Saturday, August 9, 2014

बैलों के कंधों से नहीं हट रहा खेती का बोझ


पढ़कर हैरान न हों, बिल्कलु सच आंकड़े हैं। देश की आधे से अधिक खेती अभी भी बैलों के भरोसे होती है। भारत के किसानों की यही नियति है। जहां जहां दुनियाभर के किसान मशीनों के जरिये आधुनिक खेती से उत्पादन में बढ़ोतरी करने में कामयाब हो गये हैैं, वहीं भारत के किसान आज भी गरीबी के कारण मशीनों के बजाय बैलों पर निर्भर हैं। देश की 14 करोड़ हेक्टेयर भूमि में आधे से अधिक पर खेती बैलों के सहारे होती है। राष्ट्रीय पशुगणना के आंकड़े चौंकाने वाले हैं, जिसमें बैलों के खेती की ओर लौटने का खुलासा हुआ है। छोटी जोत, महंगा डीजल और महंगे कर्ज के चलते भी मशीनों से खेती करना काफी मुश्किल हो गया है। लिहाजा किसान बाप-दादा के जमाने की परंपरागत खेती की ओर लौटने को विवश हुए हैैं। किसानों की जोत लगातार छोटी होती जा रही है, जिससे छोटे खेतों में मशीनों का उपयोग करना संभव नहीं हो पा रहा है। आधुनिक खेती के इस युग में बैलों का उपयोग घटने के बजाय कुछ क्षेत्रों में तो बढ़ा है। राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान (एनडीआरआई) के मुताबिक खेती में बैलों उपयोग से सालाना 16 हजार करोड़ रुपये की ऊर्जा की बचत हो रही है। एनडीआरआई के निदेशक एके श्रीवास्तव का कहना है कि बैलों की बढ़ती जरूरतों को पूरा करना तभी संभव होगा, जब घरेलू देसी प्रजाति की गायों का संरक्षण और समुचित विकास हो। इसके बगैर खेती के लिए बैलों की उपलब्धता संभव नहीं होगी। देसी नस्ल की गायों से ही अच्छे बैल मिलते हैं। विलायती क्रास प्रजाति की गायों के बछड़ों में कंधा ही नहीं होता है, जिस पर जुताई का जुआ रखा जा सके। खेती में बैलों की बढ़ती उपयोगिता का खुलासा पिछली पशुगणना के ताजा आंकड़ों से हुआ है। पशुधन में अव्वल बैलों से जुताई के साथ सामान की ढुलाई, सिंचाई और खेती के अन्य कार्य किये जाते हैं। पिछले दशकों में खेती में मशीनों के बढ़ते उपयोग के चलते बैलों व भैंसों की उपयोगिता घटकर न्यूनतम हो गई थी। लेकिन पशुगणना के ताजा आंकड़ों ने खेती की बदलती सूरत दिखाकर नीति नियामकों को हैरत में डाल दिया है। इन्हीं आंकड़ों के आधार पर सरकार ने डब्लूटीओ में अपने किसानों के हितों के साथ कोई समझौता करने को तैयार नहीं है।

Friday, February 14, 2014

इजराइल दौरे की दूसरी किश्तः



येरुसलम एक प्राचीन शहर, उसके आसपास ही प्राचीन सभ्यताएं पनपी। उसे येरुसलम की आबोहवा में महसूस किया जा सकता है। वहां के लोगों को अपना इतिहास संजोकर रखने आता है। उसका सम्मान करने आता है। यहूदी, इसाई और इस्लाम के धर्मावलंबियों के लिए यह अति पवित्र स्थल है। यहां उनका आना जाना लगा रहता है। होली वाल (पवित्र दीवार)और अल अक्सा के दीदार को हर कोई तरसता है, जिसका सौभाग्य हमे मिला। गलियों के आखिरी छोर पर मुस्लिम आबादी रहती है। यहीं कहीं एक गुफानुफा रेस्टोरेंट में हमने दोपहर का भोजन किया। शहर में शानदार म्युजियम भी है, जिसे न देखना बहुत बड़ी चूक होगी। शाम को येरुसलम की पंरपरागत मार्केट देखने निकले। रास्ते में चलते हुए सड़क पर मिल गई, मेट्रो टाइप ट्राम। खूबसूरत। सड़क की पटरियों के आसपास से गुजरने पर बेकिंग होते ब्रेड की सुगंध आ रही थी। कड़क काफी हवा में महक रही थी । मार्केट में अंदर घुसे तो पता चला सब्जी मंडी के साथ खाने पीने के सामान वाली दुकानें भी हैं। लेकिन न कहीं कचरा, न बदबू और न हल्ला गुल्ला । मछली भी बिक रही थी, लेकिन मछली बाजार की झांय झांय तो थी नहीं। सब कुछ करीने से साफ सुथरा, पैकिंग में बिक रहा था। हर तरह की सब्जी थी, मौसम की रोक रोट नहीं थी । यहां के किसानों ने मौसम को अपने काबू में कर रखा है। जब जो चाहते हैं उगा लेते हैं। क्या कुछ नहीं था। देख दाख कर लौटने लगे तो सर्द हवाएं सताने के अंदाज में लगने लगीं। वाह लेकिन चौराहे पर रंगीन फूलों ने रोक लिया। रेगिस्तानी रेतों के बीच रंग बिरंगे फूल खिलखिला रहे थे। ध्यान से देखा तो प्लास्टिक पाइपों का जाल और उसमें लगे ड्रिप इरिगेशन का पहला नमूना दिखा। इसके लिए इजराइल ने दुनिया में जाना जाता है।

इजराइल दौरे की पहली किश्तः


इजराइल की प्रौद्योगिकी दुनिया में अनूठी है । नन्हा सा देश, जो साइज में हरियाणा से भी छोटा और आबादी दिल्ली की सिर्फ एक तिहाई है। आबादी सिर्फ अस्सी लाख है। लेकिन वहां के लोगों का जज्बा और जुनून किसी से भी अधिक। सुरक्षा बंदोबस्त इतना तगड़ा कि सांस तक गिन लेते हैं वहां के सुरक्षा कर्मचारी। इजराइल जाना बिल्कुल आसान नहीं। मुझे इजराइल एंबेसी ने खुद वहां जाने का न्यौता दिया था। वहां का सारा खर्च, जिसमें आने जाने का हवाई किराया और रहने घूमने का सब कुछ शामिल था। दिल्ली में उसकी एंबेसी से दनादन वीजा मिल गया। जाने का पूरा इंतजाम हो गया। वहां की सुरक्षा एजेंसियां आपकोी बहुत जांच न करें कि आप तंग हो जाएं,इसके लिए एक खास तरह का टिकट यानी पास मुहैया कराया था। लेकिन वाह...हुआ क्या? फ्लाइट मुंबई से थी, लिहाजा वहां पहुंचा तो बाप रे....। बोर्डिंग पास तो बाद में मिलेगा, पहले इतनी कड़ी जांच परख कि सांस उखड़ जाए। ऐसे ऐसे सवाल कि आदमी पिनक जाए। एक-एक चीज को तार तार कर जांचा परखा गया। तब कहीं बोर्डिंग पास यानी टिकट मिला। जहाज में सवार होने से पहले भी पूछ पछोर...। चलिए जहाज में चढ़े तो सात आठ घंटे बाद तेलअवीव के डेविड बेन गुरियन हवाई अड्डे पर जहाज लैंड किया। उतरने के साथ कोई आधा किमी सुरंग टाइप का रास्ता बेल्ट पर पूरा कर इमीग्रेशन पर पहुंचे। जांच परख, पूछ पछोर के बाद एक टिकटनुमा पास दिया, जिसके कोडबार से गेट खुला और बाहर निकले । बाहर नाम की तख्ती लिए एक ड्राइवर खड़ा मिला, जो होटल क्राउन प्लाजा का था। छोटी बस से हमे कोई २५ मिनट की ड्राइव के बाद होटल पहुंचाया, जहां सब कुछ पहले से ही तय था। रिशेप्शन पर कुछ नहीं करना था। कमरे की चाभी लेकर कमरे में धमक गए। सुबह नौ बजे रिशेप्शन पर कोई मिलेगा, जो हमे आगे के तयशुदा गंतव्य पर ले जाएगा। सो गए। फिर जगे तो नाश्ता इंटरनेशनल स्टाइल का। साथ में गए पत्रकारों में मुझे छोड़कर लगभग सभी वेजीटेरियन थे। थोडी़ मुश्किल हुई। लेकिन जल्दी ही फल, सलाद, फ्रूट जूस और दुग्ध उत्पादों को देख उनके चेहरे खिल गए। निकल पड़े पहले दिन के पर्यटन पर। हम लोग येरुसलम शहर की दीदार को निकल गए। नया शहर कुछ नया नया पर जल्दी ही हम उस ऐतिहासिक गेट पर पहुंच गए जहां से पुराना शहर शुरु होता है। बताया गया कि १९७६ तक यह पुराना शहर जोर्डन के कब्जे में था। लेकिन छह दिनों की भीषण लड़ाई के बाद यह इजराइल के कब्जे में आ गया। सच में प्राचीन, धार्मिक और परंपरागत तौर तरीके देख दिल्ली का चांदनी चौक और बनारस की गलियां याद आने लगीं। ठेले पर बेक की हुई मोटी मोटी सफेद तिल से लिपटी ब्रेड बिक रही थी। तेज धूप पर सर्द हवा ओं का कब्जा था। उन गलियों से गुजरते हुए, जिसमें मिठाइयां, पकौड़ियां, काफी और चाय की सुगंध नथुनों में भर रही थीं। लोगों का काफिला शांत, मौन चुपचाप लेकिन बुदबुदाते होंठों से लोग गलियों में गुजर रहे थे। गलियों की फर्श का जिक्र न करना बेमानी होगा। उन्हीं चमकदार, चिकनी पर टेढ़े मेढ़े पत्थर इतिहास के गवाह थे।............
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