गरमी चरम पर मार्च में ही पहुंचने लगी है। तभी तो कुएं की पेंदी मे बेवाई फटने लगी है। ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल के बाकी स्रोतों के हाल बिगड़ने लगे हैं। दूषित पानी पीने को लोग मजबूर हैं। लेकिन पानी की जांच का बुरा हाल है। जैविक व रासायनिक तत्वों के लगातार घुलने से हालात बिगड़ने लगे हैं। तभी तो.....
अपने गांव व मुहल्ले के कुएं अथवा हैंडपंप से पानी पी रहे हों तो खुद जांच परख कर ही पियें। सरकार के भरोसे नहीं। सरकार साफ पेयजल देना तो दूर वह आपको पेयजल की गुणवत्ता भी नहीं जांच सकती। पूरे देश में जिला मुख्यालय के नीचे ऐसा कोई तंत्र नहीं है जो पानी की गुणवत्ता जांच सके। 14 राज्यों के 50 से अधिक जिला मुख्यालयों पर भी यह सुविधा नहीं है।
केंद्र सरकार ने वर्ष 2012 तक सबके लिए स्वच्छ पेयजल आपूर्ति की घोषणा की थी। लेकिन केंद्र से लेकर राज्य सरकारों की सुस्त चाल से साफ पानी पिलाने का वादा पूरा होता नहीं दिख रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की जांच के लिए सालाना 1.60 करोड़ नमूनों के परीक्षण होने चाहिए लेकिन राजीव गांधी पेयजल मिशन के तहत हुए सर्वेक्षण के ताजे आंकडे़ बताते हैं जिला मुख्यालयों में पानी की जांच के लिए बनी प्रयोगशालाओं में से 70 फीसदी निष्क्रिय हैं। उनमें न आधुनिक उपकरण हैं और न ही पर्याप्त कर्मचारी।
सबसे बुरा हाल उत्तरी क्षेत्र के राज्यों के भूजल का है, जहां पानी में फ्लोराइड, आर्सेनिक, नमक, लोहा और नाइट्रेट जैसे घातक तत्वों की मात्रा बहुत अधिक है। गंगा व यमुना के मैदानी क्षेत्रों के भूजल में उत्तराखंड से लेकर पश्चिम बंगाल तक खतरनाक तत्व मिले हुए हैं, जिसे पीने से यहां के लोगों में कई तरह की बीमारियां हो रही हैं। पंजाब व हरियाणा के भूजल में सोडियम, नाइट्रेट और अन्य घातक तत्वों की मात्रा घुली हुई है। हाल के एक सर्वेक्षण रिपोर्ट में राज्यों के जल निगमों व आापूर्ति विभागों पर टिप्पणी की गई है।
राजीव गांधी पेयजल मिशन आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड के 13 जिलों में से 10 जिला मुख्यालयों पर अभी तक पानी की जांच की सुविधा नहीं है। परीक्षण प्रयोगशाला खोलने में उत्तराखंड, पंजाब, नगालैंड, जम्मू-काश्मीर, चंडीगढ़, बिहार और महाराष्ट्र फिसड्डी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और झारखंड में जिला मुख्यालयों पर प्रयोगशालायें तो हैं लेकिन वहां जांच शायद ही होती है।
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