Sunday, September 29, 2013
गुड़ खाए गुलगुला से परहेज
'गुड़ खाए गुलगुला से परहेज' वाली कहावत हमारी सरकार पर खूब फबती है। जीएम फसल, यानी जनेटिक माडिफाइड बीज या नए तरह की फसलें। खेती में दुनिया के जिन देशों चीन व अमेररिका से हम अपनी तुलना करते हैं, उन देशों में आधुनिक प्रजाति वाली खेती धड़ल्ले से होती है। उनकी पैदावार हमारी पुरानी प्रौद्योगिकी वाले फसलों के मुकाबले पांच से छह गुना तक अधिक। फिर भी हमारे नीति नियामकों को यह नहीं भा रही है। उनके हिसाब से इस तरह की जीएम फसलों से कैंसर समेत न जाने कितने तरह के रोग फैल जाएंगे। इससे हमारी सेहत को खतरा है। बात सुनने में बहुत अच्छी लगती है। लेकिन है दोगली। भला कैसे? सुनें, सरकार के ही एक जिम्मेदार मंत्री की जुबानी। इस प्रौद्योगिकी के वह समर्थक हैं। सरकार के सहयोगी दल के मुखिया हैं। देश में सालाना एक करोड़ टन से अधिक खाद्य तेलों का आयात होता है, जिसमें पचास फीसद तक खाद्य तेल जीएम फसलों वाला होता है। दूसरी ओर देश में बीटी कपास की खेती होती है,ंजो कुल कपास खेती के रकबा का 95 फीसद तक पहुंच गया है। उसके बीज यानी बिनौले से खाद्य तेल निकलता है, जो यहां खाया जाता है। फिर जीएम खेती से परहेज क्यों?? सरकार में बैठे लोगों से कोई पूछने वाला नहीं है। एक पुख्ता तथ्य और है। भारत से सालाना लगभग 70 लाख लोग अमेरिका पर्यटन के उद्देश्य से जाते हैं। इनमें आम लोग नहीं होते हैं। ये लोग अमेरिका पहुंचकर क्या खाते हैं। वही जो वहां परोसा जाता है। कभी किसी होटल में गैर जीएम फूड का आर्डर नहीं दिया जाता है। फिर भारत के किसानों को इस प्रौद्योगिकी से दूर क्यों रखा जाता है। कहीं कोई साजिश तो नहीं। जीएम विरोधी एक वरिष्ठ मंत्री का एक तर्क सुनिए..अमेरिकी कंपनियां यहां आकर बिजनेस करना चाहती हैं। इससे अधिक कुछ नहीं। लेकिन उन्हें कौन बताए कि जब से यहां बीटी काटन की खेती होनी शुरु हुई, देश कपास के आयातक से निर्यातक बन चुका है। वह भी दुनिया का दूसरे नंबर का। दूसरा, विदेशी कंपनियों के आने पर रोक लगाने की बात तो दूर सार्वजनिक शोध संस्थानों के वैज्ञानिकों की खोजी गई ऐसी 23 नई प्रजातियां बनकर तैयार हैं, जो फार्म ट्रायल की अनुमति के इंतजार में हैं। बीटी बैगन तो जैसे गाली हो गया है। हौव्वा खड़ा कर दिया गया।
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समाप्त----
Sunday, March 3, 2013
कंपनियां करेंगी खेती, सरकार देगी मदद
आंखों देखी, न कि कानों सुनी...
Friday, February 22, 2013
सपना ही रहेगा गांवों को शहर बनाने का सपना
Tuesday, February 19, 2013
प्रधानमंत्री बनने का रास्ता कूछ यूं था....
एक दिसंबर 2012 को गुजराल के निधन पर
अठारह-उन्नीस अप्रैल 1997। आंध्र भवन इतिहास का हिस्सा बनने जा रहा है। प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के 11 अप्रैल को दिए गए त्यागपत्र के बाद यूनाइटेड फ्रंट नेताओं के घरों पर देर रात तक राजनीतिक गुफ्तगू की चलती रहती थी। उस समय यूनाइटेड फ्रंट की धुरी की भूमिका में हरिकिशन सिंह सुरजीत थे। सुरजीत और मुलायम के राजनीतिक रिश्ते जगजाहिर थे। सुरजीत ने चंद्रबाबू नायडू, माकपा, भाकपा एजीपी व जनता दल के नेताओं को मुलायम सिंह के नाम पर राजी कर लिया था। राजनीतिक सहमति हो जाने के बाद सुरजीत संभवत: 16 अप्रैल को मास्को उड़ गए और फिर दिल्ली में जो राजनीतिक दांव पेंच का खेल चला उसका गवाह बना आंध्र भवन।
सुरजीत के मास्को की उड़ान भरते ही उनकी बनाई सहमति को नजरंदाज कर लालू यादव, चंद्रबाबू नायडू, प्रफुल्ल महंत सहित और धड़ों ने मिलकर मुलायम के नाम पर न केवल पलीता लगाया बल्कि राजनीतिक रूप से और निरापद व्यक्ति की तलाश शुरू कर दी। इस खेमे ने राजनीति के जिस भद्र पुरुष को तलाशा वह थे इंद्र कुमार गुजराल। गुजराल के नाम पर ज्योति बसु को सहमत करने की जिम्मेदारी चंद्रबाबू को मिली जरूर, लेकिन उन्होंने कृष्णकांत से फौरन संपर्क साधा। कृष्णकांत उन दिनों आंध्र प्रदेश के राज्यपाल थे। चंद्रबाबू ने उनसे यह आग्र्रह भी किया कि कामरेड ज्योति बसु से गुजराल के नाम पर सहमति की मुहर लगवाने का प्रयास करें। देर रात तक हैदराबाद, कोलकाता और दिल्ली स्थित आंध्र भवन के बीच लगातार हाट लाइन पर बात होती रही।
एक बार गुजराल का नाम आते ही मुलायम सिंह ने सुरजीत सिंह से मास्को में संपर्क साधा और दिल्ली में आंध्र भवन में चल रही गहमागहमी व इनके नाम के खिलाफ चल रही साजिश की जानकारी दी। सुरजीत मास्को में भौंचक थे। उन्होंने चंद्रबाबू नायडू जो यूनाइटेड फ्रंट के संयोजक थे, उनसे संपर्क भी साधा। दोनों के बीच क्या बात हुई, इस पर कयास ही लगाया जा सकता है। 18/19 अप्रैल की पूरी रात आंध्र भवन में पंचायत चलती रही। 19 अप्रैल को तो गुजराल को नेताओं ने आंध्र भवन के एक कमरे में रोके भी रखा। अंतत: देर रात जब सहमति बनी, उस समय गुजराल आंध्र भवन के कमरे में सो चुके थे। उन्हें जगाकर उनके नाम पर सहमति और फैसले की जानकारी दी गई। साथ ही चंद्रबाबू नायडू को यह जिम्मा सौंपा गया कि वह मास्को में सुरजीत को लिए गए फैसले की जानकारी दें। उधर, सुरजीत नये घटनाक्रम के चलते अपना दौरा बीच में ही छोड़कर दिल्ली लौटने की तैयारी में थे। मास्को एयरपोर्ट पहुंचने पर उनकी चंद्रबाबू से बात कराई गई। बाबू ने साफ कर दिया था कि बहुमत गुजराल के पक्ष में फैसला कर चुका है। बाजी निकलते देख सुरजीत ने भी गुजराल के नाम पर मुहर लगा दी। फिर क्या था, प्रधानमंत्री बनने की शुरुआती दौड़ में आगे चल रहे मुलायम सिंह यादव अब पीछे छूट चुके थे। आंध्र भवन की इन्हीं बैठकों का फलीतार्थ था, 21 अप्रैल 1997 को इंद्र कुमार गुजराल का प्रधानमंत्री पद पर शपथ ग्र्रहण समारोह।
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