद्र से मिलने वाली मंजूरी जून तक के लिए टाल दी गई। भला हो ऐसे अफसरों का, जिन्होंने यह कारनामा कर दिखाया। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत इन सड़कों के बनाए जाने की मंजूरी मिलनी थी। केंद्रीय ग्र्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने बैठक में हिस्सा लेने आए अफसरों को इस लेटलतीफी के लिए आड़े हाथों भी लिया। राज्य के दो दर्जन से अधिक जिलों में सभी गांव अभी भी सड़कों से नहीं जुड़ पाए हैैं। ग्र्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा 'सभी गांवों के प्रधानमंत्री ग्र्रामीण सड़क योजना (पीएमजीएसवाई) के तहत सड़कों से जुडऩे के बाद ही पुरानी सड़कों के उच्चीकरण के प्रस्ताव पर विचार किया जाएगा। ऐसा न करने पर राज्य सरकारें छोटे गांवों को जोडऩे के बजाए उच्चीकरण पर ज्यादा ध्यान देने लगेंगी।Ó रमेश ने इस बात पर भी हैरानी जताई की उत्तर प्रदेश के नक्सल प्रभावित जिलों के भी गांव अभी तक सड़कों से नहीं जुड़ पाए हैं। जबकि ऐसे जिलों में सड़कों का निर्माण प्राथमिकता के आधार पर कराया जाता है। राज्य में 25 जिले ऐसे हैं, जिनके सभी गांवों संपर्क मार्ग से नहीं जुड़ पाए हैं। पांच सौ से 999 तक की आबादी वाले सभी गांवों को जोडऩे की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार नहीं है। राज्य के मिर्जापुर, चंदौली और सोनभद्र जैसे नक्सलग्रस्त जिलों के 250 की आबादी वाले गांवों को जोडऩे का प्रस्ताव तैयार नहीं है। बैठक में हिस्सा लेने आए उत्तर प्रदेश के अफसर उस समय सकते में आ गए, जब ग्र्रामीण विकास मंत्री ने उनसे राज्य की प्रस्तावित सड़कों की विस्तृत रिपोर्ट पेश करने को कहा। रिपोर्ट पेश करने में असमर्थ होने की दशा में केंद्रीय मंत्री ने उन्हें जून के आखिरी सप्ताह तक विस्तृत परियोजना रिपोर्ट पेश करने को कहा। राज्य के अफसर संपर्क मार्ग की रिपोर्ट के बजाए पुरानी सड़कों के उच्चीकरण वाली फाइलें पूरी तरह तैयार करके पहुंचे थे। लेकिन ग्र्रामीण मंत्रालय ने राज्य में संपर्क मार्ग का काम पूरा होने के बाद ही उच्चीकरण की फाइल पेश करने का निर्देश दिया। -------------

गांवों में पीने के पानी का देना होगा शुल्क

2020 तक देश के 90 फीसदी गांवों में नलों से मिलेगा पेयजल -राज्यों के मंत्रियों ने जयराम के प्रस्ताव पर बनाई सहमति -बिहार ने पेयजल आपूर्ति की राष्ट्रीय नीति बनाने का रखा मसौदा -नलों से पेयजल की आपूर्ति में उत्तर प्रदेश फिसड्डी ------------ गांवों में भी पीने के पानी का शुल्क देना होगा। केंद्र सरकार के इस प्रस्ताव पर लगभग सभी राज्यों से सहमति जताई है। इसके लिए प्रत्येक परिवार को रोजाना अपनी ग्र्राम पंचायत में एक रुपये की राशि जमा करानी होगी। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि ग्र्रामीण भारत के लोग साफ पानी के लिए शुल्क देने को राजी हैं। राज्यों के पेयजल व च्वच्छता मंत्रियों के सम्मेलन में इस पर आम सहमति बन गई। मिशन 2020 के तहत 90 फीसदी गांवों में नलों से पीने का पानी देने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। नलों से पेयजल आपूर्ति में उत्तर प्रदेश और बिहार फीसड्डी साबित हुए हैं। पेयजल आपूर्ति औच् स्वच्छता पर राज्यों केमंत्रियों के दो दिवसीय सम्मेलन के अंतिम दिन ग्र्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि केंद्र के धन से पेयजल कार्यक्रम के तहत किसी राज्य को हैंडपंप लगाने की अनुमति नहीं दी जाएगी। उन्होंने कहा कि इसके विपरीत उत्तर प्रदेश और बिहार में सबसे अधिक मांग हैंडपंपों की होती है। सांसद निधि से भी तात्कालिक व्यवस्था के तहत हैंडपंप लगाए जा रहे हैं। राज्यों के मंत्रियों के सम्मेलन उत्तर प्रदेश और बिहार में पेयजल आपूर्ति में ओवरहेड टैंकों और पाइप वाली योजनाओं को प्राथमिकता दी जाएगी। इन राज्यों में नलों से पेयजल आपूर्ति 10 फीसदी से भी कम होती है, जो देश में सबसे कम है। नलों से पेयजल आपूर्ति के बदले ग्र्रामीण परिवारों को महाराष्ट्र के गढ़चिरौली की तर्ज पर टोकन राशि के तौर पर एक रूपये रोजाना ग्र्राम पंचायत में जमा करना होगा। उस राशि का उपयोग पेयजल आपूर्ति के रखरखाव के लिए किया जाएगा। पेजयल की समस्या गंभीर हो चुकी है। इसके हल के लिए केंद्र सरकार ने मिशन 2020 तैयार किया है, जिसके तहत 90 फीसदी गांवों में नलों से पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित की जाएगी। यह सभी लोगों का संवैधानिक अधिकार है। उत्तर प्रदेश के पेयजल आपूर्ति मंत्री अरविंद सिंह गोप ने राज्य में पेयजल समस्या से निजात पाने के लिए केंद्र से मदद की गुहार की। उन्होंने भरोसा दिया कि राज्य पेयजल अच्र स्वच्छता कार्यक्रम के लिए केंद्रीय मदद का पूरा उपयोग करेगा। बिहार ने पेयजल आपूर्ति के लिए केंद्र से राष्ट्रीय नीति बनाने की बात कही तो झारखंड ने कहा कि उनके पिछड़े राज्य में पेयजल जल के लिए कम से कम चार हजार करोड़ रुपये की जरूरत है। हरियाणा ने मेवात और महेंद्रगढ़ के मरूभूमि वाले क्षेत्र में पेयजल आपूर्ति के लिए अतिरिक्त मदद की गुहार की। इन जिलों में खारे पानी की गंभीर समस्या है। ------------

यूपीए के तीन साल, महंगा आटा, महंगी दाल

सरकार उपलब्धियों का सच -------------- -खाद्यान्न प्रबंधन पर भारी पड़ी सरकार की नीतिगत विफलता -खाद्यान्न कारोबार पर प्रसंस्करण और थोक व्यापारियों का एकाधिकार -गरीबों की दाल रोटी पर गहराया संकट संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि का सच गरीबों के लिए बहुत कड़वा है। देश में गेहूं की रिकार्ड पैदावार के बावजूद आटा और गेहूं की कीमत में दो से ढाई गुना का फर्क है। जबकि दाल दलहन के मुकाबले तीन गुनी तक महंगी है। यह इस बात का प्रमाण है कि खाद्यान्नों की भारी आपूर्ति के बावजूद सरकार जिंस बाजार को संभालने में विफल रही है। जिससे गरीबों की नहीं आम लोगों की दुश्वारियां बढ़ गई हैं। इसे शासन की विफलता के रूप में देखा जा सकता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार के तीन साल के कार्यकाल की उपलब्धियां गिना रहे थे। अनाज के बंपर उत्पादन को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बताई है। यह सच भी है। लेकिन बाजार में आटा व दाल की कीमतों पर इसका कोई असर नहीं है। सरकार की खाद्य नीति में असंतुलन है। खाद्य उत्पादों पर लगाम कसने वाला प्रशासनिक अमला हार चुका है। खाद्यान्न प्रबंधन की खामियां इसके लिए जिम्मेदार हैं। मांग और आपूर्ति के सिद्धांत के विपरीत बाजार सटोरियों व जमाखोरों के हाथों में खेल रहा है। अनाज की भारी पैदावार पर सरकार इतरा रही है, लेकिन उसके प्रबंधन की चूक पर वह चुप्पी साधे है। तभी तो जिंस बाजार में गेहूं साढ़े नौ से 11 रुपये किलो और आटा 20 से 25 रुपये किलो बिक रहा है। इसी तरह 33 रुपये किलो की अरहर और उसकी दाल 90 रुपये किलो। खुले बाजार में गेहूं समर्थन मूल्य 1285 रुपये प्रति क्विंटल से नीचे यानी 950 से 1100 रुपये क्विंटल पर बिक रहा है। लेकिन हैरानी यह कि जिंस बाजार में गेहूं आटे का मूल्य किसी भी हाल में 20 रुपये से नीचे नहीं है। प्रीमियम क्वालिटी के नाम पर गेहूं आटा 25 से 30 रुपये किलो तक बिक रहा है। ब्रांडेड गेहूं आटे का मूल्य इससे कहीं अधिक है। दालों के मूल्य तो और भी अतार्किक तरीके से बढ़ाए गए हैं। घरेलू बाजार में अरहर की की कीमत 3300/3400 रुपये प्रति क्विंटल बिक रही है। जबकि अरहर की दालें 9000 से 9500 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गई हैं। दालों के प्रसंस्करण करने वालों की मानें तो प्रति किलो दाल पर 10 से 15 रुपये प्रति किलो की लागत आती है। लेकिन तैयार दालों के मूल्य खुदरा बाजार में बहुत अधिक हैं। ------------- जिंस बाजार की उलटबांसियां : ------------ --------------------
-खाद्यान्न पैदावार 25.50 करोड़ टन -गेहंू साढ़े नौ से 11 रुपये किलो -आटा 20 से 28 रुपये किलो -अरहर 33 से 34 रुपये किलो -अरहर दाल 70 से 85 रुपये किलो ----------------------

बुंदेलखंड में केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय खोलने का रास्ता साफ

-राष्ट्रीय महत्त्व का संस्थान घोषित कर राज्यसभा में पेश किया विधेयक -इंफाल की तर्ज पर खुलेगा केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय -------------- बुंदेलखंड क्षेत्र में रानी लक्ष्मीबाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए शरद पवार ने राज्यसभा में एक विधेयक पेश किया। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के दो साल पहले बुंदेलखंड दौरे के समय सरकार ने इस कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना की घोषणा की थी। सदन में विधेयक पेश करते हुए पवार ने कहा कि यह विश्वविद्यालय बुंदेलखंड के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है क्योंकि बुंदेलखंड का यह इलाका आज भी आर्थिक रूप से काफी पिछड़ा है। इस विश्वविद्यालय के दायरे में उत्तर प्रदेश के सात और मध्य प्रदेश के छह जिले आएंगे। उन्होंने कहा कि सरकार पूर्व में इंफाल में भी एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय स्थापित कर चुकी है। पवार के विधेयक पेश किए जाने की सदन से अनुमति मांगे जाने पर माकपा के पी. राजीव ने आपत्ति जताते हुए कहा कि संविधान के अनुसार संसद इस तरह का कानून बनाने में सक्षम नहीं है। केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना संघ सूची में शामिल नहीं है इसलिए सरकार यह विधेयक पेश नहीं कर सकती। इस पर सदन में भाजपा सहित कुछ अन्य दलों के सदस्य भी आपत्ति उठाने लगे। पवार ने आपत्तियों पर सवाल खड़ा करते हुए कहा कि पचीस साल पहले मणिपुर के इंफाल में जब ऐसा ही विश्वविद्यालय खोला जा सकता है तो बुंदेलखंड में क्यों नहीं? इस पर विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने कहा कि सरकार इस तरह का विधेयक नहीं बना सकती है। यदि सरकार प्रस्तावित विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित कर दे तो वह इसका विधेयक ला सकती है। उन्होंने सुझाव दिया कि कृषि मंत्री सदन को यह आश्वासन दें कि वह सरकारी संशोधन के जरिए विधेयक में ऐसा प्रावधान शामिल करेंगे। जेटली के सुझाव पर पवार द्वारा सहमति जताए जाने के बाद सदन ने इस विधेयक को पेश करने की ध्वनिमत से मंजूरी दे दी। ------------

दूध की कमी से बेफिक्र सरकार दुग्ध पाउडर निर्यात पर आमादा

सब्सिडी के साथ होगा गरमी में स्किम्ड मिल्क पाउडर का निर्यात कमी के चलते साल भर में पांच बार बढ़ाए जा चुके हैं दूध के दाम निर्यात सब्सिडी पर कैबिनेट की बैठक में हो सकता है हंगामा ---------------- दूध में और उबाल आनी हो तो आए। केंद्र सरकार तो वही करेगी, जो उसे भाएगा। यही वजह है कि अगले कुछ दिनों में दूध का मूल्य बढऩा तय हो गया है। दूध की कमी से देश में चौतरफा कीमतें बढ़ रही हैं। सालभर में पांच बार दूध के दाम बढ़ चुके हैं। अब एक बार और। दूध पाउडर का निर्यात सरकार करने जा रही है। वह भी सब्सिडी के साथ। इसकी घोषणा केंद्रीय मंत्रिमंडल की अगली बैठक में होनी है। निर्यातकों को दूध पाउडर के निर्यात पर सब्सिडी देने के पीछे सरकार का तर्क है कि इससे वे अंतराष्ट्रीय बाजार में आसानी से माल बेच सकेंगे। लेकिन फिर भी यह इतना आसान नहीं है और कैबिनेट बैठक में निर्यात सब्सिडी के मुद्दे पर हंगामा हो सकता है। दुग्ध उत्पाद केसिन के निर्यात की अनुमति केंद्र पहले ही दे चुका है। जबकि दूध पाउडर के निर्यात का फैसला ऐसे भीषण गरमी के मौसम में किया जा रहा है जब दूध का उत्पादन अपने निचले स्तर पर पहुंच चुका है। कृषि मंत्रालय के तैयार कैबिनेट नोट में 60 हजार टन स्किम्ड मिल्क पाउडर (एसएमपी) के निर्यात का प्रस्ताव तैयार किया गया है। मसौदे पर परसों यानी बृहस्पतिवार को फैसला लिए जाने की संभावना है। कैबिनेट नोट में दुग्ध पाउडर के निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए प्रति टन 30 हजार रुपये की सब्सिडी देने का प्रावधान है। इसमें एक और शर्त जोड़ी गई है कि 15 हजार रुपये की मदद संबंधित राज्य सरकार करेगी जबकि बाकी 15 हजार की सब्सिडी केंद्र सरकार वहन करेगी। तथ्य यह है कि राष्ट्रीय दुग्ध विकास परिषद (एनडीडीबी) ने पिछले साल दूध की बढ़ी कीमतों को थामने के लिए 50 हजार टन दूध पाउडर का आयात किया था। लेकिन चालू साल में जाड़े के लंबा खिंच जाने की वजह से दूध की पर्याप्त उपलब्धता रही। इसके बावजूद घरेलू बाजार में दूध की कीमतें नहीं घटीं, बल्कि कीमतें कई मर्तबा बढ़ाई गईं। बकौल डेयरी संघ, दूध पाउडर की घरेलू मांग एक लाख टन है, जबकि कुल उपलब्धता 1.70 लाख टन है। ----------

खाद्यान्न के उठाव में देरी, केंद्र पर भड़के हुड्डा

थामस से हुड्डा ने की मुलाकात -पंजाब के मुकाबले हरियाणा से कम हो रहा उठाव, एफसीआई पर आरोप -हरियाणा में खुले में पड़ा है एक करोड़ टन गेहूं व चावल -खाद्य मंत्रालय हरकत में, एफसीआई से उठाव में तेजी लाने का दिया निर्देश ------------------- हरियाणा में एक करोड़ टन से अधिक अनाज खुले में बने जैसे तैसे पड़ा हुआ है। मानसून की बौछारों के साथ इसके खराब होने की आशंका है। राज्य के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने इसी मसले को लेकर बुधवार को यहां खाद्य मंत्री केवी थामस से मुलाकात की। एफसीआई पर भेदभाव का आरोप लगाते हुए उन्होंने राज्य से अनाज का पर्याप्त उठाव न होने पर अपनी सख्त नाराजगी जाहिर की। खाद्य मंत्री ने खाद्यान्न के उठाव को तेज करने का भरोसा दिया है। मुख्यमंत्री हुड्डा ने अपनी नाराजगी जताते हुए यहां तक कह दिया कि पंजाब से गेहूं का उठाव बहुत ज्यादा हो रहा है, लेकिन हरियाणा से गेहूं का उठाव न के बराबर हो रहा है। इससे यहां पड़े गेहूं के सडऩे की आशंका है। 'जागरणÓ से बातचीत में हुड्डा ने कहा कि उन्होंने राज्य से हर महीने 10 लाख टन अनाज के उठाव की मांग की है। फिलहाल यहां से हर महीने केवल चार लाख टन अनाज ही दूसरे राज्यों को भेजा जा रहा है। मुख्यमंत्री हुड्डा की बातों को सुनने के बाद थामस ने एफसीआई के अधिकारियों की बैठक कर अनाज के उठाव में तेजी लाने का निर्देश दिया है। राज्य के खाद्य आपूर्ति मंत्री महेंद्र प्रताप सिंह ने बताया कि राज्य में कुल 1.50 करोड़ टन गेहूं व चावल का स्टॉक है। इसका दो तिहाई हिस्सा खुले में अस्थाई तौर पर रखा गया है। चालू रबी खरीद सीजन में अब तक 86 लाख टन गेहूं की खरीद हो चुकी है। राज्य में गेहूं के अलावा खरीफ सीजन में खरीदा गया चावल भी पड़ा हुआ है। एफसीआई की कार्यप्रणाली पर नाराजगी जताते हुए महेंद्र प्रताप ने कहा कि पंजाब के मुकाबले हरियाणा से अनाजों का उठाव बहुत कम हो रहा है। राज्य के खाद्य मंत्री सिंह ने कहा कि मानसून की आमद के साथ ही खुले में पड़े गेहूं व चावल के खराब होना तय है। लेकिन इस अनाज के रखरखाव का सारा दारोमदार एफसीआई का है। इसके बावजूद वह लापरवाही कर रही है। हालांकि अनाज के खराब होने से बचाने और गोदामों को खाली करने के लिए ही राज्य सरकार केंद्र से आग्र्रह कर रही है। केंद्र ने आश्वस्त किया है कि इस दिशा में तेजी से कदम उठाये जाएंगे। --------------

राज्यों में गेहूं खरीद से केंद्र की बढ़ी सांसत

-30 जून तक होगी गेहूं की सरकारी खरीद -उत्तर प्रदेश में प्लास्टिक बोरों के साथ पुराने जूट बोरों के उपयोग की छूट -मध्य प्रदेश में गेहूं खरीद में गड़बड़ी की आशंका, जांच को जाएंगी केंद्रीय टीम -खाद्यान्न संभालने को लेकर केंद्र को नहीं सूझ रहा रास्ता -------------------- गेहूं खरीद में आमतौर पर पीछे रहने वाले राज्यों में भारी खरीद से केंद्र सरकार की सांसत बढ़ गई है। प्रधानमंत्री कार्यालय और वित्त मंत्रालय ने इसे गंभीरता से लेते हुए खाद्य मंत्रालय को गेहूं खरीद की राह में आने वाली मुश्किलों के समाधान करने का निर्देश दिया है। यही वजह है कि गेहूं खरीद की तारीख 30 जून तक बढ़ी दी गई है। मध्य प्रदेश के बाद अब उत्तर प्रदेश में गेहूं खरीद बहुत तेज हो गई है। उत्तर प्रदेश में जहां गेहूं खरीद बढ़ गई है, वहीं मध्य प्रदेश में हुई अनपेक्षित भारी खरीद पर केंद्र को संदेह होने लगा है। यही वजह है कि अगले सप्ताह तक खाद्य मंत्रालय से उच्चाधिकारियों का एक दल मध्य प्रदेश का दौरा करेगा। आशंका है कि वहां राशन दुकानों के लिए आवंटित पुराना गेहूं दूसरे रास्ते खरीद केंद्रों पर पहुंचने लगा है। केंद्रीय खाद्य मंत्रालय का अनुमान है कि उत्तर प्रदेश सरकार जिस तरह गेहूं खरीद में सक्रियता दिखा रही है, उससे भारी मात्रा में गेहूं का स्टॉक हो जाएगा। इसे संभालना केंद्रीय खाद्य मंत्रालय की एजेंसियों के लिए भारी पड़ेगा। उत्तर प्रदेश में गेहूं खरीद के लिए जूट बोरों की आपूर्ति का मसला अभी भी अटका हुआ है, जिससे राज्य में गेहूं की खरीद प्रभावित हो रही है। केंद्रीय खाद्य मंत्री केवी थामस ने कहा कि राज्य सरकार की मांग के मद्देनजर वहां प्लास्टिक बोरों के सीमित उपयोग की छूट दे दी गई है। लेकिन राज्य सरकार इस रियायत से संतुष्ट नहीं है। थामस ने कहा कि उत्तर प्रदेश से जितने बोरों की मांग आई है, उसे अगले एक सप्ताह में पूरा कर दिया जाएगा। राज्य सरकार को सिर्फ 20 हजार प्लास्टिक बोरे और 11.50 लाख पुराना जूट बोरे के उपयोग की छूट दी गई है। उत्तर प्रदेश सरकार ने और 53 हजार प्लास्टिक बोरे खरीदने की मांग की है। खाद्य मंत्रालय ने उत्तर प्रदेश सरकार के इस प्रस्ताव को टेक्सटाइल मंत्रालय के विचारार्थ भेज दिया है। --------

Thursday, May 17, 2012

अफसरों पर गिरेगी चीनी आंकड़ों में गलती की गाज!

आंकड़ों के हेरफेर से खेल करने वाले अफसरों पर भला लगाम कौन लगा सकता है? चीनी उत्पादन को लेकर हमेशा से परस्पर विरोधाभाषी आंकड़ों से नफा कमाने का खेल होता रहा है। लेकिन इस बार मामला कुछ अलग था। गड़बड़ करने वाले अफसरों ने वही गड़बड़ आंकड़ा औद्योगिक उत्पादन सूचकांक तैयार करने वालों को पक़ड़ा दिया। वहां भी आंखे मूंद अफसर बैठे थे। वहां भी होश खोए अधिकारी बैठे थे। एक महीने के चीनी उत्पादन के आंकड़े की जगह चार महीने की चीनी का आंकड़ा जोड़कर औद्योगिक सूचकांक का आंकड़ा ही बिगाड़ दिया। लेकिन इन भलामानुषों को इस जगजाहिर गड़बड़ी का पता तब चला, जब किसी बाहरी ने इस पर सवाल खड़ा किया। अब मंत्रालयों व विभागों के बीच गलती करने वाले की तलाश की जा रही है। चीनी उत्पादन के गलत आंकड़े देने के विवाद को खाद्य मंत्रालय ने गंभीरता से लिया है। मंत्रालय में इसकी आंतरिक जांच शुरू कर दी गई है। मंत्रालय से संबद्ध चीनी निदेशालय के कुछ अधिकारियों पर इसकी गाज गिर सकती है। खाद्य मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि चीनी निदेशालय में पिछले दिनों बड़े स्तर पर तबादले किए गए, जिसकी वजह से यह गड़बड़ी हुई। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक के लिए जनवरी माह के चीनी उत्पादन का आंकड़ा भेजना था, जो 58 लाख टन था। इसके विपरीत चीनी निदेशालय ने अक्तूबर से जनवरी तक पहले चार महीने के चीनी उत्पादन का 1.36 करोड़ टन का आंकड़ा भेज दिया था। दोगुना से भी अधिक चीनी उत्पादन के मद्देनजर औद्योगिकी उत्पादन सूचकांक असामान्य तरीके से उछल पड़ा था। लेकिन हकीकत का पता चलने पर खाद्य मंत्रालय ने खेद जताते हुए संशोधित आंकड़ा भेजा। सूचकांक तैयार करने वाली पूरी प्रक्रिया कठघरे में आ गई है। खाद्य मंत्रालय ने इस मामले की आंतरिक जांच शुरू कर दी है। चीनी के आंकड़ों में गड़बड़ी के चलते औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में हुई गफलत पर सरकारी आंकड़े तैयार करने वाली प्रक्रिया ही सवालों के घेरे में आ गई है। इस गंभीर चूक के लिए खाद्य मंत्रालय को जिम्मेदार ठहराया गया है। लेकिन उपभोक्ता मामले व खाद्य मंत्री केवी थामस ने तो इसके लिए कृषि मंत्रालय को दोषी बताकर खुद पल्ला झाड़ लिया है। उन्होंने कहा कि 'चीनी उत्पादन के जो आंकड़े उन्हें कृषि मंत्रालय से प्राप्त हुए थे, उन्हें उसी तरह आगे बढ़ा दिया गया था।Ó लेकिन यह पूरी तरह सच नहीं है। खाद्य मंत्रालय के चीनी निदेशालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक चीनी उत्पादन के मासिक आंकड़े सभी मिलें सीधे खाद्य मंत्रालय को भेजती हैं। इसके अलावा राज्यों के गन्ना आयुक्तों की बैठक में इन आंकड़ों की पुष्टि की जाती है। कृषि मंत्रालय केवल गन्ना बुवाई का रकबा तैयार करता है।

गरीबों की गिनती में उत्तर भारत के राज्य पिछड़े

यूपी, उत्तराखंड समेत छह राज्यों में बीपीएल गणना का काम बहुत पीछे हमने तय कर रखा है कि हर जगह पीछ रहेंगे, चाहे कुछ बंट रहा हो तो भी। कुछ करना हो तो भी। ऐसे में भला उद्धार कैसे होगा? कोई सवाल भी तो नहीं करता। जाति, वर्ग और संप्रदाय में बंटे उत्तरी राज्यों की राजनीति भी इसी पर स्थापित है। लीजिए बानगी। जब सारा देश जातीय व आर्थिक जनगणना में आगे दर आगे की होड़ में है, तब भी हम पीछे रहने को आतुर हैं। उत्तर प्रदेश समेत आधा दर्जन राज्यों में गरीबों की गणना के साथ ही जातीय जनगणना पिछड़ गई है। जहां देश के ज्यादातर राज्यों में काफी पहले पूरी हो चुकी है, वहीं उत्तर प्रदेश में अभी इसका आगाज तक नहीं हुआ है। उत्तराखंड, उड़ीसा, मणिपुर, महाराष्ट्र और गोवा में भी यह जनगणना देर से शुरू हुई है। देश के सभी राज्यों में दिसंबर 2011 तक इस जनगणना को समाप्त होना था। लेकिन कुछ राज्यों के पिछडऩे से केंद्र सरकार चिंतित हो गई है। दरअसल प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक के अमल का दारोमदार इसी जनगणना पर टिका है। यही वजह है कि इस स्थिति से चिंतित खाद्य मंत्री केवी थामस ने ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश को पत्र लिखकर जातीय व सामाजिक-आर्थिक जनगणना के बारे में विस्तार से जानकारी मांगी थी। जिसके जवाब में जयराम ने सभी राज्यों में जुलाई तक कार्य समाप्त होने को कहा है। ग्र्रामीण विकास मंत्री ने पिछले दिनों अपने लखनऊ दौरे समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से इस बारे में पूछा था। राज्य सरकार की ओर से बताया गया कि सामाजिक-आर्थिक जनगणना हर हाल में जून 2012 में शुरू हो जाएगी। यहां जनगणना तीन चरणों में होगी। खाद्य सुरक्षा कानून के तहत 74 फीसदी ग्र्रामीण और 46 फीसदी शहरी उपभोक्ताओं को कानूनी तौर पर रियायती दरों पर खाद्यान्न प्राप्त करने का हक मिल जाएगा। लेकिन इसका निर्धारण उक्त जनगणना पर निर्भर करेगा। इसमें भी लगभग 50 फीसदी ग्रामीण और 28 फीसदी शहरी उपभोक्ता वरीयता वर्ग के होंगे, जिन्हें अति सस्ता अनाज वितरित किया जाएगा। ----------
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