Wednesday, November 28, 2012

बिना खाद के गेहूं बुवाई से हिचक रहे किसान

-खाद की किल्लत से गेहूं खेती के प्रभावित का खतरा -उत्तरी राज्यों में बुवाई प्रभावित, अकेले उत्तर प्रदेश में 10 लाख हेक्टेयर पीछे -खाद की कमी वाले राज्यों में डीएपी और एनपीके की कालाबाजारी नई दिल्ली। रबी सीजन की फसलों की बुवाई के शुरुआती सप्ताह में ही खादों की बढ़ी किल्लत सेगेहूं किसान सकते में हैं। देश में कुल तीन करोड़ हेक्टेयर रकबे में गेहूं की खेती होती है, लेकिन अभी तक केवल 49 लाख हेक्टेयर में ही गेहूं की खेती हो सकी है। किसानों को गेहूं बुवाई के लिए जरूरी डीएपी और एनपीके पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पा रही है, जिससे वह गेहूं बुवाई करने से हिचक रहा है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, हरियाणा और मध्य प्रदेश में गेहूं बुवाई के लिए जरूरी डीएपी और एनपीके की भारी किल्लत है। नवंबर के तीसरे सप्ताह में गेहूं की बुवाई 20 लाख हेक्टेयर पीछे चल रही है। इसमें अकेले उत्तर प्रदेश में गेहूं की बुवाई 10 लाख हेक्टेयर पीछे चल रही है। राजस्थान, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में भी बुवाई पिछड़ी है। गेहूं बुवाई में हो रहे विलंब से कृषि मंत्रालय की चिंताएं बढ़ गई हैं। बुवाई में देरी की वजह गिनाते हुए कृषि मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि खादों की किल्लत एक बड़ा कारण बन रहा है। गैर यूरिया खादों के मूल्य का तीन गुना तक अधिक बढ़ जाना भी किसानों के लिए बड़ी मुश्किल बन गया है। इसके बावजूद खादों की अनुपलब्धता गेहूं की खेती के लिए खतरा है। मंत्रालय के मुताबिक केंद्र सरकार खादों की उपलब्धता बनाने के लिए राज्यों से लगातार से संपर्क में है। कृषि मंत्रालय के मुताबिक रबी सीजन की खेती के लिए गेहूं उत्पादक राज्यों ने जितनी खाद की मांग की थी, लगभग उतनी आपूर्ति कर दी गई है। लेकिन किसी राज्य की ओर से अभी तक अतिरिक्त खाद की मांग नहीं की गई है। उवर्रक मंत्रालय के मुताबिक उत्तर प्रदेश ने पिछले रबी सीजन के 31 लाख टन के मुकाबले 34 लाख टन यूरिया और पिछले साल के 10 लाख टन के मुकाबले केवल नौ लाख टन डीएपी मांगा था। डीएपी की जगह सवा लाख टन अतिरिक्त एनपीके मांग लिया था। बिहार को यूरिया 11 लाख टन, डीएपी पौने तीन लाख टन, एनपीके दो लाख टन और एमओपी डेढ़ लाख टन की दी जानी है। खाद की यह मात्रा राज्य की मांग के मुकाबले कहीं कम है। हरियाणा को 11 लाख टन यूरिया और चार लाख टन डीएपी की आपूर्ति की चुकी है। राज्यों में खाद की मांग का आकलन केंद्रीय एजेंसियों ने किया है। -----------

शैवाल व सीपियों से बनी गठिया की दवा से दर्द छूमंतर

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---------- भारतीय वैज्ञानिकों ने बनाईं बिना साइड इफेक्ट वाली गठिया की दवाएं समुद्री मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान को कृषि मंत्रालय ने सराहा -------------------- नई दिल्ली। मुद्दतों से सुनते चले आए हैं कि गठिया है तो दर्द होगा ही। इस दर्द का कोई मुकम्मल इलाज नहीं है। इस जुमले को भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने झूठा साबित कर दिया है। उन्होंने समुद्री सीपों और शैवाल से ऐसी अनोखी दवा तैयार की है जो असहनीय पीड़ा से तड़पते गठिया रोगियों को दर्द से निजात दिलाएगी। शत-प्रतिशत प्राकृतिक होने की वजह के इस दवा का कोई साइड इफेक्ट नहीं है। गठिया यानी आर्थराइटिस के रोगियों के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आइसीएआर) के वैज्ञानिकों ने नायाब नुस्खा तैयार किया है। समुद्री सीपों और हरी शैवाल घास से तैयार उनकी दवाएं किसी भी अंग्रेजी दवा के मुकाबले अधिक कारगर साबित हुई हैं। पूर्ण रूप से प्राकृतिक होने की वजह से इन दवाओं का साइड इफेक्ट बिल्कुल नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरने के बाद इन दवाओं का पेटेंट भी करा लिया गया है। कोच्चि में केंद्रीय समुद्री मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान आइसीएआर का एक संस्थान है। यहां के वैज्ञानिकों को इस दवा को तैयार करने में लंबा समय लगा। बाजार में उपलब्ध देसी-विदेशी दवाओं से अस्थायी आराम ही मिलता है, साथ ये बहुत खर्चीली भी हैं। लेकिन अब भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के केंद्रीय समुद्री मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों के नायाब नुस्खे ने गठिया रोगियों में उम्मीद की किरण जगाई है। इन वैज्ञानिकों ने समुद्री शैवाल और सीपों से आर्थराइटिस की ऐसी दवाएं तैयार की हैं, जो न सिर्फ इस रोग के प्रसार को रोकने में कामयाब होंगी, बल्कि जिनका खर्च वहन करना भी आसान होगा। आइसीएआर के समुद्र मात्स्यिकी वैज्ञानिकों ने पहले सीप अथवा घोंघे (म्यूजेल्स) से गठिया की जो दवा बनाई तो वह कारगर तो रही, लेकिन उसे मांसाहारी मानकर शाकाहारी रोगियों ने खाने से मना कर दिया। इस पर सामुद्रिक मात्स्यिकी वैज्ञानिकों ने साल भर के भीतर ही समुद्री घास, हरी शैवाल से उतनी ही कारगर शाकाहारी दवाएं तैयार कर दीं। वैज्ञानिकों ने पाया कि सीपों के वही गुण इन हरी शैवाल में भी मौजूद हैं। इस तरह अब मांसाहारी और शाकाहारी दोनों के लिए आर्थराइटिस की कारगर दवाएं उपलब्ध हैं। दोनों के कैप्सूल और टिकियां तैयार हो चुकी हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक इन दवाओं के प्रयोग से असह्यï पीड़ा से तत्काल मुक्ति मिल जाती है। यह एस्पिरिन के मुकाबले कई गुना अधिक कारगर साबित हुई है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन दवाओं का कोई साइड इफेक्ट नहीं है। मालूम हो कि देश में 20 करोड़ से अधिक आबादी गठिया रोग की असह्यï पीड़ा सहने को मजबूर है। उनके लिए उपयुक्त दवाएं उपलब्ध नहीं हैं। ---------

समझौते के बाद भी केंद्र की मुश्किलें नहीं होंगी कम

-राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति को लागू करना भी राज्यों का अधिकार क्षेत्र -ज्यादातर मांगों का ताल्लुक राज्यों से, छह महीने में पूरा करने का वायदा ---------------- नई दिल्ली। सत्याग्रहियों से समझौता कर केंद्र सरकार भूमिहीन आदिवासियों को मनाने में भले ही सफल हो गई हो, लेकिन अब उसकी राह और कठिन हो गई है। राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति तैयार करने पर सहमति तो बन गई है, लेकिन जमीन संबंधी मसलों को सुलझाने के लिए राज्यों को ही आगे आना होगा। समझौता-पत्र में दर्ज मांगों में ज्यादातर का ताल्लुक राज्यों से है, जिन्हें पूरा कर पाना अकेले केंद्र के बस की बात नहीं है। और तो और, जो काम केंद्र सरकार अब तक नहीं कर पाई, उसे अगले छह महीने में पूरा करना होगा। आगरा के समझौता-पत्र में सभी 10 मांगों को पूरा करने के लिए समयबद्ध कार्यक्रम निश्चित किया गया है। इसी निर्धारित समय में केंद्र सरकार राज्यों को मनाएगी भी। गैर कांग्र्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और उनकी सरकारें भला केंद्र की मंशा कैसे पूरा होने देंगी? इससे आने वाले दिनों में राजनीतिक रार के बढऩे के आसार हैं। हालांकि भाजपा शासित मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक दिन पहले ही भूमिहीन आदिवासी और अनुसूचित जाति के लोगों की मांगों को पूरा करने के लिए तमाम वायदे दोनों हाथों से उलीचे समझौते के मुताबिक भूमिहीन आदिवासी और अनुसूचित जाति के लोगों के लिए राज्यों को जो कुछ करना है, उसमें एक दर्जन से अधिक मांगे शामिल हैं। एकता परिषद के नेता पीवी राजगोपाल का स्पष्ट कहना है कि केंद्र सरकार इन मांगों के लिए राज्यों पर दबाव बनाए। इसके लिए राज्य के मुख्यमंत्री, राजस्व मंत्री और उनके आला अफसरों के साथ विचार-विमर्श करे। मौजूदा नियम व कानूनों को धता बताकर बड़ी संख्या में आदिवासियों की जमीनों पर गैर आदिवासियों के कब्जे को हटाकर उन्हें उनका हक दिलाना एक बड़ी समस्या है। अनुसूचित जातियों और आदिवासियों को आवंटित जमीनों का हस्तांतरण करना भी राज्यों के अधिकार क्षेत्र का मसला है। उद्योगों को लीज अथवा अन्य विकास परियोजनाओं के लिए अधिग्रहीत जमीनों का बड़ा हिस्सा सालों-साल से उपयोग नहीं हो रहा है। खाली पड़ी इन जमीनों को दोबारा भूमिहीनों में वितरित करना होगा और आदिवासी और अनुसूचित जाति के लोगों की परती और असिंचित भूमि को सिंचित बनाने के लिए मनरेगा के माध्यम के उपजाऊ बनाने पर जोर देना होगा। बटाईदार और पट्टाधारकों को भी भूस्वामियों की तरह अधिकार हो, ताकि उन्हें बैंकों से कृषि ऋण आदि मिल सके। भूमि संबंधी सभी दस्तावेजों को पारदर्शी तरीके से ग्राम स्तर पर ही प्रबंधन किया जाए। भूमिहीनों के घर के लिए जमीनों का अधिग्रहण किया जाए। भूदान की समस्त भूमि का पुनर्सर्वेक्षण और भौतिक सत्यापन करके उस पर हुए अतिक्रमण को हटाया जाए। खाली हुई जमीन भूमिहीनों और वंचित वर्ग में वितरित की जाए। -----------

सत्याग्रहियों व केंद्र में समझौता, परसों आगरा में एलान

-ताज नगरी में 11 अक्तूबर को होगा समझौता पत्र पर हस्ताक्षर -दो दिनों की लंबी चर्चा के बाद 10 सूत्री समझौते को मिली मंजूरी भूमिहीन आदिवासी सत्याग्रहियों और सरकार के बीच दो दिनों तक चली वार्ता के बाद मंगलवार को समझौते पर सहमति हो गई। समझौता पत्र के प्रावधानों की घोषणा आगरा में 11 अक्तूबर को होगी। समझौते में सत्याग्रहियों की लगभग सभी मांगों को 10 सूत्रीय समझौते में समेटने की कोशिश की गई है। आगरा में आयोजित भूमिहीन आदिवासियों की प्रस्तावित जनसभा में उन्हीं के समक्ष समझौता पत्र पर हस्ताक्षर भी किए जाएंगे। ग्वालियर वार्ता के टूटने के बाद समझौते का दूसरा चरण राजधानी दिल्ली में तब शुरू हुआ, जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खुद पहल की। उन्होंने केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश को इसका दायित्व सौंपा और समझौता कराने तक वार्ता जारी रखने को कहा। इसका जिक्र सोमवार को पत्रकारों से हुई बातचीत में भी जयराम ने किया। दरअसल चार साल पहले इन्हीं आंदोलनकारियों की मांग को स्वीकार करते हुए प्रधानमंत्री सिंह ने राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद का गठन किया था, लेकिन आज तक इसकी एक भी बैठक नहीं हो सकी है। इससे आंदोलनकारी ज्यादा खफा हैं। सूत्रों के अनुसार समझौता पत्र में 10 मांगों को मंजूरी दी गई है। इसमें भूमि सुधार परिषद का पुनर्गठन, भूमिहीन आदिवासियों को आवास के लिए जमीन, भूमि संबंधी विवादों के निपटारे के लिए फास्ट ट्रैक ट्रिब्यूनल का गठन, मछुआरों, खेतिहर मजदूरों, नमक खेती मजदूर, कुष्ठ रोगी, बीड़ी मजदूर समेत अन्य अदृश्य समूहों को भूमि उपलब्ध कराने का प्रावधान शामिल किया गया है। आदिवासी व अनुसूचित जाति के लोगों की जमीन पर दबंगों का कब्जा हटाना, विनोबा भावे के भूदान में मिली जमीन का वितरण के लिए राष्ट्रीय स्तर की कमेटी का गठन करने का प्रावधान शामिल किया गया है। राज्यों से जुड़ी मांगों के लिए राज्यों को विस्तार से पत्र लिखा जाएगा। जरूरत पडऩे पर राजस्व मंत्रियों का सम्मेलन और मुख्यमंत्रियों के साथ बैठकों का सिलसिला शुरू किया जाएगा। इन मांगों पर चर्चा के बाद दोनों पक्षों की ओर सहमति बन गई है। सूत्रों ने बताया कि समझौते के मसौदे पर तो सोमवार को ही सहमति बन गई थी, लेकिन एकता परिषद के वार्ताकार परिषद के नेता राजगोपाल की हामी चाहते थे। दूसरी तरफ सरकार के वार्ताकार जयराम भी प्रधानमंत्री कार्यालय से मसौदे पर मुहर लगवाने के लिए एक दिन का और समय लिया। दोनों पक्षों के वार्ताकार मंगलवार को मिले और आधे घंटे में ही मसौदे को हरी झंडी दे दी गई। जयराम रमेश ने बताया 'उनके और सत्याग्रहियों के बीच लगभग सभी मुद्दों पर सहमति बन गई है। 11 अक्तूबर को आगरा में सत्याग्रहियों की सभा में सरकार समझौते के प्रावधानों का एलान करेगी।Ó उन्होंने उम्मीद जताई कि भूमिहीन आदिवासी प्रेम की ताज नगरी आगरा से ही अपने अपने घरों को लौट जाएंगे। ऐतिहासिक नगरी में जरूरत पड़ी तो दोनों पक्षों की ओर से समझौते पर हस्ताक्षर भी किए जाएंगे। सत्याग्रहियों की ओर से एससी बहर ने समझौैता हो जाने की पुष्टि कर दी है। ------------

सरकार नहीं रोक सकी लाख भूमिहीनों का कारवां

विशेष ग्वालियर। सरकार की साख गिरने के बाद अब भूमिहीन खेतिहर मजदूर भी उस पर भरोसा करने को तैयार नहीं हैं। ऐसे ही एक लाख पद यात्रियों को समझाने गए दो केंद्रीय मंत्रियों को ग्वालियर से आज खाली हाथ लौटना पड़ा। वजह सिर्फ यह थी कि चार साल पहले जब इसी दिल्ली में इन्हीं एक लाख लोगों ने जमघट लगाया था, तब प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद का गठन कर दिया गया था। चार साल बीत गए लेकिन परिषद की एक मीटिंग तक नहीं हुई। इसीलिए खफा भूमिहीन आदिवासियों ने फिर दिल्ली की ओर कूच कर दिया है। सरकार ने आज भी उनके साथ छलावा किया। ग्वालियर जाने वाली टीम में पहले मुद्दे से जुड़े चार बड़े मंत्रियों को जाना था, जिसमें नोडल मंत्री किशोरचंद्र देव भी शामिल थे। लेकिन वो नहीं भेजे गए। सिंधिया को तो ग्वालियर का होने के नाते भेजा गया। झोपड़ी बनाने भर को जमीन की मांग कर रहे भूमिहीन खेतिहर मजदूर और आदिवासियों का हुजूम केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक से शुरू होकर देश के 25 राज्यों के कुल 352 जिलों की पांच हजार किमी की पदयात्रा कर चुका है। ग्वालियर पहुंचे इन पद यात्रियों का फाइनल पड़ाव राजधानी दिल्ली है, जहां पहुंचने में 16 दिन और लगेंगे। इसका एलान उन्होंने बहुत पहले ही कर दिया था। लेकिन केंद्र सरकार की आंख तब खुली, जब इन गरीबों व मजलूमों का हुजूम दिल्ली के नजदीक आ धमका। पिछले साल डेढ़ साल से सिविल सोसाइटी के आंदोलनों से आजिज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एकता परिषद के नेतृत्व में दिल्ली की ओर बढ़ रही इस मुसीबत को रोकने का जिम्मा संबंधित विभागों के मंत्रियों को सौंपा। भूमि संसाधन, ग्र्रामीण विकास, आदिवासी मामले, सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता के मंत्रियों को इनसे वार्ता करने को कहा गया। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के नेतृत्व में बुधवार को किशोरचंद्र देव, मुकुल वासनिक और ज्योतिरादित्य सिंधिया को ग्वालियर जाना था। लेकिन ऐन वक्त पर सिर्फ जयराम रमेश और सिंधिया को चार्टर्ड हवाई जहाज से ग्वालियर भेजा गया। ग्वालियर के मेला मैदान में अनुशासित तरीके से बैठे लाखों भूमिहीन व आदिवासियों के समक्ष दो घंटे से अधिक चली भाषणबाजी के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकला। दरअसल जिस परिपत्र पर हस्ताक्षर होना था, उसे पेश नहीं किया जा सका। दोनों ओर से एक दूसरे के लिए विस्तार से लिखे पत्र जारी किए गए। सरकार की ओर से जहां 11 अक्तूबर को दिल्ली में एक और बड़ी बैठक का प्रस्ताव रखा गया, वहीं आंदोलनकारियों ने इसे स्वीकार करते हुए तब तक पदयात्रा जारी रखने का एलान कर दिया। पदयात्रियों को पटाने में केंद्रीय मंत्रियों का राजनीतिक व रणनीतिक कौशल काम नहीं आया। ------------ --------- दूध से जला, मट्ठा भी..... ---------------------- कहते हैं, दूध से जला म_ा भी फूंक फूंक कर पीता है। कुछ ऐसा ही केंद्र सरकार के साथ भी हुआ। ग्वालियर तक चढ़ आए आंदोलनकारियों को लौटाने के लिए जाने वाले केंद्रीय मंत्रियों का दल ऐन मौके पर छोटा कर दिया गया। पद यात्रियों ने इसे सरकार की पेशबंदी मानते हुए सही अर्थों में नहीं लिया और वहां गए केंद्रीय मंत्रियों को बिना समझौते के लौटा दिया। आंदोलनकारियों को सरकार की मंशा पर संदेह पैदा हो गया। उनका कहना था कि सरकार जानबूझकर लंबा समय खींच रही है। सूत्रों की मानें तो सरकार ने फजीहत के डर से मंत्रियों का बड़ा समूह वहां नहीं भेजा। क्योंकि बाबा रामदेव को मनाने के लिए तीन बड़े केंद्रीय मंत्री एयरपोर्ट पहुंचे थे, जिसे लेकर बड़ी थू थू हुई थी। --------------
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