Saturday, September 22, 2012
नामी बनिया सरनामी चोर
खुदरा क्षेत्र में कारोबार करने वाली विदेशी कंपनियों को दिया रास्ता
साल डेढ़ साल में आ धमकेंगी विदेशी दुकानें
हम इतने भी भोले नहीं कि आंखों के सामने पड़ी मक्खी को निगल जाएं। लेकिन सरकार है कि हमे बुद्धू ही समझती है। विदेशी कंपनियो को देश में खुदरा कारोबार करने की छूट देकर सरकार बड़ी हेकड़ी से किसानों और उपभोक्ताओं के भले गिना रही है। इतना ही रोजी रोजगार आने के सब्जबाग दिखा रही है। हमने जिसे सरकार बनाया उसने तो सारे फैसले कर लिए हैं। विदेशी दुकानों के आने का रास्ता खुल भी गया है। दुनिया की भारी भरकम कंपनी वालमार्ट ने अगले साल डेढ़ साल में यहां आ धमकने का ऐलान भी कर दिया है। भगवान करें वैसा ही हो सरकार जैसा कह रही है। लेकिन ऐसा भला होगा कैसे? देसी बड़ी कंपनियों की दुकानें तो पहले से ही देश के कई शहरों में खुल चुकी हैं। इनका अनुभव बहुत अच्छा तो नहीं रहा। यहां उधारी तो चवन्नी की नहीं मिल सकती।
शुरु में दुकानें खुलीं तो क्या साफ सफाई, वातानुकूलित माहौल, पहिये वाली ट्राली पकड़कर घूमतें मेम साहबें और कीमतें बड़ी वाजिब। अदरक, लहसुन, नीबू, धनिया, हरी मिर्च और पुदीने वाला चटनी पैक सिर्फ पांच रुपये में। कटा कटाया सलाद और न जाने कितने तरह की सब्जियां बड़े सस्ते में ले जाइए, गरम करिए और पेट पूजा। यहां मोजा-जूता से लेकर टाई और सूट मिल रहा है तो दुकान के दूसरे छोर पर दूध और आलू भी बिक रहा है। इलेक्ट्रानिक्स के सामान व गारमेंट के बड़े ब्रांड भी उपलब्ध हैं।
बस फिर क्या था, इनकी ख्याति नामी बनिया और सरनानी चोर की तरह फैलने लगी। भीड़ कुछ ऐसे उमड़नी शुरु हुई कि सामान खरीदने के बाद बिल बनवाने की होड़ लगने लगी। लेकिन यह सब कितने दिन चला। साल डेढ़ साल में ही लोगों का मोह भंग होने लगा। बदबूदार सब्जी मंडी की ओर ही लोगों ने रुख करना शुरु कर दिया। यह तो रही उपभोक्ताओं के हित अथवा अहित की बात। विदेशी खुदरा कंपनियों को लाने के हिमायती नेताओं से भला कोई क्यों पूछता कि आखिर उनका विरोध उनके ही देश में क्यों हो रहा है। इसके चलते उनके नए स्टोर अब नहीं खुल पा रहे है।
इसका दूसरा पक्ष किसानों के हितों का है। दावा है कि विदेशी कंपनी आएगी तो किसानों से ही तो उनके उत्पाद खरीदेगी, बिचौलिए नहीं होंगे तो माल सस्ता मिलेगा। अरे भाई। अब घरेलू कंपनियों के कामकाज पर नजर डालिए। शुरु में इन कंपनियों के ट्रक गांवों की ओर रुख किए। लेकिन थोक में खरीदने के चक्कर में औने-पौने भाव देने पर उतर आई। क्यों कि इन कंपनियों ने जिन्हें खेतों से सब्जियां खरीदने का दायित्व सौंपा था, वे खुद बिचौलिए की भूमिका में आ गए हैं। यानी किसानों को तो वही भाव मिल रहा है जिस भाव पर उसका माल व्यापारी खेतों से सीधे खरीदते हैं। किसान व उपभोक्ता दोनों इससे रोजाना रूबरू हो रहे हैं, इसके बावजूद सरकार को भला यह क्यों नहीं दिख रहा है। तभी तो मक्खी निकलने का दबाव बनाया जा रहा है।
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