क्या कहूं होली आ ही गई। बड़ी इच्छा थी इस बार गांव जाऊं और महंगाई के इस दौर में हिल्ला-माटी, कीचड़, करिखा, बैटरी की कालिख और कोल्हू की पॉलिस से होली खेलूं। नरदावा के नरक से लेकर धूल और गोबर एक दूसरे पर फेंक कर होली खेलूं। लेकिन शहरी मजबूरियों के चलते एसा नहीं हो पाया। रात में होलिका फूंकूं और गोल-गोल घूमकर होलिका बाबा दीहा आशीष......बोलने वाली इच्छा धरी रह गई। बांस की कइन अथवा पतले बांस में लुक्क बांधकर गोल-गोल घुमाऊं। फिर कबीरा सररररररर गाऊं, न जाने कितने फूहड़-पातर गाली वाली कबीरा, गाये सालों नहीं दशक बीत गये हैं। न जाने कितनों के मड़ई और छान रातोरात उठाकर होलिका के हवाले कर दी जाती थी। होली भर कोई बुरा नहीं मानता था।
गांव की होली की एक याद कभी नहीं भूलती जब रात में होलिका दहन कर लौटते थे गांव में। तब गांव के चिन्हित दो तीन लोगों को निशाना बनाकर उनके घरों पर गोबर अथवा कचरा भरा (सनहन की गगरी) फोड़ा जाता है। फिर क्या था? गाली-गलौज का जो सिलसिला शुरू होता तो लोग हू हू हू हू कर हंसते और उस व्यक्ति के बाहर निकलते ही धूल व मिट्टी फेंकते फिर वही राग गर्भद में गालियों को बौछारें। इसका भी कोई माख नहीं लेता था यानी बुरा नहीं मानता था।
सुबह होते ही रंग छोड़ सभी बदरंग करने वाले खास बेरंगों से लोगों को रंगने की पंरपरा थी। इस दौरान फब्तियां कसने और चुटकी लेने की स्वस्थ चलन अब शायद गांवों से भी जाता रहा। दोपहर बाद की लंबी हुड़दंग के बाद शाम तीन चार बजते-बजते भांग का सालाना जलसा होता है, जिसमें सभी लोग बढ चढ़कर हिस्सा लेते थे। सुना है अब उसका स्थान शराब खासतौर पर कच्ची ठर्रा ने ले लिया है। भांग के नशे में शरीफ से शरीफ भी बौरा जाते थे। शाम होते ही भांग उतारने के लिए दही, अचार व नीबू की खोज हेर शुरू होती थी। खाने में गुलगुला और ठोकवा के साथ कचौड़ियां बनती थी, लेकिन अब इसकी जगह गांव-गांव में बकरे कटने लगे हैं। इसे पूरी तरह से खूनी खराबा वाला त्यौहार बन गया है। छानने की जगह अब पियक्कड़ों की टोली बन जाती है। तब भांग छानने को कोई बुरा नहीं मानता था और अब पीने (दारु) को बुरा मानना किसी की हिम्मत नहीं है। यह है बदलाव। गांवों में भी शहरों की गंध पहुंच गई है, चाहे शराब की हो अथवा त्यौहारों में खून खराब। खाओ, पीओ और होली मनाओ भइया अपनी तरह की । हमे जब मौका लगेगा तो गांव में होलू मनाने आउंगा। सुना है लोग गालीदार कबीरा का भी बुरा मानने लगे है। बाप रे होली में भी गाली को भला क्यों बुरा माना जाने लगा है? नंगई का बुरा क्यों? साल में एक ही दिन तो है जब यह सब एलाऊ है। लेकिन कक्का ने फोन पर बताया कि बच्चू बुरा क्यों न मानें, जब गाली-गलौज, मारपीट और भांग शराब और एसी सारी नंगई सालोभर होने लगे और मारे डर के कोई बुरा नहीं मानता। चुप्पी साधना ही मुनासिब समझता तो भला एक दिन तो बुरा मान लें। इसीलिए लोग कहने लगे हैं बुरा ही मानो होली है।
Sunday, February 28, 2010
Sunday, February 14, 2010
नखड़ुओं के संगी हैं हम, खबर सच्ची है
तीनों नखड़ू मेरे गांव के हैं। सभी अपने आप में अनूठे। सबसे छोटे नखड़ू प्राइमरी स्कूल गये तो लेकिन सतिराम मुंशी जी के डंडे के जोर से घबरा कर तौबा कर लिया और अब खेती किसानी और मेहनत मजूरी में जुट गये। जीवन सुख से चल रहा है। दूसरे नखड़ू, जिसकी संक्षिप्त चर्चा आगे करुंगा। वह कुछ अनूठे हैं। जिनकी चर्चा करने जा रहा हूं वह नखड़ू मुझसे सीनियर थे। कोई तीन चार चाल। बकौल उनके परिवार वालों के, नखड़ू बड़े होनहार थे। दो-तीन साल में एक क्लास पास करने में दो तीन साल से ज्यादा नहीं ही लेते थे। उनके बाकी भाई तो पढ़ाई के मैदान में खेत रहे। लेकिन नखड़ू पढ़ने से मुंह नहीं मोड़ा। 16 तक की करने में कोई २२ साल लगा दिये।
नखड़ू एक क्लास में कई-कई साल की मेहनत से एम.ए. तक की आखिरकार पढा़ई कर डाली। उन्हें सिर्फ पास भर का नंबर चाहिए था जो मिला। घर वालों का धैर्य चाहिए था, वह भी मिला। उनके पास होने पर बाजा बजता था। लड़ुआ बंटा। कई पीढ़ी बाद किसी ने इतनी ऊंची पढाई की थी। धूमधाम से शादी हुई। नखड़ू बड़े आदमी हो गये। इसीलिए खेतों में काम करना भी बंद कर दिया। कई साल तक एमए की खुमारी में डूबे रहे। नाते-रिश्तेदारी में घूमते रहे। गांव के उनकी जाति के टोले के सबसे पढ़ंकू बनने के चक्कर में बिरहा लचारी भी लिखने का शौक पाल लिया। लेकिन यह बिजनेस नहीं चला। लेकिन बच्चों की बढ़ती संख्या ने नखड़ू की अर्थ व्यवस्था को खराब कर दिया। भाइयों की नजर में नखड़ू जंग लगी मशीन दिखने लगे। लेकिन किसी रिश्तेदार के सहयोग से अपनी तहसील की कचहरी में नौकरी लग गई। तहसील के लेखपाल के चपरासी हो गये। लेखपाल खुद इंटर पास और नखड़ू एमए। नखड़ू के लिए यह भाग्य-भाग्य की बात है भइया। सरकारी नौकरी की आस अभी बाकी है।
बचपन में नखड़ू अमरुद को मरुद और आदमी को इदमी कहा करते थे। उनकी यह जबान आज भी गांव के नयी पीढ़ी के लड़कों के लिए आकर्षण है। तहसील क्या गये उन्हें राजनीति का माहिर मान लिया गया। उनका साहब (लेखपाल) किसी का खेत जब चाहे तभी घटा-बढ़ाकर नाप देता है। लेखपाल साहब से नखड़ू की सिफारिश काम आती है। फिर ठीक भी कराते हैं। रोजाना २० से २५ किमी साइकिल का लोहा पेरते तहसील जाते है। खुश बहुत हैं। नखड़ू की याद अनायास ही आई। नखड़ू को याद करने की कोशिश की है। अगली पोस्ट में दूसरे व अनोखे नखड़ू की चर्चा करुंगा, जो मोगली के बाप जैसे हैं......
नखड़ू एक क्लास में कई-कई साल की मेहनत से एम.ए. तक की आखिरकार पढा़ई कर डाली। उन्हें सिर्फ पास भर का नंबर चाहिए था जो मिला। घर वालों का धैर्य चाहिए था, वह भी मिला। उनके पास होने पर बाजा बजता था। लड़ुआ बंटा। कई पीढ़ी बाद किसी ने इतनी ऊंची पढाई की थी। धूमधाम से शादी हुई। नखड़ू बड़े आदमी हो गये। इसीलिए खेतों में काम करना भी बंद कर दिया। कई साल तक एमए की खुमारी में डूबे रहे। नाते-रिश्तेदारी में घूमते रहे। गांव के उनकी जाति के टोले के सबसे पढ़ंकू बनने के चक्कर में बिरहा लचारी भी लिखने का शौक पाल लिया। लेकिन यह बिजनेस नहीं चला। लेकिन बच्चों की बढ़ती संख्या ने नखड़ू की अर्थ व्यवस्था को खराब कर दिया। भाइयों की नजर में नखड़ू जंग लगी मशीन दिखने लगे। लेकिन किसी रिश्तेदार के सहयोग से अपनी तहसील की कचहरी में नौकरी लग गई। तहसील के लेखपाल के चपरासी हो गये। लेखपाल खुद इंटर पास और नखड़ू एमए। नखड़ू के लिए यह भाग्य-भाग्य की बात है भइया। सरकारी नौकरी की आस अभी बाकी है।
बचपन में नखड़ू अमरुद को मरुद और आदमी को इदमी कहा करते थे। उनकी यह जबान आज भी गांव के नयी पीढ़ी के लड़कों के लिए आकर्षण है। तहसील क्या गये उन्हें राजनीति का माहिर मान लिया गया। उनका साहब (लेखपाल) किसी का खेत जब चाहे तभी घटा-बढ़ाकर नाप देता है। लेखपाल साहब से नखड़ू की सिफारिश काम आती है। फिर ठीक भी कराते हैं। रोजाना २० से २५ किमी साइकिल का लोहा पेरते तहसील जाते है। खुश बहुत हैं। नखड़ू की याद अनायास ही आई। नखड़ू को याद करने की कोशिश की है। अगली पोस्ट में दूसरे व अनोखे नखड़ू की चर्चा करुंगा, जो मोगली के बाप जैसे हैं......
Wednesday, February 10, 2010
महंगाई भड़काने से राज्य सरकारें भी बाज नहीं आ रहीं
चीनी, चावल व गेहूं पर उच्चतम कर का लगा रखा है राज्य सरकारों ने
राज्य सरकारें कमरतोड़ महंगाई में भी करों का शिकंजा ढीला करने को तैयार नहंी हैं। प्रमुख खाद्य वस्तुओं पर करों की अधिकतम दरें वसूली जा रही हैं, जो महंगाई की मुश्किलों को और बढ़ा रही हैं। जरुरी खाद्य वस्तुओं पर करों का यह बोझ उत्तर से लेकर सुदूर दक्षिणी राज्यों में लगभग एक समान है। केंद्र ने महंगाई पर नियंत्रण पाने के लिए खाद्य वस्तुओं के आयात पर लगने वाले कर व शुल्कों को शत प्रतिशत माफ कर रखा है। सस्ती दाल व खाद्य तेलों की आपूर्ति के लिए प्रति किलो 10 से 15 रुपये प्रति किलो की सब्सिडी भी राज्यों को दी जा रही है लेकिन महंगाई को लेकर केंद्र पर निशाना साधने वाले राज्यों ने अपने करों में थोड़ी भी मुरव्वत नहीं की है। चीनी, दाल, गेहूं व चावल जैसी आवश्यक वस्तुओं पर इन सरकारों ने करों का चाबुक कस रखा है। यहां तक कि उत्तराखंड और झारखंड जैसे गरीब राज्यों में करों की उच्चतम दर वसूली जा रही है। जिन राज्यों अनाज दूसरे प्रदेशों से मंगाये जाते हैं, वहां तो इन करों के चलते हालात और भी खराब हो गये हैं। कृषि व खाद्य मंत्री शरद पवार के गृह राज्य महाराष्ट्र में जरुरी खाद्य जिंसो पर 7.5 फीसदी तक की दर से टैक्स वसूला जा रहा है। यहां गेहूं व चावल पर चार फीसदी के वैट के साथ अन्य कई तरह के टैक्स लगाये गये हैं। खाद्य वस्तुओं पर मूल्य वर्धित कर के साथ उपकर, खरीद कर, मंडी शुल्क व प्रवेश शुल्क लगाकर महंगाई को और भड़का रही हैं। पिछले कुछ महीनों में चीनी के भाव यूं ही 50 रुपये प्रति किलो पर नहीं पहुंच गये हैं झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में चीनी पर 12.5 प्रतिशत का वैट लगा हुआ है। जबकि हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडु चार फीसदी और बिहार में पांच फीसदी की टैक्स वसूली की जाती है। गेहूं, धान व चावल पर भी देश के लगभग सभी राज्यों में टैक्स वसूला जाता है। केंद्र सरकार लगातार राज्यों से महंगाई कम होने तक करों के प्रावधान को निलंबित रखने का आग्रह करता रहा है। लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। अनाज पर हरियाणा में 10.50 प्रतिशत, पंजाब में 12.50 प्रतिशत, राजस्थान में 8.10 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 8 प्रतिशत और आंध्र प्रदेश में 11.50 प्रतिशत टैक्स वसूला जाता है। ------------
राज्य सरकारें कमरतोड़ महंगाई में भी करों का शिकंजा ढीला करने को तैयार नहंी हैं। प्रमुख खाद्य वस्तुओं पर करों की अधिकतम दरें वसूली जा रही हैं, जो महंगाई की मुश्किलों को और बढ़ा रही हैं। जरुरी खाद्य वस्तुओं पर करों का यह बोझ उत्तर से लेकर सुदूर दक्षिणी राज्यों में लगभग एक समान है। केंद्र ने महंगाई पर नियंत्रण पाने के लिए खाद्य वस्तुओं के आयात पर लगने वाले कर व शुल्कों को शत प्रतिशत माफ कर रखा है। सस्ती दाल व खाद्य तेलों की आपूर्ति के लिए प्रति किलो 10 से 15 रुपये प्रति किलो की सब्सिडी भी राज्यों को दी जा रही है लेकिन महंगाई को लेकर केंद्र पर निशाना साधने वाले राज्यों ने अपने करों में थोड़ी भी मुरव्वत नहीं की है। चीनी, दाल, गेहूं व चावल जैसी आवश्यक वस्तुओं पर इन सरकारों ने करों का चाबुक कस रखा है। यहां तक कि उत्तराखंड और झारखंड जैसे गरीब राज्यों में करों की उच्चतम दर वसूली जा रही है। जिन राज्यों अनाज दूसरे प्रदेशों से मंगाये जाते हैं, वहां तो इन करों के चलते हालात और भी खराब हो गये हैं। कृषि व खाद्य मंत्री शरद पवार के गृह राज्य महाराष्ट्र में जरुरी खाद्य जिंसो पर 7.5 फीसदी तक की दर से टैक्स वसूला जा रहा है। यहां गेहूं व चावल पर चार फीसदी के वैट के साथ अन्य कई तरह के टैक्स लगाये गये हैं। खाद्य वस्तुओं पर मूल्य वर्धित कर के साथ उपकर, खरीद कर, मंडी शुल्क व प्रवेश शुल्क लगाकर महंगाई को और भड़का रही हैं। पिछले कुछ महीनों में चीनी के भाव यूं ही 50 रुपये प्रति किलो पर नहीं पहुंच गये हैं झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में चीनी पर 12.5 प्रतिशत का वैट लगा हुआ है। जबकि हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडु चार फीसदी और बिहार में पांच फीसदी की टैक्स वसूली की जाती है। गेहूं, धान व चावल पर भी देश के लगभग सभी राज्यों में टैक्स वसूला जाता है। केंद्र सरकार लगातार राज्यों से महंगाई कम होने तक करों के प्रावधान को निलंबित रखने का आग्रह करता रहा है। लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। अनाज पर हरियाणा में 10.50 प्रतिशत, पंजाब में 12.50 प्रतिशत, राजस्थान में 8.10 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 8 प्रतिशत और आंध्र प्रदेश में 11.50 प्रतिशत टैक्स वसूला जाता है। ------------
बढ़ती गर्मी सुखा न दे दूध की धारा
दूध उत्पादन में दुनिया के शीर्ष पर पहुंचा भारत का डेयरी उद्योग गंभीर खतरे की तरफ बढ़ रहा है। बिगड़ते मौसम का मिजाज अगले कुछ सालों में दूध उत्पादन में 15 से 18 लाख तक की कमी ला सकता है, जो देश को दुग्ध उत्पादन में अग्रणी बनाने वाले अभियान 'ऑपरेशन' फ्लड की हवा निकाल देगा। डेयरी वैज्ञानिक मान रहे हैंकि तापमान में एक से दो डिग्री की वृद्धि से जानवरों की प्रजनन और गर्भ धारण की क्षमता घट जायेगी। जिसका सीधा असर दूधके उत्पादन पर पड़ने वाला है। भारतीय एक अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिको के एक विस्तृत अनुसंधान यह चौंकाने वाला निष्कर्ष दिया है। दुग्ध व पशुधन विकास पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव' विषय पर पिछले आठ सालों से किये जा रहे अनुसंधान के मुताबिक आने वाले देश में दूध उत्पादन में भारी कमी आ सकती है। तापमान एक से दो डिग्री सेल्सियस बढ़ने पर गाय व भैंसों के गर्भधारण पर भी विपरीत असर पड़ेगा। इस शोध के तहत करनाल, झांसी, बंगलौर, हिसार और कल्याणी अनुसंधान संस्थानों में दुधारु पशुओं की दूध उत्पादकता और तापमान के बीच संबंधों का विस्तृत अध्ययन किया गया। पिछले आठ सालों के बाद देश के अलग-अलग 103 जगहों पर दुधारु पशुओं से संबंधित आंकडे़ तैयार किये गये। इसके मुताबिक सूरज की तपिश बढ़ने के साथ ही पशुओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर को देखा गया। सामान्य रुप से भी गरमी व उमस वाले महीने मई, जून और जुलाई में गाय व भैंसों में गर्भ धारण की क्षमता घट जाती है। जबकि अक्तूबर से दिसंबर के बीच यह आंकड़ा उच्चतम स्तर पर रहता है। वैज्ञानिक मान रहे हैं कि तापमान बढ़ने से पशुओं में साल के बहुत छोटे समय के दौरान गर्भधारण हो सकेगा गर्मी के मौसम में दूध की कमी व कीमतों मे वृद्धि अब लगभग हर साल का प्रसंग हो गई है। शहरों के फैलने के कारण पशुओंके चारागाह समाप्त हो रहे हैं, दूसरी तरह अनाज कमी के कारण नियमित खेतों में चारे की खेती भी घट रही है। जिससे पशुपालन पर असर पड़ा है।
Monday, February 8, 2010
ब्लॉग की दुनिया में....
बड़ा गजब जलवा है यहां का तो। सोचा। और यहां कुछ लिखा। बस फिर क्या था देखते ही देखते ही इसका प्रसार न जाने का कहां तक हो जाता है। अजब-गजब की प्रतिक्रियाएं। सोचने व समझने के नये-नये एंगल। भला हो एसे माध्यम का। नया हूं। कहने या लिखने के मामले में नहीं। सिर्फ यहां कुछ टांकने के मामले में। धड़ल्ले से लिखने में सहज बात सहज तरीके से नहीं निकल पा रही है। हालांकि कोशिश करुंगा कि जल्दी ही रवां हो जाऊं। खेती-बारी, खान-पान, चूल्हा चौके का हिसाब-किताब ही नहीं कुछ और भी बताने की कोशिश करुंगा। संभव है गलत भी हो। लेकिन कोशिश रहेगी बिना किसी तकल्लुफी के कहने की। गांवों की माटी की महक भूला नहीं हूं। महानगर की गंध झेल रहा हूं। दोनों से से आपको भी रुबरु कराने का प्रयास होगा। बस इतना ही....
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