Sunday, June 20, 2010

आर्सेनिक से दूषित बोरो धान पर पाबंदी की तैयारी

हड्डियों के कमजोर होने का खतरा, दांत पीले पड़कर गिरने का खतरा और ऐसे ही न जाने कितने और बीमारियों का अंदेशा। चौंकिये नहीं, हम धूम्रपान या नशीले पदार्थो की बात नहीं कर रहे। बल्कि यह मसला उस चावल का है जिसमें आर्सेनिक यानी संखिया के अंश मिले हैं। पूर्वी राज्यों के मुख्य भोजन में शामिल बोरो चावल आर्सेनिक की मौजूदगी के कारण खतरनाक हो चला है। यह जोखिम अन्य चावलों पर लागू नहीं होता है। सरकार ने यह चेतावनी उन राज्यों को दे दी है, जहां बोरो धान की सिंचाई आर्सेनिक युक्त भूजल से होती है।
पश्चिम बंगाल, असम, उड़ीसा, बिहार व पूर्वी क्षेत्रों में बोरो धान की खेती खरीफ की जगह रबी सीजन में होती है। पश्चिम बंगाल के कुल धान उत्पादन में बोरो धान की हिस्सेदारी 40 फीसदी है, जबकि असम में 35 फीसदी और बिहार में 20 फीसदी। असिंचित क्षेत्रों में नलकूप की सिंचाई के भरोसे पैदा होने वाले इस धान में आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर से अधिक पाई गई है। इसका कुप्रभाव भी वहां देखने को मिल रहा है। इस बारे में पश्चिम बंगाल के कृषि विभाग के प्रमुख सचिव संजीव अरोड़ा ने बताया कि बोरो धान की खेती नदियों की घाटियों में होती है।
अरोड़ा का कहना है कि दरअसल खरीफ सीजन में धान की खेती मानसूनी बारिश से तैयार हो जाती है, लेकिन रबी सीजन में बोरो धान के लिए सिंचाई की सख्त जरूरत होती है। देश के पूर्वी राज्यों में गहरे नलकूप नहीं हैं, इसकी जगह कम गहराई से खींचे गये पानी में आर्सेनिक जैसा खतरनाक तत्व घुला हुआ है। उसकी सिंचाई से तैयार धान में भी आर्सेनिक पहुंचता है। उन्होंने बताया कि पश्चिम बंगाल के 75 विकास खंडों में बोरो धान की खेती होती है। सरकार ने इसे चरणबद्ध तरीके से बंद करने की योजना तैयार की है।
असम के ब्रह्मपुत्र नदी के इलाके में बोरो धान की जबर्दस्त खेती होती है, लेकिन नदियों के किनारे लगे नलकूपों से आर्सेनिक युक्त पानी से पूरी फसल दूषित हो गई है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस सिंचाई से आलू की खेती पर आर्सेनिक का कोई असर नहीं है। यह समस्या सिर्फ बोरो धान में ही है। बिहार में गंगा व अन्य नदियों के किनारे के आर्सेनिक भूजल वाले इलाके में बोरो खेती अब खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है। बोरो खेती करने के विकल्पों में गहरे नलकूपों की जरूरत होगी, जिसके लिए किसान तैयार नहीं होते हैं। हालांकि केंद्र सरकार इसके लिए पर्याप्त सब्सिडी देने को राजी है।
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जलवायु परिवर्तन से सिर्फ नुकसान ही नहीं, नफा भी

जलवायु परिवर्तन के नुकसान ही नहीं फायदे भी हैं। कृषि क्षेत्र के जानकारों का दावा है कि भारत में खेती को इसका फायदा मिला है। वैश्विक स्तर पर गेहूं व चावल जैसे अनाज की पैदावार में बढ़ोतरी हुई है तो उसके पीछे जलवायु परिवर्तन का भी हाथ है। इस संबंध में हुए अध्ययन से यह तथ्य भी सामने आया है कि देश के कई हिस्सों का औसत तापमान बढ़ा तो कुछ जगहों पर घटा भी है। आईसीएआर के ताजा अध्ययन में इस तरह का खुलासा किया गया है।
कृषि मंत्रालय के अधीन भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने अपने हाल के एक अध्ययन में यह खुलासा किया है। जलवायु में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ने से गेहूं, चावल और तिलहन की फसलों को जहां बहुत फायदा हुआ है, वहीं मक्का, ज्वार, बाजरा और गन्ने की फसल के लिए यह फायदेमंद नहीं रहा है।
अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक मौसम में भारी उतार चढ़ाव का सीधा असर खेती पर पड़ा है। महाराष्ट्र में प्याज की खेती का खास अध्ययन किया गया, जिसमें 1997 की रबी फसल में तापमान के बहुत बढ़ जाने से प्याज में गांठ नहीं पड़ी। इसी तरह अगले साल 1998 में भारी बारिश हो जाने खेत में खड़ी प्याज की फसल में कई तरह की बीमारियों का प्रकोप हो गया और फसल चौपट हो गई। यह सब जलवायु परिवर्तन का प्रभाव था।
इसी तरह हिमाचल प्रदेश का सेब उत्पादक क्षेत्र बदल गया। कम सर्दी और बर्फ कम पड़ने के चलते फसल का क्षेत्र परिवर्तित होने लगा है। कई ऐसे नये क्षेत्रों लाहौल और स्पीति में सेब की खेती होने लगी, जहां नहीं होती थी। आईसीएआर के अध्ययन में 1901 से 2005 के बीच के जलवायु के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया, जिसमें पाया गया कि तापमान में वृद्धि पिछले पांच दशकों में सर्वाधिक हुई है।
आंकड़ों के विश्लेषण में हैरान करने वाले नतीजे सामने आये। देश के 47 प्रमुख स्थानों पर पिछले 50 सालों के तापमान के आंकड़ों में पाया गया कि केंद्रीय, दक्षिण और पूर्वोत्तर में तापमान बढ़ा है। इसके मुकाबले गुजरात, कोकण क्षेत्र, मध्य प्रदेश के पश्चिमोत्तर और पूर्वी राजस्थान का औसत तापमान घटा है।
2007 में गठित इंटर गवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के नतीजे के मुताबिक तापमान में तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से फसलों की उत्पादकता बढ़ सकती है। लेकिन आईसीएआर ने स्पष्ट किया है कि अगर तापमान इससे अधिक बढ़ तो खाद्यान्न की उत्पादकता पर विपरीत असर पड़ना तय है।
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Friday, June 4, 2010

कूपन की राशन प्रणाली से पैदा होगा नया तेलगी

खाद्य सुरक्षा कानून कितने गरीबों को दिया जाएगा? उनकी संख्या क्या है? जिस सार्वजनिक वितरण प्रणाली जरिये अनाज दिया जाना है वह तो ध्वस्त हो चुकी है। यह कहना है योजना आयोग के पूर्व सचिव व गरीबों की संख्या के आंकलन के लिए गठित कमेटी के अध्यक्ष डॉक्टर एन.सी. सक्सेना का। उनकी रिपोर्ट में देश की आधी ग्रामीण आबादी गरीबी रेखा से नीचे जी रही है। वह कहते हैं कि योजना का संचालन करने का वाला खाद्य मंत्रालय खुद इसकी जड़ें काटने में जुटा है। बढ़ती खाद्य सब्सिडी वित्त मंत्रालय की आंखों में खटकती रहती है। प्रस्तुत है डा. सक्सेना और सुरेंद्र की बातचीत के अंश।
गरीबों के आकलन के लिए गठित दूसरी कमेटियों से आपकी रिपोर्ट बिल्कुल अलग क्यों है?
बीपीएल की पहचान के तरीके बताने के लिए सक्सेना कमेटी बनाई गई थी। लेकिन बाद में गरीबों की संख्या का अनुमान लगाने को भी कह दिया गया। बहुत विस्तार में जाने के बजाय मैंने भारत सरकार के 1975 में बनाये मानक पर ही अमल किया। इसके मुताबिक 2400 कैलोरी से कम खाने वाले ग्रामीण गरीबी रेखा से नीचे माना गया है। इस मानक के आधार पर तीन चौथाई ग्रामीण बीपीएल वर्ग में हैं।
देश की 50 फीसदी आबादी को गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाला (बीपीएल) बताने के पीछे का क्या आधार है?
ग्रामीण क्षेत्रों के बॉटम गरीबों की 30 फीसदी आबादी में अनाज की खपत साढ़े आठ किलो मासिक है। जबकि टॉप 20फीसदी ग्रामीणों में अनाज की खपत 11.50 किलो मासिक है। बॉटम गरीबों को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, जिसके लिए उन्हें जरुरी प्रोटीन नहीं मिलता है। बराबरी पर लाने के लिए 50 फीसदी इन गरीबों को बीपीएल का लाभ मिलना ही चाहिए। गरीबों की संख्या को लेकर 60 सालों में भी कोई राय क्यों नहीं बन पाई। इस बारे में राज्यों की भूमिका क्या है?
ऐसा नहीं है। हर पांच साल बाद गरीबों की संख्या का निर्धारण होता है। वर्ष 2005 में गरीबों की संख्या 27.5 फीसदी तय थी, जिसे सही नहीं माना जा सकता है। योजना आयोग तेंदुलकर रिपोर्ट के आधार इसे बढ़ाकर 42 फीसदी मानने की बात कर रहा है। राज्यों के आंकड़ों को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश को ही लें। बांदा में भी उतने ही गरीब हैं, जितने मेरठ में हैं। अंतर जिलों की भिन्नता को नकार दिया गया है। तेंदुलकर रिपोर्ट को मानें तो उड़ीसा में गरीबों की संख्या 65 फीसदी हो जाएगी। लेकिन यह सभी जिलों पर लागू नहीं होगी।
केंद्र सरकार जिस राशन प्रणाली (पीडीएस) को ध्वस्त मानती है, उसी तंत्र के मार्फत बहुचर्चित खाद्य सुरक्षा कानून लागू होना है। यह कैसे संभव है?
पीडीएस सभी राज्यों में ध्वस्त नहीं हुई है। तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ से लेकर उड़ीसा तक अच्छी चल रही है। राशन प्रणाली जहां बहुत खराब है वे राज्य हैं, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली। हैरानी यह है कि केंद्र सरकार ने इसे सुधारने का कोई कारगर कदम उठाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। योजना आयोग की 2004 की रिपोर्ट के मुताबिक पीडीएस में 58 फीसदी लीकेज है। तब से सालाना 29 हजार करोड़ रुपये पानी में जा रहा है।
राशन प्रणाली के लिए केंद्र का निगरानी तंत्र क्यों विफल है?
फेल तो तब हो, जब कोई निगरानी तंत्र हो। केंद्र के पास कोई ऐसा तंत्र नहीं है। केंद्र की बाकी योजनाओं की सघन निगरानी होती है, सिर्फ सार्वजनिक राशन प्रणाली को छोड़कर। दरअसल, यह पीडीएस को बदनाम करने की एक बड़ी साजिश है, जिसमें खाद्य मंत्रालय शामिल है। मंत्रालय के अधिकारी खुद इसे बंद कराना चाहते हैं। भला ऐसे में प्रणाली में सुधार कैसे होगा। सभी बिगाड़ने में लगे है। अंदर-अंदर इसकी जड़ें काट रहे हैं। कृषि व वित्त मंत्रालय तो इसे फूटी आंखों नहीं देखना चाहते हैं। कृषि मंत्रालय का जोर जहां किसानों को फसलों के अच्छे मूल्य देने पर होता है, वहीं वित्त मंत्रालय खाद्य सब्सिडी बढ़ने से परेशान है। दोनों मंत्रालयों का उपभोक्ताओं के हितों से कोई लेना देना नहीं है।
गरीबों को सस्ता अनाज देने के लिए पीडीएस जरूरी है, पर इसमें सुधार के क्या उपाय हैं?
जिन राज्यों में पीडीएस अच्छा चल रहा है, उनका मॉडल दूसरे राज्यों में लागू करें। सस्ते गल्ले की दुकानें निजी डीलरों की जगह पंचायत, सहकारी समितियों और स्वयं सहायता समूहों को दिया जाना चाहिए। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ में ऐसा ही किया गया है। साथ ही राशन प्रणाली के दायरे में 30 फीसदी जगह ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल किया जाना चाहिए। छत्तीसगढ़ में 70 फीसदी, तमिलनाडु व कर्नाटक में 100 फीसदी लोगों को राशन दुकानों से अनाज दिया जाता है। विकलांग, विधवाओं, सेवानिवृत्त फौजियों व प्रभावशाली लोगों को दुकानों का आवंटन बंद होना चाहिए। हमारा सिस्टम बिल्कुल उल्टा है। इस योजना का मकसद ऐसे लोगों को कमीशन खिलाने की जगह उपभोक्ताओं का हित होना चाहिए।
पीडीएस को अनाज कूपन व बायोमीट्रिक प्रणाली से चलाने का क्या असर होगा?
कूपन का चलन आंध्र प्रदेश और बिहार है। इसके मार्फत गरीब अनाज उठाते हैं। लेकिन यह पीडीएस का विकल्प नहीं बल्कि एक अंग है। इसे शत प्रतिशत लागू किया गया तो कूपन तेलगी पैदा हो जाएगा। इससे सही आदमी की पहचान भर हो सकेगी। कर्नाटक व आंध्र प्रदेश में थंब इंप्रेशन का प्रयोग शुरु किया गया है। हरियाणा में बायोमीट्रिक सिस्टम शुरू होने वाला है। जिसे पायलट आधार पर तो चलाया जा सकता है लेकिन फिलहाल यह विकल्प नहीं बन सकता है।
गरीबों की संख्या और अनाज की मात्रा बढ़ाकर खाद्य सुरक्षा कानून लागू हुआ इतना अनाज कहां से आयेगा?
पर्याप्त अनाज है। देश की 60 फीसदी जनता को खाद्यान्न वितरित करना संभव है। प्रत्येक परिवार को 35 किलो के हिसाब से अनाज देने पर कुल चार करोड़ टन अनाज चाहिए। जबकि सरकारी खरीद 4.5 करोड़ टन होती है। अनाज कम नहीं है। समूची खाद्य व्यवस्था गंभीर कुप्रबंधन की शिकार है। समन्वित रुप से सोचने की जरूरत है।
खाद्य सुरक्षा कानून में कुछ कड़े प्रावधान भी शामिल किये गये हैं। वे कितने कारगर साबित होंगे?
मनरेगा में भी ऐसे कड़े प्रावधान हैं। खाद्य सुरक्षा कानून सामान्य तौर पर ठीक ही लगता है। लेकिन इसका संचालन करने वाले पीडीएस को कौन ठीक करेगा? कड़े प्रावधानों से कुछ नहीं होने वाला है। मनरेगा में सालभर में सिर्फ 15 दिन काम पाने वालों की संख्या एक करोड़ है। लेकिन केवल 43 लोगों को बेरोजगारी भत्ता मिल पाया। इस मुद्दे पर आखिर कोई क्यों नहीं बोल रहा है। दिल्ली में 8 फीसदी और मुंबई में 12 फीसदी गरीब सड़कों रहते हैं। जिनके पास राशन कार्ड नहीं है क्यों कि कार्ड के लिए स्थायी पता चाहिए। पहले तो ऐसे गरीब विरोधी आदेशों को समाप्त करना होगा।
गरीबों के जीवन स्तर में सुधार के लिए क्या उपाय चाहिए?
कृषि क्षेत्र पर ज्यादा जोर देकर निवेश बढ़ाना चाहिए। सिंचाई सुविधाएं बढ़ानी चाहिए। बिहार में सड़कें तो हैं, लेकिन बिजली न होने से सिंचाई भला कैसे होगी? देश के सभी जिलों में ब्लॉकों की स्थापना खेती को प्रोत्साहित करने के लिए की गई थी। लेकिन अब उसका पूरा ध्यान वहां हैं जहां पैसा व सब्सिडी है। कृषि मार्केटिंग को मजबूत करना होगा। फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ाने में कोताही नहीं होनी चाहिए। अनाज के दाम बढ़ने पर ही उत्पादकता बढ़ जायेगी। रोजगार सृजन के लिए लघु उद्योग क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
गरीबों के जीवन स्तर को जानने के लिए आपने पूरे देश का भ्रमण किया होगा। बदतर हाल कहां के हैं? गरीबों के जीवन स्तर में कुछ सुधार भी हुआ है?
देश के 50 फीसदी के लोगों का जीवन स्तर सुधरा है। जबकि पांच फीसदी लोगों के जीवन स्तर में उछाल आया है। बाकी फीसदी लोग घोर गरीबी में रह रहे हैं। गरीबी की हद उड़ीसा के कुछ इलाकों में है। महिलाओं के पास पूरे तन ढकने के कपड़े तक नहीं है। उत्तर प्रदेश के बांदा और चित्रकूट में गरीबी चरम पर है। बिहार व झारखंड में हालत ठीक नहीं है। मेवात में गरीबी है।
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