Friday, May 19, 2017
'वैज्ञानिक आम के, उगा रहे बांस
आईसीएआर की ऊलटबांसी
-गैर जरूरत वाली जगहों पर नियुक्त हैं सैकड़ों कृषि वैज्ञानिक
-बदलेगा रवैया, वैज्ञानिकों को अपने मूल संस्थानों में लौटना होगा
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सैंया भलेे कोतवाल तो डर काहे का, वाली कहावत यहां चौतरफा है। सिफारिशों के दौर में जहां जिसकी मरजी वहां हो गई नियुक्ति। तभी तो वैज्ञानिक आम के और उगा रहे बांस। इसी तरह गेहूं के वैज्ञानिकों को अनार के अनुसंधान में लगा दिया गया है। सैकड़ों वैज्ञानिक ऐसे अनुसंधान केंद्रों पर लगाए गए जहां उनकी विशेषज्ञता का उपयोग नहीं है। इस तरह की ढेर सारी उलबांसियों में कृषि मंत्रालय का भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद उलझा हुआ है। राजनीतिक, प्रशासनिक व अन्य दबावों के चलते ट्रांसफर-पोस्टिंग में संलग्न इस विभाग के अनुसंधान व विकास का मूल कार्य प्रभावित हो रहा है। लेकिन अब यह रवैया बदलेगा। सरकार ऐसे सभी वैज्ञानिकों को अपने मूल अनुसंधान केंद्रों पर भेजेगी।
मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने हैरानी जताते हुए कहा 'आम वाले वैज्ञानिक को बांस उगाने में लगा दिया गया है। अब यह नहीं चलेगा।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के एक सौ से अधिक कृषि अनुसंधान संस्थान व शोध केंद्र देश के विभिन्न क्लाइमेटिक जोन में हैं। कृषि मंत्रालय ने आईसीएआर में वैज्ञानिकों के ट्रांसफर की नीतियों में आमूल बदलाव किया है। इसके तहत अब स्थानांतरण में वैज्ञानिकों की विशेषज्ञता का पूरा ध्यान रखा जायेगा। फिलहाल आठ सौ कृषि वैज्ञानिकों को चिन्हित किया गया है, जिनका तबादला उनकी सुविधा के हिसाब से किया गया है। सूत्रों की मानें तो इनमें से एक सौ से अधिक ऐसे कृषि वैज्ञानिक हैं, जहां उनकी नियुक्ति हुई, वहां उनका कोई उपयोग ही नहीं है। कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह के नाराजगी जताने के बाद ट्रांसफर नीति में बदलाव किया जा रहा है।
नई स्थानांतरण नीति में तबादले के इच्छुक वैज्ञानिकों को पांच वर्गों में प्राथमिकता के रूप में विभाजित किया गया है। इसके तहत पहली श्रेणी में उन वैज्ञानिकों के स्थानांतरण पर विचार किया जाएगा, जो सुदूर और कठिन स्थितियों में लंबे समय से नौकरी कर रहे हैं। दूसरे वर्ग में पति पत्नी अगर अलग-अलग जगहों पर सरकारी नौकरी में हैं तो उन्हें एक ही शहर या संस्थान में नियुक्त किया जा सकता है। तीसरी श्रेणी में जो लंबे समय से एक ही जगह पर पड़े हुए हैं, उनका तबादला किया जायेगा। चौथी श्रेणी में सामान्य वर्ग के लोगों के लिए असामान्य परिस्थितियां होने की दशा में स्थानांतरण किया जा सकता है। यानी नियुक्ति की जगह, काल, उपयोगिता, जरूरत और परिस्थितियों का आकलन किया जायेगा।
कश्मीर, लेह, लद्दाख, पूर्वोत्तर के राज्यों और समुद्रों के भीतर स्थित द्वीपों के अनुसंधान केंद्रों पर जाने के लिए कृ षि वैज्ञानिक तैयार नहीं होते हैं। जबकि उनकी विशेषज्ञता वाले केंद्र व शोध संस्थान उन्हीं जगहों पर हैं। प्रस्तावित मानकों में सभी का ध्यान रखा जा रहा है। सिफारिश से मनमाफिक स्थान पर पोस्टिंग वालों को अपने मूल संस्थान में लौटना पड़ सकता है। लंबे समय से जमे लोगों को भी हिलाया डुलाया जा सकता है। ट्रांसफर नीति पूरी तरह से पारदर्शी बनाई जा रही है। हर कोई आन लाइन अपनी स्थिति का आकलन कर सकता है।
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Wednesday, November 18, 2015
गांवों में भी होती है कला, साहित्य व संस्कृति की खेतीः
Monday, October 26, 2015
Sunday, June 21, 2015
नखड़ुओं के संगी हैं हम, खबर सच्ची है
तीनों नखड़ू मेरे गांव के हैं। सभी अपने आप में अनूठे। सबसे छोटे नखड़ू प्राइमरी स्कूल गये तो लेकिन सतिराम मुंशी जी के डंडे के जोर से घबरा कर तौबा कर लिया और अब खेती किसानी और मेहनत मजूरी में जुट गये। जीवन सुख से चल रहा है। दूसरे नखड़ू, जिसकी संक्षिप्त चर्चा आगे करुंगा। वह कुछ अनूठे हैं। जिनकी चर्चा करने जा रहा हूं वह नखड़ू मुझसे सीनियर थे। कोई तीन चार चाल। बकौल उनके परिवार वालों के, नखड़ू बड़े होनहार थे। दो-तीन साल में एक क्लास पास करने में दो तीन साल से ज्यादा नहीं ही लेते थे। उनके बाकी भाई तो पढ़ाई के मैदान में खेत रहे। लेकिन नखड़ू पढ़ने से मुंह नहीं मोड़ा। 16 तक की करने में कोई २२ साल लगा दिये।
नखड़ू एक क्लास में कई-कई साल की मेहनत से एम.ए. तक की आखिरकार पढा़ई कर डाली। उन्हें सिर्फ पास भर का नंबर चाहिए था जो मिला। घर वालों का धैर्य चाहिए था, वह भी मिला। उनके पास होने पर बाजा बजता था। लड़ुआ बंटा। कई पीढ़ी बाद किसी ने इतनी ऊंची पढाई की थी। धूमधाम से शादी हुई। नखड़ू बड़े आदमी हो गये। इसीलिए खेतों में काम करना भी बंद कर दिया। कई साल तक एमए की खुमारी में डूबे रहे। नाते-रिश्तेदारी में घूमते रहे। गांव के उनकी जाति के टोले के सबसे पढ़ंकू बनने के चक्कर में बिरहा लचारी भी लिखने का शौक पाल लिया। लेकिन यह बिजनेस नहीं चला। लेकिन बच्चों की बढ़ती संख्या ने नखड़ू की अर्थ व्यवस्था को खराब कर दिया। भाइयों की नजर में नखड़ू जंग लगी मशीन दिखने लगे। लेकिन किसी रिश्तेदार के सहयोग से अपनी तहसील की कचहरी में नौकरी लग गई। तहसील के लेखपाल के चपरासी हो गये। लेखपाल खुद इंटर पास और नखड़ू एमए। नखड़ू के लिए यह भाग्य-भाग्य की बात है भइया। सरकारी नौकरी की आस अभी बाकी है।
बचपन में नखड़ू अमरुद को मरुद और आदमी को इदमी कहा करते थे। उनकी यह जबान आज भी गांव के नयी पीढ़ी के लड़कों के लिए आकर्षण है। तहसील क्या गये उन्हें राजनीति का माहिर मान लिया गया। उनका साहब (लेखपाल) किसी का खेत जब चाहे तभी घटा-बढ़ाकर नाप देता है। लेखपाल साहब से नखड़ू की सिफारिश काम आती है। फिर ठीक भी कराते हैं। रोजाना २० से २५ किमी साइकिल का लोहा पेरते तहसील जाते है। खुश बहुत हैं। नखड़ू की याद अनायास ही आई। नखड़ू को याद करने की कोशिश की है। अगली पोस्ट में दूसरे व अनोखे नखड़ू की चर्चा करुंगा, जो मोगली के बाप जैसे हैं......
Tuesday, April 14, 2015
पांच दिन से थाने में खड़ी मंत्री की गाड़ी
Monday, April 13, 2015
गुलाबी पगड़ी का खौफ
Saturday, August 9, 2014
बैलों के कंधों से नहीं हट रहा खेती का बोझ
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