Tuesday, November 23, 2010
आधी भी नहीं हो पाई अभी तक रबी की बुवाई
कहीं नमी की कमी से तो कहीं बारिश से प्रभावित हुई गेहूं की बुवाई
राम जी की माया कहीं धूप कहीं छाया। भला हो इस कहावत का। देश में जब मानसूनी बादल खूब पानी बरसा रहे थे तो लगा अगला सीजन रबी खूब फले फूलेगी। लेकिन हालत उलटबांसियों की सी हो गई है। जहां खूब पानी बरसा वहां नमी थी, लेकिन बुवाई से ठीक पहले फिर बारिश हो गई। और जिन इलाकों में मानसून ने दगा दिया था वहां के किसानों ने सोचा इस मौसम में थोड़ी बहुत बारिश तो हो ही जाएगी। लेकिन इस सीजन में भी बूंदे नहीं टपकीं। किसानों ने गेहूं बोने के लिए खेत में पलेवा कर डाला। अब वहां भी गेहूं की बुवाई लेट। यानी दोनों जगहों पर गेहूं की बुवाई पीछे। गेहूं की बुवाई पिछड़ने की एक कहानी और। पश्चिम उत्तर प्रदेश की चीनी मिलें नहीं चलीं तो उनकी मुश्किल यह हो गई कि पेड़ी गन्ने वाले खेत ही खाली नहीं हो पाये। आगे भी संभावना नहीं है। यह कोई कम रकबा नहीं है। सरकारी आंकड़ों पर जाएं तो कोई नौ दस लाख एकड़ है।
गेहूं कारकबा पिछले साल के मुकाबले सर्वाधिक 30 लाख हेक्टेयर तक पिछड़ चुका है। बुवाई में देरी होने से गेहूं की उत्पादकता पर विपरीत असर पडऩे का खतरा है। इसे लेकर कृषि मंत्रालय के माथे पर भी बल पडऩे लगे हैं।
मानसून की अच्छी बारिश के चलते भूमि में पर्याप्त नमी को लेकर कृषि वैज्ञानिक व सरकार बेहद खुश थे। उम्मीद थी कि रबी की प्रमुख फसल गेहूं की बुवाई इस बार जल्दी हो जाएगी, जिससे उत्पादकता बढ़ेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गेहूं उत्पादक राज्यों- पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मानसून की अच्छी बारिश हुई थी। इससे वहां की भूमि में पर्याप्त नमी को देखते हुए बुवाई तेजी से शुरू तो हुई, लेकिन अचानक हुई बारिश ने उसे रोक दिया है। हरियाणा में गेहूं बुवाई ढाई लाख हेक्टेयर पीछे है, जबकि पंजाब में डेढ़ लाख हेक्टेयर।
इसके विपरीत पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ में पर्याप्त बारिश नहीं होने से खरीफ की फसलों पर विपरीत असर पड़ा था। जिससे खेतों में पलेवा (सिंचाई) करने के बाद ही बुवाई संभव हो पा रही है। परिणामस्वरूप यहां भूमि में नमी की कमी से बुवाई पिछड़ रही है।
कहीं सूखा कहीं बारिश के चलते उत्तर प्रदेश में पिछले साल अब तक जहां 30 लाख हेक्टेयर भूमि में गेहूं बो दिया गया था, वहां अभी तक केवल नौ लाख हेक्टेयर में ही गेहूं की बुवाई हो सकी है। कृषि मंत्रालय के लिए यह गंभीर चिंता का विषय है।
कृषि मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के मुताबिक मध्य प्रदेश में गेहूं बुवाई पांच लाख हेक्टेयर पीछे चल रही है। पिछले साल अब तक 17.71 लाख हेक्टेयर में गेहूं की बुवाई हो चुकी थी, जो चालू सीजन में 12.50 लाख हेक्टेयर ही हो पाई है। छत्तीसगढ़ में 80 फीसदी और महाराष्ट्र में 35 फीसदी कम रकबा में बुआई हुई है।
Monday, October 18, 2010
दालों के लिए अब नई मशक्कत
देश के गोदाम गेहूं व चावल से अटे पड़े हैं। लेकिन दाल की कटोरी विलायत की दाल से ही भर रही है। विदेशी मुद्रा खर्च करके सरकार आजिज आ चुकी है। फिर भी बात नहीं बन रही है। थक हार कर अधिक दलहन उगाने की मशक्कत शुरू की गई है। किसानों का रोना है कि उन्हें अच्छे बीज ही नहीं मिल पा रहा है। जबकि सरकारी कृषि वैज्ञानिकों की फेहरिस्त में कई सौ वेरायटी तैयार हैं। यह है सरकारी अंतरविरोध। इसी को दूर करने के लिए सरकार ने नई योजना चालू की है। कुछ नमूने आप भी देख लें।
सरकार की कोशिशें कामयाब हुईं तो आने वाले सालों में रोटी के साथ दाल भी मयस्सर हो सकती है। देश में दाल की कमी और उसकी बढ़ती कीमतों से परेशान सरकार सारे विकल्पों को खंगालने में जुट गयी है। इसके तहत पहले दलहन ग्राम और अब बीज ग्राम बसाने की योजना पर अमल शुरू कर दिया गया है।
दलहन खेती को लाभप्रद बनाने और प्रोत्साहित करने के लिए किसानों को उनके गांव में ही अच्छे व उन्नत फाउंडेशन बीज मुहैया कराने की योजना है। योजना के तहत गांव के किसानों को ही लघु बीज गोदाम स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। दलहन बीजों के भंडारण के लिए उन्हें उचित भाड़ा भी दिया जाएगा। किसानों को दलहन की वैज्ञानिक खेती का मुफ्त प्रशिक्षण देने की भी योजना है। यह योजना राज्यों के कृषि ïिवभाग, कृषि विश्वविद्यालय और राज्य बीज निगम के साझा प्रयास से संचालित की जाएगी।
योजना के तहत दलहन खेती के इच्छुक किसानों को प्रति आधा एकड़ खेत के लिए जरूरी फाउंडेशन बीजों की आपूर्ति 50 फीसदी के सब्सिडी मूल्य पर की जाएगी। पहले चरण में किसानों को प्रशिक्षित करने की योजना है, जिसमें 150 किसानों के समूह को प्रशिक्षण देने के लिए 15 हजार रुपये का प्रावधान किया गया है।
दलहन बीजों के भंडारण के लिए जो किसान अपने स्तर पर गोदाम बनाकर बीजों की भंडारण करेंगे, उन्हें 1500 से 3000 रुपये का भाड़ा दिया जाएगा। यह भाड़ा 10 और 20 क्विंटल दलहन बीजों पर मिलेगा। अनुसूचित व अनुसूचित जनजाति के किसानों को देय भाड़े की राशि सामान्य वर्ग के किसानों के मुकाबले अधिक होगी।
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बेमौत मारे जाते हैं बेजुबान
देश के करोड़ों बेजुबान हर साल बेमौत मारे जाते हैं, लेकिन उनकी आह और कराह किसी को सुनवाई नहीं पड़ती है। सरकारी आंकड़े को ही सही मान लें तो हर साल कोई २० हजार करोड़ रुपये की लागत का पशुधन संक्रामक बीमारियों की भेंट चढ़ जाता है। इसके लिए सरकार का फंड ऊंट के मुंह में जीरा के बराबर ही है। देश में कोई तीन चार संस्थान ही हैं, जहां गिनती के पशु चिकित्सक तैयार होते हैं, उनमें से भी ज्यादातर विदेश का रुख कर लेते हैं। यहां तो सब कुछ नीम हकीम खतरे जान है। यह रिपोर्ट भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉक्टर एमसी. शर्मा से बातचीत पर आधारित है। हजारों करोड़ रुपये का जो नुकसान आप देख रहे हैं, वह तो सिर्फ पशुओं के संक्रामक रोग है। जाने कितने औ रोग हैं, जिनका जिक्र कभी और किसी रिपोर्ट में देने की कोशिश करुंगा।
हर बार की तरह इस साल (२०१०-११) भी टीके के अभाव में करोड़ों पशु मुंहपका- खुरपका रोग से मरने के लिए अभिशप्त हैं। देश में इसका टीका बनाने वाली कंपनियों की उत्पादन क्षमता मांग के मुकाबले बहुत कम है। यही वजह है कि अब तक केवल 54 जिलों में ही पशुओं का संपूर्ण टीकाकरण हो सका है, बाकी भगवान भरोसे हैं। जबकि यह इतना खतरनाक रोग है कि जो पशु मौत से बच भी जाते हैं, वे अपाहिज व लाचार होकर किसी काम के नहीं रहते।
पिछले साल ही देश पूरे देश में मुंहपका-खुरपका रोग फैला था। लेकिन इन बेजुबानों की मौत पर देश के किसी कोने से कोई आह तक नहीं निकली। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस रोग से सालाना पांच से 20 हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है। देश में केवल 54 ऐसे जिले हैं जहां इस रोग का प्रकोप नहीं हुआ था। इनका संबंध हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से है। यहां शत प्रतिशत पशुओं का टीकाकरण हो चुका है। इन जिलों को छोड़कर देश के बाकी जिलों में पशुओं की जान 'राम भरोसेÓ है। यहां टीके की भारी किल्लत है।
भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉक्टर एमसी. शर्मा का कहना है कि सितंबर से नंवबर के महीने में पशुओं में 'खुरपका व मुंहपकाÓ रोग के फैलने की आशंका सबसे अधिक होती है। पशुओं के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। इसके वायरस अत्यधिक गरमी, अत्यधिक जाड़ा अथवा ज्यादा बारिश के समय तेजी से सक्रिय होते हैं। चारे का अभाव, कीचड़ व भीगने से पशुओं में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता कम हो जाती है, जिससे इसका प्रकोप और तेज हो जाता है। समूचे देश और पूरे एशिया में यह वायरस सक्रिय है। मुंहपका में पशु के मुंह में छाले, जीभ में घाव, अल्सर और मुंह से लगातार लार टपकती रहती है। जबकि खुरपका में पशु के खुर के बीच में घाव हो जाता है और उसमें कीड़े पड़ जाते हैं। कहने को ये दो रोग हैं, मगर इनका वायरस एक है, लिहाजा टीका भी एक है।
इस वायरस के प्रभाव से मादा पशु के साथ सांड की प्रजनन क्षमता खत्म हो जाती है। नर पशु की कार्य क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है। दुधारू पशु दूध देना बंद कर देते हैं। डॉक्टर शर्मा का कहना है कि छोटे पशुओं में 20 फीसदी और बड़े पशुओं में 10 फीसदी तक के प्रभावित होने की आशंका रहती है। गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सूअरों के अलावा जंगली हिरनों में इसका प्रकोप सर्वाधिक होता है।
पशुओं के इस संक्रामक रोग पर काबू पाने के लिए सरकार ने आधा अधूरा प्रयास शुरू किया है। इसके तहत देश के 270 जिलों को टीकाकरण योजना में शामिल किया गया है। लेकिन कब तक वहां टीका पहुंचेगा इसका जवाब मंत्रालय में किसी के पास नहीं है। देश में पशुओं के टीकाकरण के लिए सालाना 60 लाख टीके चाहिए। लेकिन उत्पादन सिर्फ 10 लाख टीकों का ही हो पाता है।
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Tuesday, August 10, 2010
सरकारी उलटबांसियां
ईंट की दीवारों से बना आशियाना हुआ 'कच्चा' मकान
उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के गरीबों का नुकसान, इंदिरा आवास योजना के लाभ से वंचित
कबीरदास की उलटबांसियां पढ़ते थे तो लगता है बेवजह का मजाक बक रखा है कबीर ने। लेकिन आंखों से देखा तो टकटकी ही लगी रही, वह भी भारत सरकार की। कागज पर जो लिख उठा, उसे पत्थर की लकीर मानिये। पिछले एक दशक पहले मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाकों की झोपडि़यों को सरकारी मुलाजिमों ने पक्का मकान लिख रखा है। इसे ठीक कराने वहां के मुख्यमंत्री ने न जाने कितनी बार दिल्ली का चक्कर लगा लिया। लेकिन ग्रामीण विकास मंत्रालय वालों को कहना है कि इसे तो योजना आयोग ठीक करेगा, उससे पूछा तो जवाब टका सा। भाई यह गलती है तो इस पंचवर्षीय योजना में तो ठीक नहीं होती। इंतजार करिये १२वीं योजना की। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री ने भी चिट्ठियां लिख रखा है। आप भी उनकी कारस्तानी के कुछ नमूने देखिए....
कच्ची दीवार और खपरैल को आप क्या मानेंगे? कच्चा या पक्का। सरकार तो इसे 'पक्का मकान' मानती है जबकि ईंट की दीवारों से बने मकान को 'कच्चा'। उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश को गरीबों को इसी उलटबांसी का नुकसान उठाना पड़ा है। इंदिरा आवास योजना में सबसे वह गरीब बाहर हो गई जिन्होंने अपनी कच्ची मड़ैया को खपरैल से ढकने की 'गलती' की थी।
देश के इन दोनों बड़े सूबों के गरीब इंदिरा आवास योजना के लाभ का लेने में केरल और बिहार जैसे राज्यों से भी पिछड़ गये हैं। जबकि देश के कुछ दूसरे राज्यों के लोग समझदार निकले। उन्होंने अपने ईंट व सीमेंट से बने मकानों की छत पर पुआल व पशु चारा रख कर उसे कच्चे मकान की श्रेणी में दर्ज करा लिया। मकानों के वर्गीकरण में घालमेल का यह नतीजा सालों बाद समझ में आया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के अनुसूचित जनजाति बहुल ब्लॉकों में 99 फीसदी मकान कच्ची मिट्टी अथवा घासफूस के बने हैं लेकिन ज्यादातर झोपडि़यों को खपरैल से ढका होने के कारण पक्का मान लिया गया है। ऐसे मकान वाले गरीबों को इंदिरा आवास योजना का लाभ नहीं मिल पाया है। मध्य प्रदेश ने पिछले साल 1.14 लाख बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया तो उत्तर प्रदेश ने 4.93 लाख इंदिरा आवास बनाने का। इसके मुकाबले बिहार जैसे राज्य में गरीबों के लिए मकानों का लक्ष्य 10.98 लाख रहा।
इंदिरा आवास योजना में उन्हीं गरीबों को मकान बनाने के लिए सरकारी मदद मिलती है, जिनके मकान कच्चे हों अथवा वे बेघर हों। इसका निर्धारण भी जनगणना के आंकड़ों और योजना आयोग सर्वेक्षण से होता है। कच्चे-पक्के मकानों की इस परिभाषा के चलते बड़े राज्यों के गरीब सस्ती आवास योजनाओं का लाभ लेने में लगातार पिछड़ रहे हैं।
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अनाज के कटोरे का पानी सूखा
- धान की रोपाई पर सबसे ज्यादा असर
मध्य प्रदेश की सोयाबीन पट्टी हुई सूनी
मानसून की बारिश से पूरा देश भले ही बल्ले-बल्ले कर रहा हो, लेकिन खाद्यान्न उत्पादन में अहम भूमिका निभाने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश के बड़े हिस्से में सूखे जैसी हालत पैदा हो गई है। बिहार में ४३ फीसदी कम बारिश हुई, लेकिन चुनावी साल होने के चलते वहां के राजनीतिक दल अपनी-अपनी रोटी सेंक रहे हैं। मुख्यमंत्री नीतीश प्रधानमंत्री से पांच हजार करोड़ मांग गये है। राजनीतिक हासिये पर पहुंच चुके लोजपा नेता राम विलास पासवान राज्यसभा में केंद्र से बिहार के लिे १५ हजार करोड़ रुपये मांग रहे है। भला हो पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों का, जहां के ज्यादातर जिलों में ६५ फीसदी तक कम बारिश हुई है। धान की रोपाई तो दूर, खेत में पुनपुना रही जोन्हरी (मक्का) भी मुरझाये पड़ी है। लेकिन उनकी राज्य सरकार को उनके बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं है। संसद में सूखे रेवडि़यों के लिए मारा मारी मची है। केंद्र सरकार की कांग्रेस भी चुटकी लेने से बाज नहीं आई। कहा वहां से कोई मांग ही नहीं आ रही है। भला एसे में केंद्र क्या कर सकता है।
मौसम विभाग ने शुक्रवार को साफ कर दिया कि इन इलाकों में बारिश औसत से कम रहेगी। यहां बादल बरसेंगे भी तो सितंबर में। यानी तब तक खरीफ खेती की संभावनाएं खत्म हो चुकी होंगी।
मौसम विभाग ने अगस्त व सितंबर माह में होने वाली बारिश के पूर्वानुमान के बारे में बताया कि बंगाल की खाड़ी में बनने वाला कम दबाव का क्षेत्र पूरी तरह विकसित होकर आगे नहीं बढ़ पा रहा है। इसी वजह से पूरब से आने वाली मानसूनी हवाएं पूर्वी राज्यों में बारिश नहीं ला पा रही हैं। यही वजह है कि इस पूरे इलाके में अभी भी 24 फीसदी कम बारिश हुई है। जबकि बीते सप्ताह झारखंड में 46 फीसदी, बिहार में 29 फीसदी और पूर्वी उत्तर प्रदेश में 32 फीसदी कम बारिश हुई। जबकि पश्चिमी मध्य में 26 फीसदी और पूर्वी मध्य प्रदेश में 18 फीसदी कम बारिश रिकॉर्ड की गई। इससे धान की रोपाई बुरी तरह प्रभावित हुई है। मध्य प्रदेश में सोयाबीन की बुवाई नहीं हो पाई है।
इसके चलते धान की रोपाई में भारी कमी दर्ज की गई है। कृषि मंत्रालय पिछले साल के सूखे में हुई धान की रोपाई रकबा से तुलना कर अपनी पीठ ठोंक रहा है। जबकि वर्ष 2008 में इसी अवधि में हुई रोपाई से इस बार धान की खेती बहुत पीछे चल रही है। धान रोपाई का ताजा आंकड़ा 212 लाख हेक्टेयर है, जबकि वर्ष 2008 में यह आंकड़ा 231 लाख हेक्टेयर पहुंच गया है। मौसम विज्ञानियों ने कहा कि मानसून की विदाई के वक्त सितंबर के आखिर तक भी इस पूरे इलाके में बारिश 10 फीसदी कम रहेगी। बिहार और झारखंड में राजनीतिक दलों ने राज्य को सूखाग्रस्त घोषित करने में बाजी मार ली है। पिछड़ा तो पूर्वी उत्तर प्रदेश।
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Sunday, June 20, 2010
आर्सेनिक से दूषित बोरो धान पर पाबंदी की तैयारी
पश्चिम बंगाल, असम, उड़ीसा, बिहार व पूर्वी क्षेत्रों में बोरो धान की खेती खरीफ की जगह रबी सीजन में होती है। पश्चिम बंगाल के कुल धान उत्पादन में बोरो धान की हिस्सेदारी 40 फीसदी है, जबकि असम में 35 फीसदी और बिहार में 20 फीसदी। असिंचित क्षेत्रों में नलकूप की सिंचाई के भरोसे पैदा होने वाले इस धान में आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर से अधिक पाई गई है। इसका कुप्रभाव भी वहां देखने को मिल रहा है। इस बारे में पश्चिम बंगाल के कृषि विभाग के प्रमुख सचिव संजीव अरोड़ा ने बताया कि बोरो धान की खेती नदियों की घाटियों में होती है।
अरोड़ा का कहना है कि दरअसल खरीफ सीजन में धान की खेती मानसूनी बारिश से तैयार हो जाती है, लेकिन रबी सीजन में बोरो धान के लिए सिंचाई की सख्त जरूरत होती है। देश के पूर्वी राज्यों में गहरे नलकूप नहीं हैं, इसकी जगह कम गहराई से खींचे गये पानी में आर्सेनिक जैसा खतरनाक तत्व घुला हुआ है। उसकी सिंचाई से तैयार धान में भी आर्सेनिक पहुंचता है। उन्होंने बताया कि पश्चिम बंगाल के 75 विकास खंडों में बोरो धान की खेती होती है। सरकार ने इसे चरणबद्ध तरीके से बंद करने की योजना तैयार की है।
असम के ब्रह्मपुत्र नदी के इलाके में बोरो धान की जबर्दस्त खेती होती है, लेकिन नदियों के किनारे लगे नलकूपों से आर्सेनिक युक्त पानी से पूरी फसल दूषित हो गई है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस सिंचाई से आलू की खेती पर आर्सेनिक का कोई असर नहीं है। यह समस्या सिर्फ बोरो धान में ही है। बिहार में गंगा व अन्य नदियों के किनारे के आर्सेनिक भूजल वाले इलाके में बोरो खेती अब खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है। बोरो खेती करने के विकल्पों में गहरे नलकूपों की जरूरत होगी, जिसके लिए किसान तैयार नहीं होते हैं। हालांकि केंद्र सरकार इसके लिए पर्याप्त सब्सिडी देने को राजी है।
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जलवायु परिवर्तन से सिर्फ नुकसान ही नहीं, नफा भी
कृषि मंत्रालय के अधीन भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने अपने हाल के एक अध्ययन में यह खुलासा किया है। जलवायु में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ने से गेहूं, चावल और तिलहन की फसलों को जहां बहुत फायदा हुआ है, वहीं मक्का, ज्वार, बाजरा और गन्ने की फसल के लिए यह फायदेमंद नहीं रहा है।
अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक मौसम में भारी उतार चढ़ाव का सीधा असर खेती पर पड़ा है। महाराष्ट्र में प्याज की खेती का खास अध्ययन किया गया, जिसमें 1997 की रबी फसल में तापमान के बहुत बढ़ जाने से प्याज में गांठ नहीं पड़ी। इसी तरह अगले साल 1998 में भारी बारिश हो जाने खेत में खड़ी प्याज की फसल में कई तरह की बीमारियों का प्रकोप हो गया और फसल चौपट हो गई। यह सब जलवायु परिवर्तन का प्रभाव था।
इसी तरह हिमाचल प्रदेश का सेब उत्पादक क्षेत्र बदल गया। कम सर्दी और बर्फ कम पड़ने के चलते फसल का क्षेत्र परिवर्तित होने लगा है। कई ऐसे नये क्षेत्रों लाहौल और स्पीति में सेब की खेती होने लगी, जहां नहीं होती थी। आईसीएआर के अध्ययन में 1901 से 2005 के बीच के जलवायु के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया, जिसमें पाया गया कि तापमान में वृद्धि पिछले पांच दशकों में सर्वाधिक हुई है।
आंकड़ों के विश्लेषण में हैरान करने वाले नतीजे सामने आये। देश के 47 प्रमुख स्थानों पर पिछले 50 सालों के तापमान के आंकड़ों में पाया गया कि केंद्रीय, दक्षिण और पूर्वोत्तर में तापमान बढ़ा है। इसके मुकाबले गुजरात, कोकण क्षेत्र, मध्य प्रदेश के पश्चिमोत्तर और पूर्वी राजस्थान का औसत तापमान घटा है।
2007 में गठित इंटर गवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के नतीजे के मुताबिक तापमान में तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से फसलों की उत्पादकता बढ़ सकती है। लेकिन आईसीएआर ने स्पष्ट किया है कि अगर तापमान इससे अधिक बढ़ तो खाद्यान्न की उत्पादकता पर विपरीत असर पड़ना तय है।
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Friday, June 4, 2010
कूपन की राशन प्रणाली से पैदा होगा नया तेलगी
गरीबों के आकलन के लिए गठित दूसरी कमेटियों से आपकी रिपोर्ट बिल्कुल अलग क्यों है?
बीपीएल की पहचान के तरीके बताने के लिए सक्सेना कमेटी बनाई गई थी। लेकिन बाद में गरीबों की संख्या का अनुमान लगाने को भी कह दिया गया। बहुत विस्तार में जाने के बजाय मैंने भारत सरकार के 1975 में बनाये मानक पर ही अमल किया। इसके मुताबिक 2400 कैलोरी से कम खाने वाले ग्रामीण गरीबी रेखा से नीचे माना गया है। इस मानक के आधार पर तीन चौथाई ग्रामीण बीपीएल वर्ग में हैं।
देश की 50 फीसदी आबादी को गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाला (बीपीएल) बताने के पीछे का क्या आधार है?
ग्रामीण क्षेत्रों के बॉटम गरीबों की 30 फीसदी आबादी में अनाज की खपत साढ़े आठ किलो मासिक है। जबकि टॉप 20फीसदी ग्रामीणों में अनाज की खपत 11.50 किलो मासिक है। बॉटम गरीबों को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, जिसके लिए उन्हें जरुरी प्रोटीन नहीं मिलता है। बराबरी पर लाने के लिए 50 फीसदी इन गरीबों को बीपीएल का लाभ मिलना ही चाहिए। गरीबों की संख्या को लेकर 60 सालों में भी कोई राय क्यों नहीं बन पाई। इस बारे में राज्यों की भूमिका क्या है?
ऐसा नहीं है। हर पांच साल बाद गरीबों की संख्या का निर्धारण होता है। वर्ष 2005 में गरीबों की संख्या 27.5 फीसदी तय थी, जिसे सही नहीं माना जा सकता है। योजना आयोग तेंदुलकर रिपोर्ट के आधार इसे बढ़ाकर 42 फीसदी मानने की बात कर रहा है। राज्यों के आंकड़ों को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश को ही लें। बांदा में भी उतने ही गरीब हैं, जितने मेरठ में हैं। अंतर जिलों की भिन्नता को नकार दिया गया है। तेंदुलकर रिपोर्ट को मानें तो उड़ीसा में गरीबों की संख्या 65 फीसदी हो जाएगी। लेकिन यह सभी जिलों पर लागू नहीं होगी।
केंद्र सरकार जिस राशन प्रणाली (पीडीएस) को ध्वस्त मानती है, उसी तंत्र के मार्फत बहुचर्चित खाद्य सुरक्षा कानून लागू होना है। यह कैसे संभव है?
पीडीएस सभी राज्यों में ध्वस्त नहीं हुई है। तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ से लेकर उड़ीसा तक अच्छी चल रही है। राशन प्रणाली जहां बहुत खराब है वे राज्य हैं, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली। हैरानी यह है कि केंद्र सरकार ने इसे सुधारने का कोई कारगर कदम उठाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। योजना आयोग की 2004 की रिपोर्ट के मुताबिक पीडीएस में 58 फीसदी लीकेज है। तब से सालाना 29 हजार करोड़ रुपये पानी में जा रहा है।
राशन प्रणाली के लिए केंद्र का निगरानी तंत्र क्यों विफल है?
फेल तो तब हो, जब कोई निगरानी तंत्र हो। केंद्र के पास कोई ऐसा तंत्र नहीं है। केंद्र की बाकी योजनाओं की सघन निगरानी होती है, सिर्फ सार्वजनिक राशन प्रणाली को छोड़कर। दरअसल, यह पीडीएस को बदनाम करने की एक बड़ी साजिश है, जिसमें खाद्य मंत्रालय शामिल है। मंत्रालय के अधिकारी खुद इसे बंद कराना चाहते हैं। भला ऐसे में प्रणाली में सुधार कैसे होगा। सभी बिगाड़ने में लगे है। अंदर-अंदर इसकी जड़ें काट रहे हैं। कृषि व वित्त मंत्रालय तो इसे फूटी आंखों नहीं देखना चाहते हैं। कृषि मंत्रालय का जोर जहां किसानों को फसलों के अच्छे मूल्य देने पर होता है, वहीं वित्त मंत्रालय खाद्य सब्सिडी बढ़ने से परेशान है। दोनों मंत्रालयों का उपभोक्ताओं के हितों से कोई लेना देना नहीं है।
गरीबों को सस्ता अनाज देने के लिए पीडीएस जरूरी है, पर इसमें सुधार के क्या उपाय हैं?
जिन राज्यों में पीडीएस अच्छा चल रहा है, उनका मॉडल दूसरे राज्यों में लागू करें। सस्ते गल्ले की दुकानें निजी डीलरों की जगह पंचायत, सहकारी समितियों और स्वयं सहायता समूहों को दिया जाना चाहिए। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ में ऐसा ही किया गया है। साथ ही राशन प्रणाली के दायरे में 30 फीसदी जगह ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल किया जाना चाहिए। छत्तीसगढ़ में 70 फीसदी, तमिलनाडु व कर्नाटक में 100 फीसदी लोगों को राशन दुकानों से अनाज दिया जाता है। विकलांग, विधवाओं, सेवानिवृत्त फौजियों व प्रभावशाली लोगों को दुकानों का आवंटन बंद होना चाहिए। हमारा सिस्टम बिल्कुल उल्टा है। इस योजना का मकसद ऐसे लोगों को कमीशन खिलाने की जगह उपभोक्ताओं का हित होना चाहिए।
पीडीएस को अनाज कूपन व बायोमीट्रिक प्रणाली से चलाने का क्या असर होगा?
कूपन का चलन आंध्र प्रदेश और बिहार है। इसके मार्फत गरीब अनाज उठाते हैं। लेकिन यह पीडीएस का विकल्प नहीं बल्कि एक अंग है। इसे शत प्रतिशत लागू किया गया तो कूपन तेलगी पैदा हो जाएगा। इससे सही आदमी की पहचान भर हो सकेगी। कर्नाटक व आंध्र प्रदेश में थंब इंप्रेशन का प्रयोग शुरु किया गया है। हरियाणा में बायोमीट्रिक सिस्टम शुरू होने वाला है। जिसे पायलट आधार पर तो चलाया जा सकता है लेकिन फिलहाल यह विकल्प नहीं बन सकता है।
गरीबों की संख्या और अनाज की मात्रा बढ़ाकर खाद्य सुरक्षा कानून लागू हुआ इतना अनाज कहां से आयेगा?
पर्याप्त अनाज है। देश की 60 फीसदी जनता को खाद्यान्न वितरित करना संभव है। प्रत्येक परिवार को 35 किलो के हिसाब से अनाज देने पर कुल चार करोड़ टन अनाज चाहिए। जबकि सरकारी खरीद 4.5 करोड़ टन होती है। अनाज कम नहीं है। समूची खाद्य व्यवस्था गंभीर कुप्रबंधन की शिकार है। समन्वित रुप से सोचने की जरूरत है।
खाद्य सुरक्षा कानून में कुछ कड़े प्रावधान भी शामिल किये गये हैं। वे कितने कारगर साबित होंगे?
मनरेगा में भी ऐसे कड़े प्रावधान हैं। खाद्य सुरक्षा कानून सामान्य तौर पर ठीक ही लगता है। लेकिन इसका संचालन करने वाले पीडीएस को कौन ठीक करेगा? कड़े प्रावधानों से कुछ नहीं होने वाला है। मनरेगा में सालभर में सिर्फ 15 दिन काम पाने वालों की संख्या एक करोड़ है। लेकिन केवल 43 लोगों को बेरोजगारी भत्ता मिल पाया। इस मुद्दे पर आखिर कोई क्यों नहीं बोल रहा है। दिल्ली में 8 फीसदी और मुंबई में 12 फीसदी गरीब सड़कों रहते हैं। जिनके पास राशन कार्ड नहीं है क्यों कि कार्ड के लिए स्थायी पता चाहिए। पहले तो ऐसे गरीब विरोधी आदेशों को समाप्त करना होगा।
गरीबों के जीवन स्तर में सुधार के लिए क्या उपाय चाहिए?
कृषि क्षेत्र पर ज्यादा जोर देकर निवेश बढ़ाना चाहिए। सिंचाई सुविधाएं बढ़ानी चाहिए। बिहार में सड़कें तो हैं, लेकिन बिजली न होने से सिंचाई भला कैसे होगी? देश के सभी जिलों में ब्लॉकों की स्थापना खेती को प्रोत्साहित करने के लिए की गई थी। लेकिन अब उसका पूरा ध्यान वहां हैं जहां पैसा व सब्सिडी है। कृषि मार्केटिंग को मजबूत करना होगा। फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ाने में कोताही नहीं होनी चाहिए। अनाज के दाम बढ़ने पर ही उत्पादकता बढ़ जायेगी। रोजगार सृजन के लिए लघु उद्योग क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
गरीबों के जीवन स्तर को जानने के लिए आपने पूरे देश का भ्रमण किया होगा। बदतर हाल कहां के हैं? गरीबों के जीवन स्तर में कुछ सुधार भी हुआ है?
देश के 50 फीसदी के लोगों का जीवन स्तर सुधरा है। जबकि पांच फीसदी लोगों के जीवन स्तर में उछाल आया है। बाकी फीसदी लोग घोर गरीबी में रह रहे हैं। गरीबी की हद उड़ीसा के कुछ इलाकों में है। महिलाओं के पास पूरे तन ढकने के कपड़े तक नहीं है। उत्तर प्रदेश के बांदा और चित्रकूट में गरीबी चरम पर है। बिहार व झारखंड में हालत ठीक नहीं है। मेवात में गरीबी है।
Friday, May 28, 2010
किसानों को सहनी पड़ेगी महंगाई घटाने की कीमत
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले दिनों दिसंबर तक मुद्रास्फीति की दर को पांच-छह फीसदी तक लाने का भरोसा दिलाया था। इसी के मद्देनजर एमएसपी में वृद्धि की उम्मीद नहीं है। समर्थन मूल्य तय करने के लिए गठित कृषि लागत व मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने अपनी सिफारिशें सरकार को सौंप दी हैं। इस पर संबंधित मंत्रालयों ने विचार कर लिया है। ज्यादातर राज्यों ने भी अपनी राय रख दी है। अब खरीफ फसलों के समर्थन मूल्य के इस मसौदे पर केंद्रीय मंत्रिमंडल की मुहर लगनी है।
आयोग की सिफारिशों में धान के 'ए' ग्रेड का मूल्य 1030 रुपये और सामान्य धान 1000 रुपये प्रति क्विंटल है, जो पिछले खरीफ सीजन में किसानों के प्राप्त मूल्य के बराबर ही है। मक्के का समर्थन मूल्य 880 रुपये तय किया गया है, जबकि पिछले खरीफ सीजन में यह 840 रुपये था। सबसे अधिक हैरानी दलहन फसलों के समर्थन मूल्य को देखकर हो सकती है, जिसमें 400 से 500 रुपये प्रति क्ंिवटल की वृद्धि तो की गई है। लेकिन एमएसपी पहले से ही इतना कम है कि इस वृद्धि का कोई मतलब नहीं रह जाता है।
उदाहरण के लिए पिछले साल अरहर दाल घरेलू बाजार में एक सौ रुपये प्रति किलो बिकी, तब अरहर का एमएसपी एक तिहाई से भी कम, यानी 2300 रुपये प्रति क्ंिवटल था। चालू सीजन में अरहर दाल 80 रुपये किलो बिक रही है। सीएसीपी ने इसका समर्थन मूल्य 2800 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। मूंग का समर्थन मूल्य 2760 रुपये से बढ़ाकर 3170 रुपये और उड़द का 2520 रुपये से 2900 रुपये किया गया है। लेकिन इन बढ़े मूल्यों का कोई औचित्य नहीं है। खुले बाजार में मूंग व उड़द की दालें 70 रुपये प्रति किलो से नीचे नहीं है।
खाद्य तेलों की आयात निर्भरता लगातार बढ़ने के बावजूद खरीफ सीजन की प्रमुख तिलहन फसलों का एमएसपी मामूली रूप से बढ़ाया गया है। मूंगफली 2100 रुपये से बढ़ाकर 2300 रुपये और तिल के मूल्य 2850 रुपये में सिर्फ 50 रुपये की वृद्धि की गई है, जिसके लिए 2900 रुपये प्रति क्विंटल का मूल्य सुझाया गया है। कपास का मूल्य 3000 रुपये प्रति गांठ ज्यों का त्यों ही रखा गया है।
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Tuesday, May 25, 2010
फर्जी बैनामों से मिल जायेगी निजात
'लैंड टाइटलिंग बिल-2010' का मसौदा तैयार।
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सुरेंद्र प्रसाद सिंह।
फर्जी बैनामा करना अथवा कराना फिर आसान नहीं होगा। आपकी जमीन पूरी तरह महफूज रहेगी। इस तरह की धोखाधड़ी को रोकने के लिए केंद्र सरकार एक ऐसा कानून बना रही है, जिसमें जमीन के असल मालिक की गारंटी सरकार को लेना होगा। साथ ही बटाई पर दी जाने वाली जमीन के मालिकाना हक को लेकर उठने वाले विवाद भी घटेंगे। भू राजस्व के मुकदमों में कमी आने की भी संभावना है।
केंद्रीय भू संसाधन विभाग की सचिव रीता सिन्हा ने विधेयक के मसौदे के बारे में 'जागरण' से बातचीत में बताया कि विभिन्न राज्यों में भूमि प्रबंधन व राजस्व की भाषा व कानून फिलहाल अलग-अलग है। ज्यादातर राज्यों में भूमि सुधार नहीं हो पाये हैं। जमीनों के बंटवारे में ढेर सारी खामियां है, जिसे प्रस्तावित विधेयक के मार्फत ठीक करने का प्रयास किया जायेगा। इससे देशभर के भूमि बंदोबस्त कानून में एकरूपता आ जायेगी। राज्यों से इस अहम मसले पर गहन विचार-विमर्श किया जा रहा है।
'लैंड टाइटलिंग बिल-2010' का मसौदा आम लोगों की प्रतिक्रिया के लिए जारी कर दिया गया है। इसे देश की 17 भाषाओं में जारी किया गया है। इसे अमली जामा पहनाने से पहले जमीन के दस्तावेजों के रखरखाव व उनमें संशोधन आदि की प्राथमिक जिम्मेदारी निभाने वाले दो लाख पटवारियों को प्रशिक्षण दिया जाएगा। पूरी प्रणाली को पारदर्शी बनाने के लिए आंकड़े 'आन लाइन' किये जाएंगे। बैनामा करने वाले राजस्व, सर्वेक्षण और पंजीकरण विभाग फिलहाल अलग-अलग हैं, जिन्हें एक संयुक्त प्रणाली के तहत लाने के लिए लैंड टाइटलिंग अथॉरिटी का गठन किया जाएगा। सभी राज्यों से मसौदे में जरूरी संशोधन के लिए सुझाव मांगे गये हैं।
फिलहाल नक्शा और रजिस्ट्री आफिस के दस्तावेज में रकबा अलग-अलग दिखने से निचली अदालतों में विवादों की संख्या बढ़ी है। नये प्रावधान में नक्शों का डिजिटल बनाकर उसे सीधे दस्तावेजों से जोड़ दिया जाएगा। कुछ राज्यों में 12 साल तक बटाई पर दी गई जमीन का मालिकाना हक बदल जाता है, जो नई व्यवस्था से खत्म हो जायेगा। इससे भूमि के मालिक अपनी जमीन को बेखटका कांट्रैक्ट खेती के लिए लंबे समय के लिए दे सकते हैं।
यह कानून सबसे पहले देश के केंद्र शासित क्षेत्रों में लागू होगा। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्यों ने इसमें खास रुचि दिखाई है, जहां भूमि सुधार लगभग पूरा हो चुका है। लेकिन उन राज्यों में इसे लागू करने में काफी दिक्कतें पेश आयेंगी, जहां न भूमि सुधार नहीं हुआ है और न ही भूमि के बंदोबस्ती दस्तावेजों का कंप्यूटरीकरण किया जा सका है।
Tuesday, April 13, 2010
जीएम भांटे का नहीं ट्रांसजेनिक चिकेन का लुत्फ उठाइये
वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि जीएम चिकन के विकसित कर लेने से मिली सफलता से अब भेड़, बकरी और अन्य पशुओं की ट्रांसजेनिक प्रजाति विकसित करने की उम्मीद बढ़ गई है। साथ ही इससे बर्ड फ्लू की बीमारी को रोकने में सफलता मिलेगी।
हैदराबाद के पोल्ट्री निदेशालय के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर टी. के. भट्टाचार्य के नेतृत्व वाली वैज्ञानिकों की टीम ने कम अवधि में अत्यधिक उत्पादकता मुर्गी विकसित करने में सफलता प्राप्त की है। इस विधि में मछली की एक खास प्रजाति के जीन को मुर्गी में डाल दिया गया। फिलहाल यह सफलता प्रयोगशाला के स्तर पर मिल गई है, जल्दी ही इस प्रौद्योगिकी को व्यावसायिक उत्पादन के लिए जारी कर दिया जाएगा।
जेली फिश के ग्रीन फ्लोरोसेंट प्रोटीन जीन के माध्यम से ही ट्रांसजेनिक चिकन विकसित करने में कामयाबी मिल पाई है। जेलीफिश की चमकार भी मुर्गे की पंख को मिल गई है। इस खास जीन को पहले मुर्गे में डाला गया, जिसे उसके वीर्य का प्रयोग मुर्गियों में किया गया। इसके बाद इन मुर्गियों के 263 अंडों से जो चूजे निकले, उनमें से 16 ट्रांसजेनिक पाए गए। इन रंगीन पंख वाले ट्रांसजेनिक चिकन की नियंत्रित वातावरण में जांच पूरी की गई।
अपनी इस ईजाद से बेहद उत्साहित वैज्ञानिकों की मानें तो ट्रांसजेनिक चिकन से पोल्ट्री क्षेत्र में क्रांति आ जाएगी। इसमें मिलने वाला प्रोटीन मानव व पशु दोनों के लिए फायदेमंद साबित होगा। जल्दी ही इस प्रौद्योगिकी को लोगों के उपयोग के लायक बना दिया जाएगा।
Sunday, April 11, 2010
मुट्ठीभर चारे के भरोसे श्वेतक्रांति का सपना
बजट आवंटन को पशुओं की संख्या के हिसाब से देखें तो प्रत्येक पशु के हिस्से सालाना सवा दो रुपये का खर्च आता है। यह आवंटन चारा विकास योजना के लिए किया गया है। डेयरी विकास से जुड़े लोगों का कहना है कि सरकार एक ओर तो इस क्षेत्र में छह प्रतिशत की विकास दर का लक्ष्य तय कर रही है, वहीं दूसरी ओर पशुओं को भरपेट चारे की व्यवस्था तक नहीं की गई है।
पशुओं के लिए घरेलू चारे की पैदावार जरूरत के मुकाबले 40 फीसदी ही होती है। हरा चारा तो दूर, पशुओं का पेट भरने को सूखा चारा भी उपलब्ध नहीं है। चारे की मांग व आपूर्ति में भारी असंतुलन है। एक आंकड़े के मुताबिक दुधारू पशुओं के लिए हरे चारे की सालाना मांग 106 करोड़ टन है, जबकि आपूर्ति केवल 40 करोड़ टन ही है। सूखे चारे की 60 करोड़ टन की मांग के मुकाबले आपूर्ति 45 करोड़ टन हो पाती है। हरा चारे में 63 फीसदी और सूखा चारे में 24 फीसदी की कमी बनी हुई है। मांग आपूर्ति का यह अंतर सालों साल बढ़ रहा है।
महंगाई के इस दौर में पशुओं के लिए मोटे अनाज, चूनी और खल के मूल्य भी बहुत बढ़ गये हैं। दुधारू पशुओं के लिए पौष्टिक तत्वों की भारी कमी है। ऐसी सूरत में दूध की उत्पादकता पर विपरीत असर पड़ रहा है। यही वजह है कि दूध की मांग के मुकाबले आपूर्ति नहीं बढ़ पा रही है, जिससे कीमतें पिछले एक साल में सात रुपये से 10 से १५ रुपये प्रति किलो तक बढ़ी हैं। देश में आधे से अधिक पशु भुखमरी के शिकार हैं।
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Tuesday, March 30, 2010
आईपीएल टीम बनाम दूसरी हरितक्रांति
कहते हैं, महंगाई को ठंडा करने के लिए वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने दलहन की उपज बढ़ाने को 300 करोड़ की घोषणा कर संसद में खूब वाहवाही लूटी। लोगों को बताने के लिए सरकार महंगाई से आजिज है। इसीलिए
दलहन व तिलहन की उपज बढ़ाने का फैसला किया है। वित्तमंत्री मुखर्जी ने बजट भाषण में जोर देकर कहा था कि आजादी के 60 सालों बाद भी दाल व तेल के मामले में देश आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। इसके लिए आम बजट में 300 करोड़ रुपये की लागत से 60 हजार गांवों को दलहन व तिलहन गांव के रुप में विकसित किया जायेगा। असिंचित क्षेत्रों से ऐसे गांवों का चयन किया जायेगा। इससे जल संरक्षण, संचयन और मिट्टी की जांच भी की जायेगी। उनकी इस घोषणा पर संसद में सत्ता पक्ष ने जमकर मेजें भी थपथपाई थी।
बजट के इस प्रावधान से प्रत्येक गांव के हिस्से 50 हजार रुपये आयेगा, जिस पर योजना के सफल होने पर संदेह है।
सरकार की इस योजना की "गंभीरता" पर कृषि संगठनों ने भी सवाल खड़ा किया। दरअसल, दलहन खेती की जमीनी मुश्किलों से सरकार वाकिफ नहीं है। दलहन खेती के लिए उन्नतशील बीज, वास्तविक न्यूनतम समर्थन मूल्य और जंगली जानवरों से मुक्ति के उपाय करने होंगे। नील गायों की बढ़ती संख्या ने दलहन खेती को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, खासतौर पर अरहर और उड़द को। प्रोटीन वाली दलहनी फसलों में रोग भी बहुत लगते हैं। देश में उन्नतशील प्रजाति की दलहन फसलो के बीज हैं और न ही इसके लिए जरूरी खादों का उत्पादन होता है। मजेदार यह है कि दलहन खेती के लिए जरूरी सिंगल सुपर फास्फेट और फास्फोरस वाली खादें बनती ही नहीं है। क्यों कि खाद कंपनियों को इसमें फायदा नहीं होता। दलहन फसलों की खेती भी वहीं होती है जहां की जमीन सबसे खराब होती है। किसान जानबूझकर अच्छे खेतों में इसकी बुवाई नहीं करता है। खासतौर पर इसकी खेती असिंचित क्षेत्रों में ज्यादा होती है। भला कहां से बढ़ेगी दलहन की उत्पादकता? उत्पादकता का आलम यह है कि हम बांग्लादेश और श्रीलंका से भी पीछे हैं।
सरकारी जांच के भरोसे पियेंगे पानी तो......
अपने गांव व मुहल्ले के कुएं अथवा हैंडपंप से पानी पी रहे हों तो खुद जांच परख कर ही पियें। सरकार के भरोसे नहीं। सरकार साफ पेयजल देना तो दूर वह आपको पेयजल की गुणवत्ता भी नहीं जांच सकती। पूरे देश में जिला मुख्यालय के नीचे ऐसा कोई तंत्र नहीं है जो पानी की गुणवत्ता जांच सके। 14 राज्यों के 50 से अधिक जिला मुख्यालयों पर भी यह सुविधा नहीं है।
केंद्र सरकार ने वर्ष 2012 तक सबके लिए स्वच्छ पेयजल आपूर्ति की घोषणा की थी। लेकिन केंद्र से लेकर राज्य सरकारों की सुस्त चाल से साफ पानी पिलाने का वादा पूरा होता नहीं दिख रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की जांच के लिए सालाना 1.60 करोड़ नमूनों के परीक्षण होने चाहिए लेकिन राजीव गांधी पेयजल मिशन के तहत हुए सर्वेक्षण के ताजे आंकडे़ बताते हैं जिला मुख्यालयों में पानी की जांच के लिए बनी प्रयोगशालाओं में से 70 फीसदी निष्क्रिय हैं। उनमें न आधुनिक उपकरण हैं और न ही पर्याप्त कर्मचारी।
सबसे बुरा हाल उत्तरी क्षेत्र के राज्यों के भूजल का है, जहां पानी में फ्लोराइड, आर्सेनिक, नमक, लोहा और नाइट्रेट जैसे घातक तत्वों की मात्रा बहुत अधिक है। गंगा व यमुना के मैदानी क्षेत्रों के भूजल में उत्तराखंड से लेकर पश्चिम बंगाल तक खतरनाक तत्व मिले हुए हैं, जिसे पीने से यहां के लोगों में कई तरह की बीमारियां हो रही हैं। पंजाब व हरियाणा के भूजल में सोडियम, नाइट्रेट और अन्य घातक तत्वों की मात्रा घुली हुई है। हाल के एक सर्वेक्षण रिपोर्ट में राज्यों के जल निगमों व आापूर्ति विभागों पर टिप्पणी की गई है।
राजीव गांधी पेयजल मिशन आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड के 13 जिलों में से 10 जिला मुख्यालयों पर अभी तक पानी की जांच की सुविधा नहीं है। परीक्षण प्रयोगशाला खोलने में उत्तराखंड, पंजाब, नगालैंड, जम्मू-काश्मीर, चंडीगढ़, बिहार और महाराष्ट्र फिसड्डी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और झारखंड में जिला मुख्यालयों पर प्रयोगशालायें तो हैं लेकिन वहां जांच शायद ही होती है।
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Monday, March 22, 2010
पूर्वांचल की बेहाली पर सिर्फ उफ् उफ्...
पूर्वांचल का नाम आते ही जेहन में अपराध, अपराधी, गोली, बंदूक, राइफल, आतंक और आतंकी उभरने लगते हैं। संजरपुर, सैदपुर, आजमगढ़, गाजीपुर व मऊ दिखने लगता है। न बनारस का विद्वत मंडल न मऊ की अद्भुत रेशमी साडि़यों के ताने-बाने और न जौनपुर की शान सुनाई पड़ती है। जिला जवांर, गांव-गिरांव और कस्बे व चट्टियों के मोड़ और चौराहों पर चौतरफा अपराध व अपराधियों की चर्चा आम है। यानी, लोगों में चर्चा का विषय यही सब है। वजह जो भी हो, लेकिन सबसे बड़ी वजह है बेरोजगारी, गरीबी और बदलते परिवेश वाली शिक्षा का अभाव। कहने को कहा जाता है, सघन शिक्षालयों की भरमार है। बनारस में तीन विश्वविद्यालय और न जाने कितने महाविद्यालय हैं। पड़ोस के जौनपुर में पूर्वांचल विश्वविद्यालय, कोई २०० किमी दूर गोरखपुर विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय। इनसे जुड़े सैकड़ों की संख्या में महाविद्यालय। सब कुछ तो है। इससे इनकार कौन कर सकता है। रोजी-रोटी की जरूरत वाली शिक्षा का अभाव है। आगे बढ़ने के प्रयास अभी भी शुरु नहीं हो सका है। कुछ निजी संस्थान खुले जरूर लेकिन गुणवत्ता के स्तर पर बहुत पीछे हैं। यानी शिक्षा के स्तर पर आगे रहने वाला पूर्वांचल पिछड़ रहा है। ध्यान किसी का आखिर इस ओर क्यों नहीं है। समाज को आगे लेने जाने वाला दूसरा वर्ग राजनीतिकों का है जो गर्त में समाता जा रहा है। ग्राम प्रधानी, ब्लॉक प्रमुखी, जिला परिषदी ही नहीं विधा्यक और सांसद भी अपराधी चुने जाने लगे हैं। बड़े शान से लोगों में उन्हीं चर्चा भी होती है। अफजल, मुख्तार, उमानाथ, रमानाथ, धनंजय, हरिशंकर, शाही और न जाने कितनों के नाम हैं, जिनके नामों को चौराहों की दुकानों पर महिमामंडित किया जाता है। युवा वर्ग उन्हीं से प्रेरणा भी लेता है। बस हो गया कल्याण? गिरावट का अंदाजा लगाया जा सकता है। सभी विकास के कार्यों में परसेंट यानी हिस्सा मांगते हैं। यही उनकी हनक भी है। गिरावट इस स्तर तक पहुंच गई है, जो लोगों में घर करते जा रही है। रोकने वाला कोई नहीं है। राजनीति के मार्फत जिन्हें नेतृत्व करना था, उस पर इन अपराधियों का कब्जा है। कबीर, गौतम बुद़ध और गुरु गोरक्ष के इस पूर्वांचल में अब दुख ही दुख है। इसके माथे पर कहीं संजरपुर है तो कहीं गरीबी, बेकारी और भुखमरी का कलंक। पूर्वांचल की उपेक्षा पर यहां के लोग भी शायद ही सोचते हैं। और सोचते हैं तो फिर मन मसोस कर उसी भीड़ का हिस्सा बन जातें हैं तो इन अपराधियों का रोज सुबह-शाम महिमामंडित करती रहती है। मैं आपको पूर्वजों की गौरवगाथा सुनाकर अपना ज्ञान नहीं परोसना चाहता, जिससे शायद सभी परिचित हैं। ब्यूरोक्रेशी में अपनी मजबूत पैठ के बूते हम पूरे देश में जाने जाते थे। अपने ज्ञान-विज्ञान के लिए। लेकिन अब तो हालात बिगड़े नहीं बल्कि बदतर हो गये हैं। गरीबों की एक बड़ी फौज रोजाना ट्रेन में लदकर दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता अथवा हरियाणा के शहरों की ओर रुख कर देते हैं। लेकिन वहां भी दुख ही उठाते हैं। लेकिन यह दुख तब और बढ जाता है जब परदेस गये युवा एड़स लेकर लौटते हैं। उनकी ही नहीं बल्कि युवा पत्नियों की जवानी तिल-तिल कर मरने लगती है।यह सब क्यों हुआ। सवालों का ढेर आज बस पूर्वांचल के दुखों को और बढ़ा रहा है, जिसका जवाब भला कौन देगा? वो नेता जो पूर्वांचल के अलग राज्य की मांग रख रहे हैं? झूठ-फरेब और झूठ.....। झांस में तो आ चुका है पूर्वांचल। अपराधियों के, धूर्त और मूर्ख राजनीतिकों के। इससे जाल बट्टे से निकलने में भी बड़े पेंच हैं।
Monday, March 15, 2010
भंडार भरे हैं पर पेट खाली
Sunday, March 14, 2010
जो कुछ देखा पार्लियामेंट में..हैरानी, हैरानी और बस हैरानी
उसके बाद अब क्या हो रहा है। सुनिये, अंदर-अंदर मेल मुलाकात, मान-मनौव्वल, माफी-नामाफी और न जाने कौन-कौन सी सियासी चालें चली जा रही हैं। उपसभापति भी हैरान होंगे क्योंकि गैर राजनीतिक होने से उन्हें भी भारी सांसत सहनी पड़ रही होगी। राजनीतिक दांव पेच की बात है। देखो भला। नेता विपक्ष यानी भाजपा नेता अरुण जेटली ने उनके इस कृत्य के लिए सदन में खेद ही नहीं व्यक्त किया, बल्कि माफी भी मांगी। प्रधानमंत्री को नागवार गुजरा, उन्होंने भी इसमें देऱ लगाई। लेकिन भइया उन्होंने माफी मांगना तो दूर खेद व्यक्त करना भी मुनासिब नहीं समझा, जो इसके लिए शत प्रतिशत जिम्मेदार थे। इसके विपरी अब उन्हें अपने निलंबन से बहाली चाहिए, जो शायद हो भी जाये। सियासी दांव के इस खेल में वहीं होगा जो राजनीतिक ऊंट कहेगा, यानी जिस करवट बैठेगा। राजनीतिकों के लिए न नियम है और न ही कानूनी बंदिश। भला कोई इस तरह सदन में गिलास तोड़ खुदकशी अथवा दूसरे पर हमला करने की कोशिश करे तो क्या कार्रवाई होगी। सभी को पता है। लेकिन ये माननीय सदन के भीतर संप्रभु हैं, उनके उपर न पुलिस की चलेगी और न ही किसी कानून का अंकुश है। जल्दी ही वे बाइज्ज बहाल भी हो सकते हैं। आप भी टीवी पर उन्हें लाइव देख सकते हैं।
Sunday, February 28, 2010
बुरा ही मानो होली है
गांव की होली की एक याद कभी नहीं भूलती जब रात में होलिका दहन कर लौटते थे गांव में। तब गांव के चिन्हित दो तीन लोगों को निशाना बनाकर उनके घरों पर गोबर अथवा कचरा भरा (सनहन की गगरी) फोड़ा जाता है। फिर क्या था? गाली-गलौज का जो सिलसिला शुरू होता तो लोग हू हू हू हू कर हंसते और उस व्यक्ति के बाहर निकलते ही धूल व मिट्टी फेंकते फिर वही राग गर्भद में गालियों को बौछारें। इसका भी कोई माख नहीं लेता था यानी बुरा नहीं मानता था।
सुबह होते ही रंग छोड़ सभी बदरंग करने वाले खास बेरंगों से लोगों को रंगने की पंरपरा थी। इस दौरान फब्तियां कसने और चुटकी लेने की स्वस्थ चलन अब शायद गांवों से भी जाता रहा। दोपहर बाद की लंबी हुड़दंग के बाद शाम तीन चार बजते-बजते भांग का सालाना जलसा होता है, जिसमें सभी लोग बढ चढ़कर हिस्सा लेते थे। सुना है अब उसका स्थान शराब खासतौर पर कच्ची ठर्रा ने ले लिया है। भांग के नशे में शरीफ से शरीफ भी बौरा जाते थे। शाम होते ही भांग उतारने के लिए दही, अचार व नीबू की खोज हेर शुरू होती थी। खाने में गुलगुला और ठोकवा के साथ कचौड़ियां बनती थी, लेकिन अब इसकी जगह गांव-गांव में बकरे कटने लगे हैं। इसे पूरी तरह से खूनी खराबा वाला त्यौहार बन गया है। छानने की जगह अब पियक्कड़ों की टोली बन जाती है। तब भांग छानने को कोई बुरा नहीं मानता था और अब पीने (दारु) को बुरा मानना किसी की हिम्मत नहीं है। यह है बदलाव। गांवों में भी शहरों की गंध पहुंच गई है, चाहे शराब की हो अथवा त्यौहारों में खून खराब। खाओ, पीओ और होली मनाओ भइया अपनी तरह की । हमे जब मौका लगेगा तो गांव में होलू मनाने आउंगा। सुना है लोग गालीदार कबीरा का भी बुरा मानने लगे है। बाप रे होली में भी गाली को भला क्यों बुरा माना जाने लगा है? नंगई का बुरा क्यों? साल में एक ही दिन तो है जब यह सब एलाऊ है। लेकिन कक्का ने फोन पर बताया कि बच्चू बुरा क्यों न मानें, जब गाली-गलौज, मारपीट और भांग शराब और एसी सारी नंगई सालोभर होने लगे और मारे डर के कोई बुरा नहीं मानता। चुप्पी साधना ही मुनासिब समझता तो भला एक दिन तो बुरा मान लें। इसीलिए लोग कहने लगे हैं बुरा ही मानो होली है।
Sunday, February 14, 2010
नखड़ुओं के संगी हैं हम, खबर सच्ची है
नखड़ू एक क्लास में कई-कई साल की मेहनत से एम.ए. तक की आखिरकार पढा़ई कर डाली। उन्हें सिर्फ पास भर का नंबर चाहिए था जो मिला। घर वालों का धैर्य चाहिए था, वह भी मिला। उनके पास होने पर बाजा बजता था। लड़ुआ बंटा। कई पीढ़ी बाद किसी ने इतनी ऊंची पढाई की थी। धूमधाम से शादी हुई। नखड़ू बड़े आदमी हो गये। इसीलिए खेतों में काम करना भी बंद कर दिया। कई साल तक एमए की खुमारी में डूबे रहे। नाते-रिश्तेदारी में घूमते रहे। गांव के उनकी जाति के टोले के सबसे पढ़ंकू बनने के चक्कर में बिरहा लचारी भी लिखने का शौक पाल लिया। लेकिन यह बिजनेस नहीं चला। लेकिन बच्चों की बढ़ती संख्या ने नखड़ू की अर्थ व्यवस्था को खराब कर दिया। भाइयों की नजर में नखड़ू जंग लगी मशीन दिखने लगे। लेकिन किसी रिश्तेदार के सहयोग से अपनी तहसील की कचहरी में नौकरी लग गई। तहसील के लेखपाल के चपरासी हो गये। लेखपाल खुद इंटर पास और नखड़ू एमए। नखड़ू के लिए यह भाग्य-भाग्य की बात है भइया। सरकारी नौकरी की आस अभी बाकी है।
बचपन में नखड़ू अमरुद को मरुद और आदमी को इदमी कहा करते थे। उनकी यह जबान आज भी गांव के नयी पीढ़ी के लड़कों के लिए आकर्षण है। तहसील क्या गये उन्हें राजनीति का माहिर मान लिया गया। उनका साहब (लेखपाल) किसी का खेत जब चाहे तभी घटा-बढ़ाकर नाप देता है। लेखपाल साहब से नखड़ू की सिफारिश काम आती है। फिर ठीक भी कराते हैं। रोजाना २० से २५ किमी साइकिल का लोहा पेरते तहसील जाते है। खुश बहुत हैं। नखड़ू की याद अनायास ही आई। नखड़ू को याद करने की कोशिश की है। अगली पोस्ट में दूसरे व अनोखे नखड़ू की चर्चा करुंगा, जो मोगली के बाप जैसे हैं......
Wednesday, February 10, 2010
महंगाई भड़काने से राज्य सरकारें भी बाज नहीं आ रहीं
राज्य सरकारें कमरतोड़ महंगाई में भी करों का शिकंजा ढीला करने को तैयार नहंी हैं। प्रमुख खाद्य वस्तुओं पर करों की अधिकतम दरें वसूली जा रही हैं, जो महंगाई की मुश्किलों को और बढ़ा रही हैं। जरुरी खाद्य वस्तुओं पर करों का यह बोझ उत्तर से लेकर सुदूर दक्षिणी राज्यों में लगभग एक समान है। केंद्र ने महंगाई पर नियंत्रण पाने के लिए खाद्य वस्तुओं के आयात पर लगने वाले कर व शुल्कों को शत प्रतिशत माफ कर रखा है। सस्ती दाल व खाद्य तेलों की आपूर्ति के लिए प्रति किलो 10 से 15 रुपये प्रति किलो की सब्सिडी भी राज्यों को दी जा रही है लेकिन महंगाई को लेकर केंद्र पर निशाना साधने वाले राज्यों ने अपने करों में थोड़ी भी मुरव्वत नहीं की है। चीनी, दाल, गेहूं व चावल जैसी आवश्यक वस्तुओं पर इन सरकारों ने करों का चाबुक कस रखा है। यहां तक कि उत्तराखंड और झारखंड जैसे गरीब राज्यों में करों की उच्चतम दर वसूली जा रही है। जिन राज्यों अनाज दूसरे प्रदेशों से मंगाये जाते हैं, वहां तो इन करों के चलते हालात और भी खराब हो गये हैं। कृषि व खाद्य मंत्री शरद पवार के गृह राज्य महाराष्ट्र में जरुरी खाद्य जिंसो पर 7.5 फीसदी तक की दर से टैक्स वसूला जा रहा है। यहां गेहूं व चावल पर चार फीसदी के वैट के साथ अन्य कई तरह के टैक्स लगाये गये हैं। खाद्य वस्तुओं पर मूल्य वर्धित कर के साथ उपकर, खरीद कर, मंडी शुल्क व प्रवेश शुल्क लगाकर महंगाई को और भड़का रही हैं। पिछले कुछ महीनों में चीनी के भाव यूं ही 50 रुपये प्रति किलो पर नहीं पहुंच गये हैं झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में चीनी पर 12.5 प्रतिशत का वैट लगा हुआ है। जबकि हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडु चार फीसदी और बिहार में पांच फीसदी की टैक्स वसूली की जाती है। गेहूं, धान व चावल पर भी देश के लगभग सभी राज्यों में टैक्स वसूला जाता है। केंद्र सरकार लगातार राज्यों से महंगाई कम होने तक करों के प्रावधान को निलंबित रखने का आग्रह करता रहा है। लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। अनाज पर हरियाणा में 10.50 प्रतिशत, पंजाब में 12.50 प्रतिशत, राजस्थान में 8.10 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 8 प्रतिशत और आंध्र प्रदेश में 11.50 प्रतिशत टैक्स वसूला जाता है। ------------