Tuesday, March 30, 2010

आईपीएल टीम बनाम दूसरी हरितक्रांति

दूसरी हरितक्रांति और दलहन विकास के लिए सिर्फ ७०० करोड़ रुपये का सरकार ने बजट में प्रावधान किया है। जबकि आईपीएल की एक टीम १७०२ करोड़ रुपये में बिकी है। यह गरीबों व भुखमरी के शिकार लोगों का देश है??????? खाद्यान्न की महंगाई ने जहां लोगों की रसोई का बजट खराब कर दिया है और गरीबों के पेट भरने के लाले पड़े हैं। महंगाई पर चर्चा कराने को लेकर पक्ष-विपक्ष की झांय-झांय में कई दिनों तक संसद नहीं चली। आईपीएल की २०-२० क्रिकेट में टीम खरीदने की होड़ देखकर भला कौन कहेगा यह गरीबों का देश है। लोगों को सस्ता खाद्यान्न और किसानों को उसकी उपज का उचित मूल्य दिलाने के वादे वाले सरकारी बजट को आईपीएल की बोली मुंह चिढ़ा रही है। यह मजाक नहीं तो भला क्या है? देश,समाज व सरकार की प्राथमिकता क्या है और क्या होनी चाहिए कौन तय करेगा?
कहते हैं, महंगाई को ठंडा करने के लिए वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने दलहन की उपज बढ़ाने को 300 करोड़ की घोषणा कर संसद में खूब वाहवाही लूटी। लोगों को बताने के लिए सरकार महंगाई से आजिज है। इसीलिए
दलहन व तिलहन की उपज बढ़ाने का फैसला किया है। वित्तमंत्री मुखर्जी ने बजट भाषण में जोर देकर कहा था कि आजादी के 60 सालों बाद भी दाल व तेल के मामले में देश आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। इसके लिए आम बजट में 300 करोड़ रुपये की लागत से 60 हजार गांवों को दलहन व तिलहन गांव के रुप में विकसित किया जायेगा। असिंचित क्षेत्रों से ऐसे गांवों का चयन किया जायेगा। इससे जल संरक्षण, संचयन और मिट्टी की जांच भी की जायेगी। उनकी इस घोषणा पर संसद में सत्ता पक्ष ने जमकर मेजें भी थपथपाई थी।
बजट के इस प्रावधान से प्रत्येक गांव के हिस्से 50 हजार रुपये आयेगा, जिस पर योजना के सफल होने पर संदेह है।
सरकार की इस योजना की "गंभीरता" पर कृषि संगठनों ने भी सवाल खड़ा किया। दरअसल, दलहन खेती की जमीनी मुश्किलों से सरकार वाकिफ नहीं है। दलहन खेती के लिए उन्नतशील बीज, वास्तविक न्यूनतम समर्थन मूल्य और जंगली जानवरों से मुक्ति के उपाय करने होंगे। नील गायों की बढ़ती संख्या ने दलहन खेती को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, खासतौर पर अरहर और उड़द को। प्रोटीन वाली दलहनी फसलों में रोग भी बहुत लगते हैं। देश में उन्नतशील प्रजाति की दलहन फसलो के बीज हैं और न ही इसके लिए जरूरी खादों का उत्पादन होता है। मजेदार यह है कि दलहन खेती के लिए जरूरी सिंगल सुपर फास्फेट और फास्फोरस वाली खादें बनती ही नहीं है। क्यों कि खाद कंपनियों को इसमें फायदा नहीं होता। दलहन फसलों की खेती भी वहीं होती है जहां की जमीन सबसे खराब होती है। किसान जानबूझकर अच्छे खेतों में इसकी बुवाई नहीं करता है। खासतौर पर इसकी खेती असिंचित क्षेत्रों में ज्यादा होती है। भला कहां से बढ़ेगी दलहन की उत्पादकता? उत्पादकता का आलम यह है कि हम बांग्लादेश और श्रीलंका से भी पीछे हैं।

सरकारी जांच के भरोसे पियेंगे पानी तो......

गरमी चरम पर मार्च में ही पहुंचने लगी है। तभी तो कुएं की पेंदी मे बेवाई फटने लगी है। ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल के बाकी स्रोतों के हाल बिगड़ने लगे हैं। दूषित पानी पीने को लोग मजबूर हैं। लेकिन पानी की जांच का बुरा हाल है। जैविक व रासायनिक तत्वों के लगातार घुलने से हालात बिगड़ने लगे हैं। तभी तो.....
अपने गांव व मुहल्ले के कुएं अथवा हैंडपंप से पानी पी रहे हों तो खुद जांच परख कर ही पियें। सरकार के भरोसे नहीं। सरकार साफ पेयजल देना तो दूर वह आपको पेयजल की गुणवत्ता भी नहीं जांच सकती। पूरे देश में जिला मुख्यालय के नीचे ऐसा कोई तंत्र नहीं है जो पानी की गुणवत्ता जांच सके। 14 राज्यों के 50 से अधिक जिला मुख्यालयों पर भी यह सुविधा नहीं है।
केंद्र सरकार ने वर्ष 2012 तक सबके लिए स्वच्छ पेयजल आपूर्ति की घोषणा की थी। लेकिन केंद्र से लेकर राज्य सरकारों की सुस्त चाल से साफ पानी पिलाने का वादा पूरा होता नहीं दिख रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की जांच के लिए सालाना 1.60 करोड़ नमूनों के परीक्षण होने चाहिए लेकिन राजीव गांधी पेयजल मिशन के तहत हुए सर्वेक्षण के ताजे आंकडे़ बताते हैं जिला मुख्यालयों में पानी की जांच के लिए बनी प्रयोगशालाओं में से 70 फीसदी निष्क्रिय हैं। उनमें न आधुनिक उपकरण हैं और न ही पर्याप्त कर्मचारी।
सबसे बुरा हाल उत्तरी क्षेत्र के राज्यों के भूजल का है, जहां पानी में फ्लोराइड, आर्सेनिक, नमक, लोहा और नाइट्रेट जैसे घातक तत्वों की मात्रा बहुत अधिक है। गंगा व यमुना के मैदानी क्षेत्रों के भूजल में उत्तराखंड से लेकर पश्चिम बंगाल तक खतरनाक तत्व मिले हुए हैं, जिसे पीने से यहां के लोगों में कई तरह की बीमारियां हो रही हैं। पंजाब व हरियाणा के भूजल में सोडियम, नाइट्रेट और अन्य घातक तत्वों की मात्रा घुली हुई है। हाल के एक सर्वेक्षण रिपोर्ट में राज्यों के जल निगमों व आापूर्ति विभागों पर टिप्पणी की गई है।
राजीव गांधी पेयजल मिशन आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड के 13 जिलों में से 10 जिला मुख्यालयों पर अभी तक पानी की जांच की सुविधा नहीं है। परीक्षण प्रयोगशाला खोलने में उत्तराखंड, पंजाब, नगालैंड, जम्मू-काश्मीर, चंडीगढ़, बिहार और महाराष्ट्र फिसड्डी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और झारखंड में जिला मुख्यालयों पर प्रयोगशालायें तो हैं लेकिन वहां जांच शायद ही होती है।
--------

Monday, March 22, 2010

पूर्वांचल की बेहाली पर सिर्फ उफ् उफ्...

पूर्वांचल का नाम आते ही जेहन में अपराध, अपराधी, गोली, बंदूक, राइफल, आतंक और आतंकी उभरने लगते हैं। संजरपुर, सैदपुर, आजमगढ़, गाजीपुर व मऊ दिखने लगता है। न बनारस का विद्वत मंडल न मऊ की अद्भुत रेशमी साडि़यों के ताने-बाने और न जौनपुर की शान सुनाई पड़ती है। जिला जवांर, गांव-गिरांव और कस्बे व चट्टियों के मोड़ और चौराहों पर चौतरफा अपराध व अपराधियों की चर्चा आम है। यानी, लोगों में चर्चा का विषय यही सब है। वजह जो भी हो, लेकिन सबसे बड़ी वजह है बेरोजगारी, गरीबी और बदलते परिवेश वाली शिक्षा का अभाव। कहने को कहा जाता है, सघन शिक्षालयों की भरमार है। बनारस में तीन विश्वविद्यालय और न जाने कितने महाविद्यालय हैं। पड़ोस के जौनपुर में पूर्वांचल विश्वविद्यालय, कोई २०० किमी दूर गोरखपुर विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय। इनसे जुड़े सैकड़ों की संख्या में महाविद्यालय। सब कुछ तो है। इससे इनकार कौन कर सकता है। रोजी-रोटी की जरूरत वाली शिक्षा का अभाव है। आगे बढ़ने के प्रयास अभी भी शुरु नहीं हो सका है। कुछ निजी संस्थान खुले जरूर लेकिन गुणवत्ता के स्तर पर बहुत पीछे हैं। यानी शिक्षा के स्तर पर आगे रहने वाला पूर्वांचल पिछड़ रहा है। ध्यान किसी का आखिर इस ओर क्यों नहीं है। समाज को आगे लेने जाने वाला दूसरा वर्ग राजनीतिकों का है जो गर्त में समाता जा रहा है। ग्राम प्रधानी, ब्लॉक प्रमुखी, जिला परिषदी ही नहीं विधा्यक और सांसद भी अपराधी चुने जाने लगे हैं। बड़े शान से लोगों में उन्हीं चर्चा भी होती है। अफजल, मुख्तार, उमानाथ, रमानाथ, धनंजय, हरिशंकर, शाही और न जाने कितनों के नाम हैं, जिनके नामों को चौराहों की दुकानों पर महिमामंडित किया जाता है। युवा वर्ग उन्हीं से प्रेरणा भी लेता है। बस हो गया कल्याण? गिरावट का अंदाजा लगाया जा सकता है। सभी विकास के कार्यों में परसेंट यानी हिस्सा मांगते हैं। यही उनकी हनक भी है। गिरावट इस स्तर तक पहुंच गई है, जो लोगों में घर करते जा रही है। रोकने वाला कोई नहीं है। राजनीति के मार्फत जिन्हें नेतृत्व करना था, उस पर इन अपराधियों का कब्जा है। कबीर, गौतम बुद़ध और गुरु गोरक्ष के इस पूर्वांचल में अब दुख ही दुख है। इसके माथे पर कहीं संजरपुर है तो कहीं गरीबी, बेकारी और भुखमरी का कलंक। पूर्वांचल की उपेक्षा पर यहां के लोग भी शायद ही सोचते हैं। और सोचते हैं तो फिर मन मसोस कर उसी भीड़ का हिस्सा बन जातें हैं तो इन अपराधियों का रोज सुबह-शाम महिमामंडित करती रहती है। मैं आपको पूर्वजों की गौरवगाथा सुनाकर अपना ज्ञान नहीं परोसना चाहता, जिससे शायद सभी परिचित हैं। ब्यूरोक्रेशी में अपनी मजबूत पैठ के बूते हम पूरे देश में जाने जाते थे। अपने ज्ञान-विज्ञान के लिए। लेकिन अब तो हालात बिगड़े नहीं बल्कि बदतर हो गये हैं। गरीबों की एक बड़ी फौज रोजाना ट्रेन में लदकर दिल्‍ली, मुम्‍बई, कलकत्‍ता अथवा हरियाणा के शहरों की ओर रुख कर देते हैं। लेकिन वहां भी दुख ही उठाते हैं। लेकिन यह दुख तब और बढ जाता है जब परदेस गये युवा एड़स लेकर लौटते हैं। उनकी ही नहीं बल्कि युवा पत्नियों की जवानी तिल-तिल कर मरने लगती है।यह सब क्‍यों हुआ। सवालों का ढेर आज बस पूर्वांचल के दुखों को और बढ़ा रहा है, जिसका जवाब भला कौन देगा? वो नेता जो पूर्वांचल के अलग राज्य की मांग रख रहे हैं? झूठ-फरेब और झूठ.....। झांस में तो आ चुका है पूर्वांचल। अपराधियों के, धूर्त और मूर्ख राजनीतिकों के। इससे जाल बट्टे से निकलने में भी बड़े पेंच हैं।


Monday, March 15, 2010

भंडार भरे हैं पर पेट खाली

सरकारी भंडारों में निर्धारित मानक से तीन गुना ज्यादा अनाज, पिछले साल से बेहतर चीनी सत्र और सस्ते खाद्य तेलों की पर्याप्त उपलब्धता!... इसके बाद भी महंगाई मार रही है। यानी भंडार भरे हैं पर पेट खाली हैं। गरीबों की रसोई में आटे का डिब्बा खाली है। सरकारी गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं है। सरकारी खाद्य प्रबंधन पूरी तरह फेल है। महंगाई पर चर्चा का जवाब देते हुए संसद में चीनी की कीमतों में व़ृद्धि के बहाने प्रधानमंत्री ने इसे असफलता को स्वीकार भी कर लिया। उचित समय पर सही निर्णय लेने में खाद्य मंत्रालय से भी लगातार चूक हुई है। यही कारण है कि भंडारों में ठसाठस भरे अनाज के बावजूद वह महंगाई रोकने में इसका इस्तेमाल नहीं कर सका है। खुले बाजार में हस्तक्षेप करने की सरकारी नीतियों पर समय पर अमल नहीं करने से हालात और बिगड़ गये हैं। चीनी मिलों को कोटा जारी करने और उस पर सख्ती बरतने में भी चूक हुई है। कोटा इस्तेमाल को लेकर जब चीनी मिलों पर कड़ाई करने का समय था तब सरकार चीनी की कीमतों में स्वभाविक तौर पर कमी होने का इंतजार करती रही।अनाज भंडार इस कदर भरे हैं कि रबी का अनाज रखने की चुनौती है। लेकिन इन भरे गोदामों से महंगाई कतई नहीं डरती। एक जनवरी 2010 को सरकारी भंडारों में गेहूं 230 लाख टन था, जो निर्धारित बफर मानक 82 लाख टन से लगभग तीन गुना अधिक है। इसी तरह चावल 242 लाख टन था, जो बफर मानक 118 लाख टन से बहुत अधिक है। चीनी के इतने भड़कने की कोई वजह नहीं है। पेराई सत्र शुरु होते समय चीनी का कैरीओवर स्टॉक 24 लाख टन था। चालू पेराई सत्र में 160 लाख टन से अधिक चीनी उत्पादन का अनुमान है। घरेलू खपत के लिए 230 लाख टन चीनी चाहिए। कमी को पूरा करने के लिए 50 लाख टन चीनी का आयात सौदा पक्का हो चुका है। दूसरे शब्दों में कहें चालू वर्ष के लिए चीनी का पर्याप्त स्टॉक देश में है, फिर भी इसकी कीमतें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं।अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मंदी के चलते घरेलू बाजार में भी खाद्य तेलों के मूल्य लगभग स्थिर है। आयातित खाद्य तेल का स्टॉक भी पिछले साल के 65 लाख टन के मुकाबले 85 लाख टन तक पहुंच चुका है। यानी जिंस बाजार में दाल को छोड़कर किसी और खाद्यान्न की उपलब्धता कम नहीं है। खाद्य मंत्रालय के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि आखिर इतने मजबूत आंकड़ों के बावजूद महंगाई बढ़ने की वजह क्या थी?---------

Sunday, March 14, 2010

जो कुछ देखा पार्लियामेंट में..हैरानी, हैरानी और बस हैरानी

जो कुछ देखा पार्लियामेंट में। सिर्फ हैरानी, हैरानी और हैरानी ही हुई। शायद इसके पहले किसी ने नहीं देखा होगा। राज्यसभा का संसदीय इतिहास तो यही बता रहा है। मैं अंदर ही था, अपने संस्थान के लिए कवरेज पर था। कोई घटना चूक न जाये। इसलिए नजरें चौतरफा चौकस थीं। भरे बोरे के माफिक मार्शल माननीयों (सांसद) को उठाकर बाहर ले जा रहे थे। वो भी कम नहीं थे। चिल्लपों मचा ही रहे थे। धींगामुश्ती अलग से। समाजवादी पार्टी के एक सांसद कमाल अख्तर तो हिंसक भी हो उठे। शोर शराबा कर रहे पांच सांसदों को जब मार्शल बाहर तो उठा ले गये, लेकिन अख्तर विपक्ष की पहली कतार वाली बेंच में खड़े कुछ वरिष्ठ सांसदों के बीच घुस गये। निकलने का नाम ही न लें। राज्यसभा की पूरी वेल मार्शलों से भरी हुई थी। चारो ओर वही दिख रहे थे। चिरौरी-मिन्नत के बाद भी अख्तर बाहर नहीं आ रहे थे। इसी बीच उन्होंने पीने के लिए पानी मांगा। सीसे के गिलास में जब पानी दिया गया तो पीने के तत्काल बाद उन्होंने आव देखा न ताव गिलास को बेंच पर पटक कर तड़ाक से फोड़ दिया। असहाय खड़े मार्शल अब आक्रामक हो गये। फिर तो वे सांसद महोदय को एेसे पकड़े कि पूछो ना। जो जहां पाया, वहीं से उठा लिया, सिर के ऊपर उठाये, राम राम सत्य कर बाहर फेंक आये। भीतर खड़े माननीय तब तक तो चुप थे। अख्तर के बाहर जाने के बाद चिल्लाने लगे कि मार्शलों की क्या जरूरत। अब इन्हें बाहर करो। लेकिन उनसे कोई यह पूछने वाला नहीं था कि जिन सांसदों ने एसी हरकत की, उनके इस अमर्यादित आचरण के लिए किसी ने चूं तक नहीं कसी। सदन की प्रेस गैलरी में कुछ पत्रकार बंधुओं को भी मार्शलों की इस कार्रवाई पर सख्त आपत्ति थी।
उसके बाद अब क्या हो रहा है। सुनिये, अंदर-अंदर मेल मुलाकात, मान-मनौव्वल, माफी-नामाफी और न जाने कौन-कौन सी सियासी चालें चली जा रही हैं। उपसभापति भी हैरान होंगे क्योंकि गैर राजनीतिक होने से उन्हें भी भारी सांसत सहनी पड़ रही होगी। राजनीतिक दांव पेच की बात है। देखो भला। नेता विपक्ष यानी भाजपा नेता अरुण जेटली ने उनके इस कृत्य के लिए सदन में खेद ही नहीं व्यक्त किया, बल्कि माफी भी मांगी। प्रधानमंत्री को नागवार गुजरा, उन्होंने भी इसमें देऱ लगाई। लेकिन भइया उन्होंने माफी मांगना तो दूर खेद व्यक्त करना भी मुनासिब नहीं समझा, जो इसके लिए शत प्रतिशत जिम्मेदार थे। इसके विपरी अब उन्हें अपने निलंबन से बहाली चाहिए, जो शायद हो भी जाये। सियासी दांव के इस खेल में वहीं होगा जो राजनीतिक ऊंट कहेगा, यानी जिस करवट बैठेगा। राजनीतिकों के लिए न नियम है और न ही कानूनी बंदिश। भला कोई इस तरह सदन में गिलास तोड़ खुदकशी अथवा दूसरे पर हमला करने की कोशिश करे तो क्या कार्रवाई होगी। सभी को पता है। लेकिन ये माननीय सदन के भीतर संप्रभु हैं, उनके उपर न पुलिस की चलेगी और न ही किसी कानून का अंकुश है। जल्दी ही वे बाइज्ज बहाल भी हो सकते हैं। आप भी टीवी पर उन्हें लाइव देख सकते हैं।
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...