Wednesday, November 28, 2012
बिना खाद के गेहूं बुवाई से हिचक रहे किसान
-खाद की किल्लत से गेहूं खेती के प्रभावित का खतरा
-उत्तरी राज्यों में बुवाई प्रभावित, अकेले उत्तर प्रदेश में 10 लाख हेक्टेयर पीछे
-खाद की कमी वाले राज्यों में डीएपी और एनपीके की कालाबाजारी
नई दिल्ली।
रबी सीजन की फसलों की बुवाई के शुरुआती सप्ताह में ही खादों की बढ़ी किल्लत सेगेहूं किसान सकते में हैं। देश में कुल तीन करोड़ हेक्टेयर रकबे में गेहूं की खेती होती है, लेकिन अभी तक केवल 49 लाख हेक्टेयर में ही गेहूं की खेती हो सकी है। किसानों को गेहूं बुवाई के लिए जरूरी डीएपी और एनपीके पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पा रही है, जिससे वह गेहूं बुवाई करने से हिचक रहा है।
उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, हरियाणा और मध्य प्रदेश में गेहूं बुवाई के लिए जरूरी डीएपी और एनपीके की भारी किल्लत है। नवंबर के तीसरे सप्ताह में गेहूं की बुवाई 20 लाख हेक्टेयर पीछे चल रही है। इसमें अकेले उत्तर प्रदेश में गेहूं की बुवाई 10 लाख हेक्टेयर पीछे चल रही है। राजस्थान, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में भी बुवाई पिछड़ी है।
गेहूं बुवाई में हो रहे विलंब से कृषि मंत्रालय की चिंताएं बढ़ गई हैं। बुवाई में देरी की वजह गिनाते हुए कृषि मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि खादों की किल्लत एक बड़ा कारण बन रहा है। गैर यूरिया खादों के मूल्य का तीन गुना तक अधिक बढ़ जाना भी किसानों के लिए बड़ी मुश्किल बन गया है। इसके बावजूद खादों की अनुपलब्धता गेहूं की खेती के लिए खतरा है। मंत्रालय के मुताबिक केंद्र सरकार खादों की उपलब्धता बनाने के लिए राज्यों से लगातार से संपर्क में है। कृषि मंत्रालय के मुताबिक रबी सीजन की खेती के लिए गेहूं उत्पादक राज्यों ने जितनी खाद की मांग की थी, लगभग उतनी आपूर्ति कर दी गई है। लेकिन किसी राज्य की ओर से अभी तक अतिरिक्त खाद की मांग नहीं की गई है।
उवर्रक मंत्रालय के मुताबिक उत्तर प्रदेश ने पिछले रबी सीजन के 31 लाख टन के मुकाबले 34 लाख टन यूरिया और पिछले साल के 10 लाख टन के मुकाबले केवल नौ लाख टन डीएपी मांगा था। डीएपी की जगह सवा लाख टन अतिरिक्त एनपीके मांग लिया था। बिहार को यूरिया 11 लाख टन, डीएपी पौने तीन लाख टन, एनपीके दो लाख टन और एमओपी डेढ़ लाख टन की दी जानी है। खाद की यह मात्रा राज्य की मांग के मुकाबले कहीं कम है। हरियाणा को 11 लाख टन यूरिया और चार लाख टन डीएपी की आपूर्ति की चुकी है। राज्यों में खाद की मांग का आकलन केंद्रीय एजेंसियों ने किया है।
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शैवाल व सीपियों से बनी गठिया की दवा से दर्द छूमंतर
महत्त्वपूर्ण खबर नई खोज
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भारतीय वैज्ञानिकों ने बनाईं बिना साइड इफेक्ट वाली गठिया की दवाएं
समुद्री मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान को कृषि मंत्रालय ने सराहा
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नई दिल्ली।
मुद्दतों से सुनते चले आए हैं कि गठिया है तो दर्द होगा ही। इस दर्द का कोई मुकम्मल इलाज नहीं है। इस जुमले को भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने झूठा साबित कर दिया है। उन्होंने समुद्री सीपों और शैवाल से ऐसी अनोखी दवा तैयार की है जो असहनीय पीड़ा से तड़पते गठिया रोगियों को दर्द से निजात दिलाएगी। शत-प्रतिशत प्राकृतिक होने की वजह के इस दवा का कोई साइड इफेक्ट नहीं है।
गठिया यानी आर्थराइटिस के रोगियों के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आइसीएआर) के वैज्ञानिकों ने नायाब नुस्खा तैयार किया है। समुद्री सीपों और हरी शैवाल घास से तैयार उनकी दवाएं किसी भी अंग्रेजी दवा के मुकाबले अधिक कारगर साबित हुई हैं। पूर्ण रूप से प्राकृतिक होने की वजह से इन दवाओं का साइड इफेक्ट बिल्कुल नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरने के बाद इन दवाओं का पेटेंट भी करा लिया गया है।
कोच्चि में केंद्रीय समुद्री मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान आइसीएआर का एक संस्थान है। यहां के वैज्ञानिकों को इस दवा को तैयार करने में लंबा समय लगा। बाजार में उपलब्ध देसी-विदेशी दवाओं से अस्थायी आराम ही मिलता है, साथ ये बहुत खर्चीली भी हैं। लेकिन अब भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के केंद्रीय समुद्री मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों के नायाब नुस्खे ने गठिया रोगियों में उम्मीद की किरण जगाई है।
इन वैज्ञानिकों ने समुद्री शैवाल और सीपों से आर्थराइटिस की ऐसी दवाएं तैयार की हैं, जो न सिर्फ इस रोग के प्रसार को रोकने में कामयाब होंगी, बल्कि जिनका खर्च वहन करना भी आसान होगा। आइसीएआर के समुद्र मात्स्यिकी वैज्ञानिकों ने पहले सीप अथवा घोंघे (म्यूजेल्स) से गठिया की जो दवा बनाई तो वह कारगर तो रही, लेकिन उसे मांसाहारी मानकर शाकाहारी रोगियों ने खाने से मना कर दिया। इस पर सामुद्रिक मात्स्यिकी वैज्ञानिकों ने साल भर के भीतर ही समुद्री घास, हरी शैवाल से उतनी ही कारगर शाकाहारी दवाएं तैयार कर दीं। वैज्ञानिकों ने पाया कि सीपों के वही गुण इन हरी शैवाल में भी मौजूद हैं। इस तरह अब मांसाहारी और शाकाहारी दोनों के लिए आर्थराइटिस की कारगर दवाएं उपलब्ध हैं। दोनों के कैप्सूल और टिकियां तैयार हो चुकी हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक इन दवाओं के प्रयोग से असह्यï पीड़ा से तत्काल मुक्ति मिल जाती है। यह एस्पिरिन के मुकाबले कई गुना अधिक कारगर साबित हुई है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन दवाओं का कोई साइड इफेक्ट नहीं है। मालूम हो कि देश में 20 करोड़ से अधिक आबादी गठिया रोग की असह्यï पीड़ा सहने को मजबूर है। उनके लिए उपयुक्त दवाएं उपलब्ध नहीं हैं।
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समझौते के बाद भी केंद्र की मुश्किलें नहीं होंगी कम
-राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति को लागू करना भी राज्यों का अधिकार क्षेत्र
-ज्यादातर मांगों का ताल्लुक राज्यों से, छह महीने में पूरा करने का वायदा
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नई दिल्ली।
सत्याग्रहियों से समझौता कर केंद्र सरकार भूमिहीन आदिवासियों को मनाने में भले ही सफल हो गई हो, लेकिन अब उसकी राह और कठिन हो गई है। राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति तैयार करने पर सहमति तो बन गई है, लेकिन जमीन संबंधी मसलों को सुलझाने के लिए राज्यों को ही आगे आना होगा। समझौता-पत्र में दर्ज मांगों में ज्यादातर का ताल्लुक राज्यों से है, जिन्हें पूरा कर पाना अकेले केंद्र के बस की बात नहीं है। और तो और, जो काम केंद्र सरकार अब तक नहीं कर पाई, उसे अगले छह महीने में पूरा करना होगा।
आगरा के समझौता-पत्र में सभी 10 मांगों को पूरा करने के लिए समयबद्ध कार्यक्रम निश्चित किया गया है। इसी निर्धारित समय में केंद्र सरकार राज्यों को मनाएगी भी। गैर कांग्र्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और उनकी सरकारें भला केंद्र की मंशा कैसे पूरा होने देंगी? इससे आने वाले दिनों में राजनीतिक रार के बढऩे के आसार हैं। हालांकि भाजपा शासित मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक दिन पहले ही भूमिहीन आदिवासी और अनुसूचित जाति के लोगों की मांगों को पूरा करने के लिए तमाम वायदे दोनों हाथों से उलीचे
समझौते के मुताबिक भूमिहीन आदिवासी और अनुसूचित जाति के लोगों के लिए राज्यों को जो कुछ करना है, उसमें एक दर्जन से अधिक मांगे शामिल हैं। एकता परिषद के नेता पीवी राजगोपाल का स्पष्ट कहना है कि केंद्र सरकार इन मांगों के लिए राज्यों पर दबाव बनाए। इसके लिए राज्य के मुख्यमंत्री, राजस्व मंत्री और उनके आला अफसरों के साथ विचार-विमर्श करे।
मौजूदा नियम व कानूनों को धता बताकर बड़ी संख्या में आदिवासियों की जमीनों पर गैर आदिवासियों के कब्जे को हटाकर उन्हें उनका हक दिलाना एक बड़ी समस्या है। अनुसूचित जातियों और आदिवासियों को आवंटित जमीनों का हस्तांतरण करना भी राज्यों के अधिकार क्षेत्र का मसला है। उद्योगों को लीज अथवा अन्य विकास परियोजनाओं के लिए अधिग्रहीत जमीनों का बड़ा हिस्सा सालों-साल से उपयोग नहीं हो रहा है। खाली पड़ी इन जमीनों को दोबारा भूमिहीनों में वितरित करना होगा और आदिवासी और अनुसूचित जाति के लोगों की परती और असिंचित भूमि को सिंचित बनाने के लिए मनरेगा के माध्यम के उपजाऊ बनाने पर जोर देना होगा।
बटाईदार और पट्टाधारकों को भी भूस्वामियों की तरह अधिकार हो, ताकि उन्हें बैंकों से कृषि ऋण आदि मिल सके। भूमि संबंधी सभी दस्तावेजों को पारदर्शी तरीके से ग्राम स्तर पर ही प्रबंधन किया जाए। भूमिहीनों के घर के लिए जमीनों का अधिग्रहण किया जाए। भूदान की समस्त भूमि का पुनर्सर्वेक्षण और भौतिक सत्यापन करके उस पर हुए अतिक्रमण को हटाया जाए। खाली हुई जमीन भूमिहीनों और वंचित वर्ग में वितरित की जाए।
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सत्याग्रहियों व केंद्र में समझौता, परसों आगरा में एलान
-ताज नगरी में 11 अक्तूबर को होगा समझौता पत्र पर हस्ताक्षर
-दो दिनों की लंबी चर्चा के बाद 10 सूत्री समझौते को मिली मंजूरी
भूमिहीन आदिवासी सत्याग्रहियों और सरकार के बीच दो दिनों तक चली वार्ता के बाद मंगलवार को समझौते पर सहमति हो गई। समझौता पत्र के प्रावधानों की घोषणा आगरा में 11 अक्तूबर को होगी। समझौते में सत्याग्रहियों की लगभग सभी मांगों को 10 सूत्रीय समझौते में समेटने की कोशिश की गई है। आगरा में आयोजित भूमिहीन आदिवासियों की प्रस्तावित जनसभा में उन्हीं के समक्ष समझौता पत्र पर हस्ताक्षर भी किए जाएंगे।
ग्वालियर वार्ता के टूटने के बाद समझौते का दूसरा चरण राजधानी दिल्ली में तब शुरू हुआ, जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खुद पहल की। उन्होंने केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश को इसका दायित्व सौंपा और समझौता कराने तक वार्ता जारी रखने को कहा। इसका जिक्र सोमवार को पत्रकारों से हुई बातचीत में भी जयराम ने किया। दरअसल चार साल पहले इन्हीं आंदोलनकारियों की मांग को स्वीकार करते हुए प्रधानमंत्री सिंह ने राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद का गठन किया था, लेकिन आज तक इसकी एक भी बैठक नहीं हो सकी है। इससे आंदोलनकारी ज्यादा खफा हैं।
सूत्रों के अनुसार समझौता पत्र में 10 मांगों को मंजूरी दी गई है। इसमें भूमि सुधार परिषद का पुनर्गठन, भूमिहीन आदिवासियों को आवास के लिए जमीन, भूमि संबंधी विवादों के निपटारे के लिए फास्ट ट्रैक ट्रिब्यूनल का गठन, मछुआरों, खेतिहर मजदूरों, नमक खेती मजदूर, कुष्ठ रोगी, बीड़ी मजदूर समेत अन्य अदृश्य समूहों को भूमि उपलब्ध कराने का प्रावधान शामिल किया गया है।
आदिवासी व अनुसूचित जाति के लोगों की जमीन पर दबंगों का कब्जा हटाना, विनोबा भावे के भूदान में मिली जमीन का वितरण के लिए राष्ट्रीय स्तर की कमेटी का गठन करने का प्रावधान शामिल किया गया है। राज्यों से जुड़ी मांगों के लिए राज्यों को विस्तार से पत्र लिखा जाएगा। जरूरत पडऩे पर राजस्व मंत्रियों का सम्मेलन और मुख्यमंत्रियों के साथ बैठकों का सिलसिला शुरू किया जाएगा। इन मांगों पर चर्चा के बाद दोनों पक्षों की ओर सहमति बन गई है।
सूत्रों ने बताया कि समझौते के मसौदे पर तो सोमवार को ही सहमति बन गई थी, लेकिन एकता परिषद के वार्ताकार परिषद के नेता राजगोपाल की हामी चाहते थे। दूसरी तरफ सरकार के वार्ताकार जयराम भी प्रधानमंत्री कार्यालय से मसौदे पर मुहर लगवाने के लिए एक दिन का और समय लिया। दोनों पक्षों के वार्ताकार मंगलवार को मिले और आधे घंटे में ही मसौदे को हरी झंडी दे दी गई।
जयराम रमेश ने बताया 'उनके और सत्याग्रहियों के बीच लगभग सभी मुद्दों पर सहमति बन गई है। 11 अक्तूबर को आगरा में सत्याग्रहियों की सभा में सरकार समझौते के प्रावधानों का एलान करेगी।Ó उन्होंने उम्मीद जताई कि भूमिहीन आदिवासी प्रेम की ताज नगरी आगरा से ही अपने अपने घरों को लौट जाएंगे। ऐतिहासिक नगरी में जरूरत पड़ी तो दोनों पक्षों की ओर से समझौते पर हस्ताक्षर भी किए जाएंगे। सत्याग्रहियों की ओर से एससी बहर ने समझौैता हो जाने की पुष्टि कर दी है।
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सरकार नहीं रोक सकी लाख भूमिहीनों का कारवां
विशेष
ग्वालियर।
सरकार की साख गिरने के बाद अब भूमिहीन खेतिहर मजदूर भी उस पर भरोसा करने को तैयार नहीं हैं। ऐसे ही एक लाख पद यात्रियों को समझाने गए दो केंद्रीय मंत्रियों को ग्वालियर से आज खाली हाथ लौटना पड़ा। वजह सिर्फ यह थी कि चार साल पहले जब इसी दिल्ली में इन्हीं एक लाख लोगों ने जमघट लगाया था, तब प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद का गठन कर दिया गया था। चार साल बीत गए लेकिन परिषद की एक मीटिंग तक नहीं हुई। इसीलिए खफा भूमिहीन आदिवासियों ने फिर दिल्ली की ओर कूच कर दिया है।
सरकार ने आज भी उनके साथ छलावा किया। ग्वालियर जाने वाली टीम में पहले मुद्दे से जुड़े चार बड़े मंत्रियों को जाना था, जिसमें नोडल मंत्री किशोरचंद्र देव भी शामिल थे। लेकिन वो नहीं भेजे गए। सिंधिया को तो ग्वालियर का होने के नाते भेजा गया। झोपड़ी बनाने भर को जमीन की मांग कर रहे भूमिहीन खेतिहर मजदूर और आदिवासियों का हुजूम केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक से शुरू होकर देश के 25 राज्यों के कुल 352 जिलों की पांच हजार किमी की पदयात्रा कर चुका है।
ग्वालियर पहुंचे इन पद यात्रियों का फाइनल पड़ाव राजधानी दिल्ली है, जहां पहुंचने में 16 दिन और लगेंगे। इसका एलान उन्होंने बहुत पहले ही कर दिया था। लेकिन केंद्र सरकार की आंख तब खुली, जब इन गरीबों व मजलूमों का हुजूम दिल्ली के नजदीक आ धमका।
पिछले साल डेढ़ साल से सिविल सोसाइटी के आंदोलनों से आजिज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एकता परिषद के नेतृत्व में दिल्ली की ओर बढ़ रही इस मुसीबत को रोकने का जिम्मा संबंधित विभागों के मंत्रियों को सौंपा। भूमि संसाधन, ग्र्रामीण विकास, आदिवासी मामले, सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता के मंत्रियों को इनसे वार्ता करने को कहा गया। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के नेतृत्व में बुधवार को किशोरचंद्र देव, मुकुल वासनिक और ज्योतिरादित्य सिंधिया को ग्वालियर जाना था। लेकिन ऐन वक्त पर सिर्फ जयराम रमेश और सिंधिया को चार्टर्ड हवाई जहाज से ग्वालियर भेजा गया।
ग्वालियर के मेला मैदान में अनुशासित तरीके से बैठे लाखों भूमिहीन व आदिवासियों के समक्ष दो घंटे से अधिक चली भाषणबाजी के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकला। दरअसल जिस परिपत्र पर हस्ताक्षर होना था, उसे पेश नहीं किया जा सका। दोनों ओर से एक दूसरे के लिए विस्तार से लिखे पत्र जारी किए गए। सरकार की ओर से जहां 11 अक्तूबर को दिल्ली में एक और बड़ी बैठक का प्रस्ताव रखा गया, वहीं आंदोलनकारियों ने इसे स्वीकार करते हुए तब तक पदयात्रा जारी रखने का एलान कर दिया। पदयात्रियों को पटाने में केंद्रीय मंत्रियों का राजनीतिक व रणनीतिक कौशल काम नहीं आया।
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दूध से जला, मट्ठा भी.....
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कहते हैं, दूध से जला म_ा भी फूंक फूंक कर पीता है। कुछ ऐसा ही केंद्र सरकार के साथ भी हुआ। ग्वालियर तक चढ़ आए आंदोलनकारियों को लौटाने के लिए जाने वाले केंद्रीय मंत्रियों का दल ऐन मौके पर छोटा कर दिया गया। पद यात्रियों ने इसे सरकार की पेशबंदी मानते हुए सही अर्थों में नहीं लिया और वहां गए केंद्रीय मंत्रियों को बिना समझौते के लौटा दिया। आंदोलनकारियों को सरकार की मंशा पर संदेह पैदा हो गया। उनका कहना था कि सरकार जानबूझकर लंबा समय खींच रही है।
सूत्रों की मानें तो सरकार ने फजीहत के डर से मंत्रियों का बड़ा समूह वहां नहीं भेजा। क्योंकि बाबा रामदेव को मनाने के लिए तीन बड़े केंद्रीय मंत्री एयरपोर्ट पहुंचे थे, जिसे लेकर बड़ी थू थू हुई थी।
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Saturday, September 22, 2012
नामी बनिया सरनामी चोर
खुदरा क्षेत्र में कारोबार करने वाली विदेशी कंपनियों को दिया रास्ता
साल डेढ़ साल में आ धमकेंगी विदेशी दुकानें
हम इतने भी भोले नहीं कि आंखों के सामने पड़ी मक्खी को निगल जाएं। लेकिन सरकार है कि हमे बुद्धू ही समझती है। विदेशी कंपनियो को देश में खुदरा कारोबार करने की छूट देकर सरकार बड़ी हेकड़ी से किसानों और उपभोक्ताओं के भले गिना रही है। इतना ही रोजी रोजगार आने के सब्जबाग दिखा रही है। हमने जिसे सरकार बनाया उसने तो सारे फैसले कर लिए हैं। विदेशी दुकानों के आने का रास्ता खुल भी गया है। दुनिया की भारी भरकम कंपनी वालमार्ट ने अगले साल डेढ़ साल में यहां आ धमकने का ऐलान भी कर दिया है। भगवान करें वैसा ही हो सरकार जैसा कह रही है। लेकिन ऐसा भला होगा कैसे? देसी बड़ी कंपनियों की दुकानें तो पहले से ही देश के कई शहरों में खुल चुकी हैं। इनका अनुभव बहुत अच्छा तो नहीं रहा। यहां उधारी तो चवन्नी की नहीं मिल सकती।
शुरु में दुकानें खुलीं तो क्या साफ सफाई, वातानुकूलित माहौल, पहिये वाली ट्राली पकड़कर घूमतें मेम साहबें और कीमतें बड़ी वाजिब। अदरक, लहसुन, नीबू, धनिया, हरी मिर्च और पुदीने वाला चटनी पैक सिर्फ पांच रुपये में। कटा कटाया सलाद और न जाने कितने तरह की सब्जियां बड़े सस्ते में ले जाइए, गरम करिए और पेट पूजा। यहां मोजा-जूता से लेकर टाई और सूट मिल रहा है तो दुकान के दूसरे छोर पर दूध और आलू भी बिक रहा है। इलेक्ट्रानिक्स के सामान व गारमेंट के बड़े ब्रांड भी उपलब्ध हैं।
बस फिर क्या था, इनकी ख्याति नामी बनिया और सरनानी चोर की तरह फैलने लगी। भीड़ कुछ ऐसे उमड़नी शुरु हुई कि सामान खरीदने के बाद बिल बनवाने की होड़ लगने लगी। लेकिन यह सब कितने दिन चला। साल डेढ़ साल में ही लोगों का मोह भंग होने लगा। बदबूदार सब्जी मंडी की ओर ही लोगों ने रुख करना शुरु कर दिया। यह तो रही उपभोक्ताओं के हित अथवा अहित की बात। विदेशी खुदरा कंपनियों को लाने के हिमायती नेताओं से भला कोई क्यों पूछता कि आखिर उनका विरोध उनके ही देश में क्यों हो रहा है। इसके चलते उनके नए स्टोर अब नहीं खुल पा रहे है।
इसका दूसरा पक्ष किसानों के हितों का है। दावा है कि विदेशी कंपनी आएगी तो किसानों से ही तो उनके उत्पाद खरीदेगी, बिचौलिए नहीं होंगे तो माल सस्ता मिलेगा। अरे भाई। अब घरेलू कंपनियों के कामकाज पर नजर डालिए। शुरु में इन कंपनियों के ट्रक गांवों की ओर रुख किए। लेकिन थोक में खरीदने के चक्कर में औने-पौने भाव देने पर उतर आई। क्यों कि इन कंपनियों ने जिन्हें खेतों से सब्जियां खरीदने का दायित्व सौंपा था, वे खुद बिचौलिए की भूमिका में आ गए हैं। यानी किसानों को तो वही भाव मिल रहा है जिस भाव पर उसका माल व्यापारी खेतों से सीधे खरीदते हैं। किसान व उपभोक्ता दोनों इससे रोजाना रूबरू हो रहे हैं, इसके बावजूद सरकार को भला यह क्यों नहीं दिख रहा है। तभी तो मक्खी निकलने का दबाव बनाया जा रहा है।
Wednesday, June 13, 2012
'त्रिशंकु कस्बों के बुनियादी विकास के लिए अब नई योजना
न गांव रहे और न कस्बे बन पाए तो उन्हें क्या कहें। हमे तो सूझ नहीं रहा,लेकिन सरकार ने उन्हें त्रिशंकु की संज्ञा से नवाजा है। क्यों कि उन्हें न तो ग्रामीण विकास मंत्रालय से मदद मिलती है और न ही शहरी विकास से।
उनका विकास कैसे हो? सरकार ने अब उन्हें 'त्रिशंकु कस्बों के रूप में चिन्हित किया है। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 'पुरा को संशोधित कर इन त्रिशंकु कस्बों के विकास की योजना तैयार की है। निजी-सरकारी भागीदारी (पीपीपी) के आधार पर इन कस्बों का विकास किया जाएगा। सरकार ने इस मद में 1500 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है।
आबादी के हिसाब से पिछले एक दशक में देश में ऐसे त्रिशंकु कस्बों की संख्या बढ़कर तीन गुना हो गई है। इस श्रेणी में ऐसे 'गांवों को रखा गया है, जिनकी आबादी पांच हजार से अधिक है। ऐसे कस्बों जिनके 75 फीसदी पुरुष गैर कृषि रोजगारों में हों और आबादी का घनत्व प्रति किलोमीटर 400 अथवा इससे अधिक हो उन्हें न तो शहरी विकास मंत्रालय से मदद मिल पाती है और न ही ग्रामीण विकास मंत्रालय से।
लिहाजा प्रॉविजन आफ अर्बन एमिनीटीज इन रूरल एरियाज (पुरा) वाली योजना में सरकार ने भारी संशोधन कर दिया गया है। अब इसका लाभ उन गांवों को मिलेगा, जिनका शहरीकरण तो हो गया है, लेकिन जो शहर की श्रेणी में नहीं आ पाए हैं। यहां सरकारी निजी भागीदारी (पीपीपी) के आधार पर योजनाएं संचालित होंगी। सरकार ऐसी प्रत्येक परियोजना पर 40 रुपये का अनुदान देगी बाकी खर्च निजी क्षेत्र को करना होगा।
कस्बे में सड़क, पेयजल, सफाई, स्ट्रीट लाइट और सीवर लाइन बिछाई जाएगी। निजी क्षेत्र अपने निवेश की वसूली शुल्क लगाकर अगले 10 सालों में कर सकेगा। जयराम रमेश ने बताया कि राज्य सरकार की देखरेख में ग्र्राम पंचायत और निजी कंपनी के बीच सभी शर्तों पर समझौता होगा, जिसमें कस्बे का विकास और शुल्क के प्रावधान का जिक्र होगा।
वर्ष 2001 में देश में ऐसे त्रिशंकु कस्बों की संख्या 1362 थी, जो 2011 में बढ़कर 3894 हो गई है। उत्तर प्रदेश में ऐसे कस्बों की संख्या 66 से बढ़कर 267 हो गई है। पश्चिम बंगाल और केरल में इनकी संख्या में सबसे ज्यादा वृद्धि हुई है। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा 'ऐसे त्रिशंकु कस्बों में बुनियादी ढांचे की हालत बहुत खराब है। इसी समस्या के समाधान के लिए मंत्रालय ने गांवों में शहरों जैसी सुविधा (पुरा) योजना को संशोधित कर दिया। अब यह योजना इन्हीं त्रिशंकु कस्बों के लिए होगी।Ó हैरानी जताते हुए रमेश ने कहा 'इन कस्बों के विकास के लिए इनका कोई माई बाप नहीं है।Ó चालू वित्त वर्ष में केरल के ऐसे दो कस्बों के विकास का कार्य निजी क्षेत्र के सहयोग से शुरू करा दिया गया है।
घूरों के दिन बहुरेंगे, गांवों को मिलेंगे लाखों
कहते हैं कि कुछ सालों में घूरों के भी दिन बहुरते हैं तो सचमुच में बहुरने वाले हैं। सरकार ने तो यही फैसला किया है। घूरे वह भी गांव के। सीसीईए ने इसकी घोषणा कर दी है। ग्रामीण क्षेत्रों में कूड़ा-कचरा प्रबंधन व निपटान के लिए सरकार ने पहली बार नायाब पहल करते हुए देश के हर गांव को एकमुश्त वित्तीय मदद देने का फैसला किया है। आबादी के हिसाब से हर गांव को न्यूनतम 7 लाख और अधिकतम 20 लाख रुपये की वित्तीय मदद मुहैया कराई जाएगी।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीईए) की बैठक में संपूर्ण स्वच्छता अभियान का नाम बदलकर निर्मल भारत अभियान कर दिया गया। साथ ही ग्र्रामीण क्षेत्रों में कचरा प्रबंधन के लिए गांवों को मदद देने के प्रस्ताव पर फैसला लिया गया। बैठक में ग्र्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक शौचालय बनाने पर दी जाने वाली वित्तीय मदद को दोगुना से भी अधिक बढ़ाकर 10 हजार रुपये कर दिया गया है।
खुले में शौच करने की प्रवृत्ति खत्म करने के लिए ग्र्रामीण शौचालयों के लिए केंद्र की ओर से 2100 रुपये मिलते थे, उसे बढ़ाकर 3200 रुपये कर दिया गया है। जबकि राज्य सरकार की हिस्सेदारी 1000 से बढ़ाकर 1400 रुपये और लाभार्थी की 300 से बढ़ाकर 900 रुपये की गई है। ग्र्रामीण विकास मंत्रालय के उस प्रस्ताव को भी मंजूरी मिल गई है, जिसमें मनरेगा की हिस्सेदारी 1200 से बढ़ाकर 4500 रुपये की गई है।
सीसीईए की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वच्छता अभियान को उन 200 जिलों में प्राथमिकता के तौर पर चलाने की बात कही, जिनमें कुपोषण की समस्या सबसे अधिक है। निर्मल भारत अभियान का लाभ सिर्फ बीपीएल परिवारों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इसका लाभ सभी परिवारों को दिया जा सकेगा। गरीब परिवारों को प्राथमिकता जरूर दी जाएगी। सीसीईए में यह भी फैसला लिया गया कि इंदिरा आवास योजना के मकानों में शौचालय अनिवार्य रूप से बनाए जाएंगे। योजना में घर बनाने की लागत को भी बढ़ाने का प्रस्ताव है।
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कहां कितने निर्मल गांव
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-उप्र के 52 हजार गांवों में से केवल 1080 गांव निर्मल
-बिहार के कुल 8474 गांवों में से 217 गांव निर्मल
-झारखंड के 4464 गांव में से 225 निर्मल
-हरियाणा में 6500 में से 1600 गांव निर्मल
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Friday, June 1, 2012
मैं उस जमाने का हूं.....हां जी
हैरानी इसी बात की है कि मैं उस जमाने का हूँ, जब दहेज में हाथ घड़ी, रेडियो और साइकिल मिल जाने पर लोग बहुत खुश होते थे। तब बहुएं जलाई नहीं जाती थीं। बच्चे स्कूलों के नतीजे आने पर आत्महत्या नहीं करते थे। इसकी जगह स्कूल में मास्टर जी और घर में पिताजी, धुन दिया करते थे। बच्चे चौदह-पन्द्रह साल तक बच्चे ही रहा करते थे तब मानवाधिकार अजूबी चिरई होती थी। कम लोग ही जानते थे। मैं उस जमाने का हूँ जब कुँए का पानी गर्मियों में ठंडा और सर्दियों में गरम होता था। घरों में फ्रिज नहीं मटके और 'दुधहांड़ी' होती थी दही तब सफेद नहीं हल्का ललौक्षा लिए होता था। सर्दियों में कोल्हू गड़ते ही ताज़े गुड़ की महक से पूरा गांव गमक उठता था। गरीबों के पेट भरने की मुश्किलें खत्म हो जाती थीं। माई उसी ऊख के रस में चावल डालकर बखीर बना लेती थी। आम की बगिया तो थी पर 'माज़ा' नहीं था। 'राब' का शरबत तो था पर कोल्डड्रिंक्स नहीं थे। पैसे बहुत कम थे पर जिंदगी बहुत मीठी। सचमुच मैं उस जमाने का हूँ जब गर्मियां आज जैसी ही होती थीं पर एक अकेला 'बेना' उसे हराने के लिए काफी होता था। दुपहरिया में दरवाजे की सिकड़ी चढ़ा दी जाती थी। बच्चों को घरों में नजरबंद करने में ही माई अपनी सफलता समझती थी। माई थी कि बगल वाली काकी के साथ बिछौने पर साड़ी चढ़ाई जाती थी। सींक से बने 'बेने' और उन पर झालरें लगाने की कला कमाल की थी। तब सरकार की मोहताज नहीं थी जिंदगी बल्कि जीवन में रची बसी थी खुशी। मैं उस ज़माने का हूँ जब गांव में खलिहान हुआ करते थे। मशीनें कम थीं। ज्यादा लोग बैल या भैसो कि जोड़ी रखते थे। महीनों दंवाई यानी मड़ाई चलती थी तब कहीं फसल घर आ पाती थी। पइर पर सोने का सुख मेट्रेस पर सोने वाला क्या जाने। अचानक आई आंधी से भूसा और अनाज बचाते हुए ..हम न जाने कब जिंदगी की आँधियों से लड़ना सीख गये पता ही नही चला। मैं उस जमाने का हूँ जब किसान अपनी जरूरत की हर चीज़ जैसे धान, गेंहू, गन्ना, सरसों, ज्वार, चना, आलू , धनिया लहसुन, प्याज, अरहर, तिल्ली और सांवा सब कुछ पैदा कर लेता था। धरती आज भी वही है पर आज नकदी (फसलों) का ज़माना है। बुरा हो इस आर्थिक उदारीकरण का जिस पैसे के पीछे इतना जोर लगा के दौड़े अब न तो उस पैसे की कोई कीमत है और न इंसान की।
Wednesday, May 30, 2012
यूपी की ग्रामीण सड़कों को नहीं मिल पाई मंजूरी
-जून तक टल गई सड़कों के प्रस्तावों पर मंजूरी की मुहर
-उत्तर प्रदेश के 25 जिलों में सड़कों से नहीं जुड़ पाए हैं गांव
-नक्सल प्रभावित तीन जिलों के प्रस्ताव भी पेश कर पाए अफसर
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अफसरों की लापरवाही क्या कुछ नहीं करा सकती, उसका अंदाजा उत्तर प्रदेश के अधिकारियों की करतूतों से लगाया जा सकता है। उनकी गलती से गांवों को जोड़ने वाली सड़कों को केंद्र से मिलने वाली मंजूरी जून तक के लिए टाल दी गई। भला हो ऐसे अफसरों का, जिन्होंने यह कारनामा कर दिखाया। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत इन सड़कों के बनाए जाने की मंजूरी मिलनी थी। केंद्रीय ग्र्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने बैठक में हिस्सा लेने आए अफसरों को इस लेटलतीफी के लिए आड़े हाथों भी लिया। राज्य के दो दर्जन से अधिक जिलों में सभी गांव अभी भी सड़कों से नहीं जुड़ पाए हैैं।
ग्र्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा 'सभी गांवों के प्रधानमंत्री ग्र्रामीण सड़क योजना (पीएमजीएसवाई) के तहत सड़कों से जुडऩे के बाद ही पुरानी सड़कों के उच्चीकरण के प्रस्ताव पर विचार किया जाएगा। ऐसा न करने पर राज्य सरकारें छोटे गांवों को जोडऩे के बजाए उच्चीकरण पर ज्यादा ध्यान देने लगेंगी।Ó रमेश ने इस बात पर भी हैरानी जताई की उत्तर प्रदेश के नक्सल प्रभावित जिलों के भी गांव अभी तक सड़कों से नहीं जुड़ पाए हैं। जबकि ऐसे जिलों में सड़कों का निर्माण प्राथमिकता के आधार पर कराया जाता है।
राज्य में 25 जिले ऐसे हैं, जिनके सभी गांवों संपर्क मार्ग से नहीं जुड़ पाए हैं। पांच सौ से 999 तक की आबादी वाले सभी गांवों को जोडऩे की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार नहीं है। राज्य के मिर्जापुर, चंदौली और सोनभद्र जैसे नक्सलग्रस्त जिलों के 250 की आबादी वाले गांवों को जोडऩे का प्रस्ताव तैयार नहीं है।
बैठक में हिस्सा लेने आए उत्तर प्रदेश के अफसर उस समय सकते में आ गए, जब ग्र्रामीण विकास मंत्री ने उनसे राज्य की प्रस्तावित सड़कों की विस्तृत रिपोर्ट पेश करने को कहा। रिपोर्ट पेश करने में असमर्थ होने की दशा में केंद्रीय मंत्री ने उन्हें जून के आखिरी सप्ताह तक विस्तृत परियोजना रिपोर्ट पेश करने को कहा। राज्य के अफसर संपर्क मार्ग की रिपोर्ट के बजाए पुरानी सड़कों के उच्चीकरण वाली फाइलें पूरी तरह तैयार करके पहुंचे थे। लेकिन ग्र्रामीण मंत्रालय ने राज्य में संपर्क मार्ग का काम पूरा होने के बाद ही उच्चीकरण की फाइल पेश करने का निर्देश दिया।
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गांवों में पीने के पानी का देना होगा शुल्क
2020 तक देश के 90 फीसदी गांवों में नलों से मिलेगा पेयजल
-राज्यों के मंत्रियों ने जयराम के प्रस्ताव पर बनाई सहमति
-बिहार ने पेयजल आपूर्ति की राष्ट्रीय नीति बनाने का रखा मसौदा
-नलों से पेयजल की आपूर्ति में उत्तर प्रदेश फिसड्डी
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गांवों में भी पीने के पानी का शुल्क देना होगा। केंद्र सरकार के इस प्रस्ताव पर लगभग सभी राज्यों से सहमति जताई है। इसके लिए प्रत्येक परिवार को रोजाना अपनी ग्र्राम पंचायत में एक रुपये की राशि जमा करानी होगी। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि ग्र्रामीण भारत के लोग साफ पानी के लिए शुल्क देने को राजी हैं। राज्यों के पेयजल व च्वच्छता मंत्रियों के सम्मेलन में इस पर आम सहमति बन गई। मिशन 2020 के तहत 90 फीसदी गांवों में नलों से पीने का पानी देने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। नलों से पेयजल आपूर्ति में उत्तर प्रदेश और बिहार फीसड्डी साबित हुए हैं।
पेयजल आपूर्ति औच् स्वच्छता पर राज्यों केमंत्रियों के दो दिवसीय सम्मेलन के अंतिम दिन ग्र्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि केंद्र के धन से पेयजल कार्यक्रम के तहत किसी राज्य को हैंडपंप लगाने की अनुमति नहीं दी जाएगी। उन्होंने कहा कि इसके विपरीत उत्तर प्रदेश और बिहार में सबसे अधिक मांग हैंडपंपों की होती है। सांसद निधि से भी तात्कालिक व्यवस्था के तहत हैंडपंप लगाए जा रहे हैं।
राज्यों के मंत्रियों के सम्मेलन उत्तर प्रदेश और बिहार में पेयजल आपूर्ति में ओवरहेड टैंकों और पाइप वाली योजनाओं को प्राथमिकता दी जाएगी। इन राज्यों में नलों से पेयजल आपूर्ति 10 फीसदी से भी कम होती है, जो देश में सबसे कम है। नलों से पेयजल आपूर्ति के बदले ग्र्रामीण परिवारों को महाराष्ट्र के गढ़चिरौली की तर्ज पर टोकन राशि के तौर पर एक रूपये रोजाना ग्र्राम पंचायत में जमा करना होगा। उस राशि का उपयोग पेयजल आपूर्ति के रखरखाव के लिए किया जाएगा।
पेजयल की समस्या गंभीर हो चुकी है। इसके हल के लिए केंद्र सरकार ने मिशन 2020 तैयार किया है, जिसके तहत 90 फीसदी गांवों में नलों से पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित की जाएगी। यह सभी लोगों का संवैधानिक अधिकार है। उत्तर प्रदेश के पेयजल आपूर्ति मंत्री अरविंद सिंह गोप ने राज्य में पेयजल समस्या से निजात पाने के लिए केंद्र से मदद की गुहार की। उन्होंने भरोसा दिया कि राज्य पेयजल अच्र स्वच्छता कार्यक्रम के लिए केंद्रीय मदद का पूरा उपयोग करेगा।
बिहार ने पेयजल आपूर्ति के लिए केंद्र से राष्ट्रीय नीति बनाने की बात कही तो झारखंड ने कहा कि उनके पिछड़े राज्य में पेयजल जल के लिए कम से कम चार हजार करोड़ रुपये की जरूरत है। हरियाणा ने मेवात और महेंद्रगढ़ के मरूभूमि वाले क्षेत्र में पेयजल आपूर्ति के लिए अतिरिक्त मदद की गुहार की। इन जिलों में खारे पानी की गंभीर समस्या है।
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यूपीए के तीन साल, महंगा आटा, महंगी दाल
सरकार उपलब्धियों का सच
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-खाद्यान्न प्रबंधन पर भारी पड़ी सरकार की नीतिगत विफलता
-खाद्यान्न कारोबार पर प्रसंस्करण और थोक व्यापारियों का एकाधिकार
-गरीबों की दाल रोटी पर गहराया संकट
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि का सच गरीबों के लिए बहुत कड़वा है। देश में गेहूं की रिकार्ड पैदावार के बावजूद आटा और गेहूं की कीमत में दो से ढाई गुना का फर्क है। जबकि दाल दलहन के मुकाबले तीन गुनी तक महंगी है। यह इस बात का प्रमाण है कि खाद्यान्नों की भारी आपूर्ति के बावजूद सरकार जिंस बाजार को संभालने में विफल रही है। जिससे गरीबों की नहीं आम लोगों की दुश्वारियां बढ़ गई हैं। इसे शासन की विफलता के रूप में देखा जा सकता है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार के तीन साल के कार्यकाल की उपलब्धियां गिना रहे थे। अनाज के बंपर उत्पादन को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बताई है। यह सच भी है। लेकिन बाजार में आटा व दाल की कीमतों पर इसका कोई असर नहीं है। सरकार की खाद्य नीति में असंतुलन है। खाद्य उत्पादों पर लगाम कसने वाला प्रशासनिक अमला हार चुका है। खाद्यान्न प्रबंधन की खामियां इसके लिए जिम्मेदार हैं। मांग और आपूर्ति के सिद्धांत के विपरीत बाजार सटोरियों व जमाखोरों के हाथों में खेल रहा है।
अनाज की भारी पैदावार पर सरकार इतरा रही है, लेकिन उसके प्रबंधन की चूक पर वह चुप्पी साधे है। तभी तो जिंस बाजार में गेहूं साढ़े नौ से 11 रुपये किलो और आटा 20 से 25 रुपये किलो बिक रहा है। इसी तरह 33 रुपये किलो की अरहर और उसकी दाल 90 रुपये किलो। खुले बाजार में गेहूं समर्थन मूल्य 1285 रुपये प्रति क्विंटल से नीचे यानी 950 से 1100 रुपये क्विंटल पर बिक रहा है। लेकिन हैरानी यह कि जिंस बाजार में गेहूं आटे का मूल्य किसी भी हाल में 20 रुपये से नीचे नहीं है। प्रीमियम क्वालिटी के नाम पर गेहूं आटा 25 से 30 रुपये किलो तक बिक रहा है। ब्रांडेड गेहूं आटे का मूल्य इससे कहीं अधिक है।
दालों के मूल्य तो और भी अतार्किक तरीके से बढ़ाए गए हैं। घरेलू बाजार में अरहर की की कीमत 3300/3400 रुपये प्रति क्विंटल बिक रही है। जबकि अरहर की दालें 9000 से 9500 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गई हैं। दालों के प्रसंस्करण करने वालों की मानें तो प्रति किलो दाल पर 10 से 15 रुपये प्रति किलो की लागत आती है। लेकिन तैयार दालों के मूल्य खुदरा बाजार में बहुत अधिक हैं।
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जिंस बाजार की
उलटबांसियां :
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-खाद्यान्न पैदावार 25.50 करोड़ टन -गेहंू साढ़े नौ से 11 रुपये किलो -आटा 20 से 28 रुपये किलो -अरहर 33 से 34 रुपये किलो -अरहर दाल 70 से 85 रुपये किलो ----------------------
बुंदेलखंड में केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय खोलने का रास्ता साफ
-राष्ट्रीय महत्त्व का संस्थान घोषित कर राज्यसभा में पेश किया विधेयक
-इंफाल की तर्ज पर खुलेगा केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय
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बुंदेलखंड क्षेत्र में रानी लक्ष्मीबाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए शरद पवार ने राज्यसभा में एक विधेयक पेश किया। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के दो साल पहले बुंदेलखंड दौरे के समय सरकार ने इस कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना की घोषणा की थी। सदन में विधेयक पेश करते हुए पवार ने कहा कि यह विश्वविद्यालय बुंदेलखंड के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है क्योंकि बुंदेलखंड का यह इलाका आज भी आर्थिक रूप से काफी पिछड़ा है। इस विश्वविद्यालय के दायरे में उत्तर प्रदेश के सात और मध्य प्रदेश के छह जिले आएंगे। उन्होंने कहा कि सरकार पूर्व में इंफाल में भी एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय स्थापित कर चुकी है।
पवार के विधेयक पेश किए जाने की सदन से अनुमति मांगे जाने पर माकपा के पी. राजीव ने आपत्ति जताते हुए कहा कि संविधान के अनुसार संसद इस तरह का कानून बनाने में सक्षम नहीं है। केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना संघ सूची में शामिल नहीं है इसलिए सरकार यह विधेयक पेश नहीं कर सकती। इस पर सदन में भाजपा सहित कुछ अन्य दलों के सदस्य भी आपत्ति उठाने लगे। पवार ने आपत्तियों पर सवाल खड़ा करते हुए कहा कि पचीस साल पहले मणिपुर के इंफाल में जब ऐसा ही विश्वविद्यालय खोला जा सकता है तो बुंदेलखंड में क्यों नहीं?
इस पर विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने कहा कि सरकार इस तरह का विधेयक नहीं बना सकती है। यदि सरकार प्रस्तावित विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित कर दे तो वह इसका विधेयक ला सकती है। उन्होंने सुझाव दिया कि कृषि मंत्री सदन को यह आश्वासन दें कि वह सरकारी संशोधन के जरिए विधेयक में ऐसा प्रावधान शामिल करेंगे। जेटली के सुझाव पर पवार द्वारा सहमति जताए जाने के बाद सदन ने इस विधेयक को पेश करने की ध्वनिमत से मंजूरी दे दी।
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दूध की कमी से बेफिक्र सरकार दुग्ध पाउडर निर्यात पर आमादा
सब्सिडी के साथ होगा गरमी में स्किम्ड मिल्क पाउडर का निर्यात
कमी के चलते साल भर में पांच बार बढ़ाए जा चुके हैं दूध के दाम
निर्यात सब्सिडी पर कैबिनेट की बैठक में हो सकता है हंगामा
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दूध में और उबाल आनी हो तो आए। केंद्र सरकार तो वही करेगी, जो उसे भाएगा। यही वजह है कि अगले कुछ दिनों में दूध का मूल्य बढऩा तय हो गया है। दूध की कमी से देश में चौतरफा कीमतें बढ़ रही हैं। सालभर में पांच बार दूध के दाम बढ़ चुके हैं। अब एक बार और।
दूध पाउडर का निर्यात सरकार करने जा रही है। वह भी सब्सिडी के साथ। इसकी घोषणा केंद्रीय मंत्रिमंडल की अगली बैठक में होनी है। निर्यातकों को दूध पाउडर के निर्यात पर सब्सिडी देने के पीछे सरकार का तर्क है कि इससे वे अंतराष्ट्रीय बाजार में आसानी से माल बेच सकेंगे। लेकिन फिर भी यह इतना आसान नहीं है और कैबिनेट बैठक में निर्यात सब्सिडी के मुद्दे पर हंगामा हो सकता है।
दुग्ध उत्पाद केसिन के निर्यात की अनुमति केंद्र पहले ही दे चुका है। जबकि दूध पाउडर के निर्यात का फैसला ऐसे भीषण गरमी के मौसम में किया जा रहा है जब दूध का उत्पादन अपने निचले स्तर पर पहुंच चुका है। कृषि मंत्रालय के तैयार कैबिनेट नोट में 60 हजार टन स्किम्ड मिल्क पाउडर (एसएमपी) के निर्यात का प्रस्ताव तैयार किया गया है। मसौदे पर परसों यानी बृहस्पतिवार को फैसला लिए जाने की संभावना है।
कैबिनेट नोट में दुग्ध पाउडर के निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए प्रति टन 30 हजार रुपये की सब्सिडी देने का प्रावधान है। इसमें एक और शर्त जोड़ी गई है कि 15 हजार रुपये की मदद संबंधित राज्य सरकार करेगी जबकि बाकी 15 हजार की सब्सिडी केंद्र सरकार वहन करेगी।
तथ्य यह है कि राष्ट्रीय दुग्ध विकास परिषद (एनडीडीबी) ने पिछले साल दूध की बढ़ी कीमतों को थामने के लिए 50 हजार टन दूध पाउडर का आयात किया था। लेकिन चालू साल में जाड़े के लंबा खिंच जाने की वजह से दूध की पर्याप्त उपलब्धता रही। इसके बावजूद घरेलू बाजार में दूध की कीमतें नहीं घटीं, बल्कि कीमतें कई मर्तबा बढ़ाई गईं। बकौल डेयरी संघ, दूध पाउडर की घरेलू मांग एक लाख टन है, जबकि कुल उपलब्धता 1.70 लाख टन है।
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खाद्यान्न के उठाव में देरी, केंद्र पर भड़के हुड्डा
थामस से हुड्डा ने की मुलाकात
-पंजाब के मुकाबले हरियाणा से कम हो रहा उठाव, एफसीआई पर आरोप
-हरियाणा में खुले में पड़ा है एक करोड़ टन गेहूं व चावल
-खाद्य मंत्रालय हरकत में, एफसीआई से उठाव में तेजी लाने का दिया निर्देश
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हरियाणा में एक करोड़ टन से अधिक अनाज खुले में बने जैसे तैसे पड़ा हुआ है। मानसून की बौछारों के साथ इसके खराब होने की आशंका है। राज्य के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने इसी मसले को लेकर बुधवार को यहां खाद्य मंत्री केवी थामस से मुलाकात की। एफसीआई पर भेदभाव का आरोप लगाते हुए उन्होंने राज्य से अनाज का पर्याप्त उठाव न होने पर अपनी सख्त नाराजगी जाहिर की। खाद्य मंत्री ने खाद्यान्न के उठाव को तेज करने का भरोसा दिया है।
मुख्यमंत्री हुड्डा ने अपनी नाराजगी जताते हुए यहां तक कह दिया कि पंजाब से गेहूं का उठाव बहुत ज्यादा हो रहा है, लेकिन हरियाणा से गेहूं का उठाव न के बराबर हो रहा है। इससे यहां पड़े गेहूं के सडऩे की आशंका है। 'जागरणÓ से बातचीत में हुड्डा ने कहा कि उन्होंने राज्य से हर महीने 10 लाख टन अनाज के उठाव की मांग की है। फिलहाल यहां से हर महीने केवल चार लाख टन अनाज ही दूसरे राज्यों को भेजा जा रहा है। मुख्यमंत्री हुड्डा की बातों को सुनने के बाद थामस ने एफसीआई के अधिकारियों की बैठक कर अनाज के उठाव में तेजी लाने का निर्देश दिया है।
राज्य के खाद्य आपूर्ति मंत्री महेंद्र प्रताप सिंह ने बताया कि राज्य में कुल 1.50 करोड़ टन गेहूं व चावल का स्टॉक है। इसका दो तिहाई हिस्सा खुले में अस्थाई तौर पर रखा गया है। चालू रबी खरीद सीजन में अब तक 86 लाख टन गेहूं की खरीद हो चुकी है। राज्य में गेहूं के अलावा खरीफ सीजन में खरीदा गया चावल भी पड़ा हुआ है। एफसीआई की कार्यप्रणाली पर नाराजगी जताते हुए महेंद्र प्रताप ने कहा कि पंजाब के मुकाबले हरियाणा से अनाजों का उठाव बहुत कम हो रहा है।
राज्य के खाद्य मंत्री सिंह ने कहा कि मानसून की आमद के साथ ही खुले में पड़े गेहूं व चावल के खराब होना तय है। लेकिन इस अनाज के रखरखाव का सारा दारोमदार एफसीआई का है। इसके बावजूद वह लापरवाही कर रही है। हालांकि अनाज के खराब होने से बचाने और गोदामों को खाली करने के लिए ही राज्य सरकार केंद्र से आग्र्रह कर रही है। केंद्र ने आश्वस्त किया है कि इस दिशा में तेजी से कदम उठाये जाएंगे।
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राज्यों में गेहूं खरीद से केंद्र की बढ़ी सांसत
-30 जून तक होगी गेहूं की सरकारी खरीद
-उत्तर प्रदेश में प्लास्टिक बोरों के साथ पुराने जूट बोरों के उपयोग की छूट
-मध्य प्रदेश में गेहूं खरीद में गड़बड़ी की आशंका, जांच को जाएंगी केंद्रीय टीम
-खाद्यान्न संभालने को लेकर केंद्र को नहीं सूझ रहा रास्ता
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गेहूं खरीद में आमतौर पर पीछे रहने वाले राज्यों में भारी खरीद से केंद्र सरकार की सांसत बढ़ गई है। प्रधानमंत्री कार्यालय और वित्त मंत्रालय ने इसे गंभीरता से लेते हुए खाद्य मंत्रालय को गेहूं खरीद की राह में आने वाली मुश्किलों के समाधान करने का निर्देश दिया है। यही वजह है कि गेहूं खरीद की तारीख 30 जून तक बढ़ी दी गई है। मध्य प्रदेश के बाद अब उत्तर प्रदेश में गेहूं खरीद बहुत तेज हो गई है।
उत्तर प्रदेश में जहां गेहूं खरीद बढ़ गई है, वहीं मध्य प्रदेश में हुई अनपेक्षित भारी खरीद पर केंद्र को संदेह होने लगा है। यही वजह है कि अगले सप्ताह तक खाद्य मंत्रालय से उच्चाधिकारियों का एक दल मध्य प्रदेश का दौरा करेगा। आशंका है कि वहां राशन दुकानों के लिए आवंटित पुराना गेहूं दूसरे रास्ते खरीद केंद्रों पर पहुंचने लगा है।
केंद्रीय खाद्य मंत्रालय का अनुमान है कि उत्तर प्रदेश सरकार जिस तरह गेहूं खरीद में सक्रियता दिखा रही है, उससे भारी मात्रा में गेहूं का स्टॉक हो जाएगा। इसे संभालना केंद्रीय खाद्य मंत्रालय की एजेंसियों के लिए भारी पड़ेगा। उत्तर प्रदेश में गेहूं खरीद के लिए जूट बोरों की आपूर्ति का मसला अभी भी अटका हुआ है, जिससे राज्य में गेहूं की खरीद प्रभावित हो रही है। केंद्रीय खाद्य मंत्री केवी थामस ने कहा कि राज्य सरकार की मांग के मद्देनजर वहां प्लास्टिक बोरों के सीमित उपयोग की छूट दे दी गई है। लेकिन राज्य सरकार इस रियायत से संतुष्ट नहीं है।
थामस ने कहा कि उत्तर प्रदेश से जितने बोरों की मांग आई है, उसे अगले एक सप्ताह में पूरा कर दिया जाएगा। राज्य सरकार को सिर्फ 20 हजार प्लास्टिक बोरे और 11.50 लाख पुराना जूट बोरे के उपयोग की छूट दी गई है। उत्तर प्रदेश सरकार ने और 53 हजार प्लास्टिक बोरे खरीदने की मांग की है। खाद्य मंत्रालय ने उत्तर प्रदेश सरकार के इस प्रस्ताव को टेक्सटाइल मंत्रालय के विचारार्थ भेज दिया है।
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Thursday, May 17, 2012
अफसरों पर गिरेगी चीनी आंकड़ों में गलती की गाज!
आंकड़ों के हेरफेर से खेल करने वाले अफसरों पर भला लगाम कौन लगा सकता है? चीनी उत्पादन को लेकर हमेशा से परस्पर विरोधाभाषी आंकड़ों से नफा कमाने का खेल होता रहा है। लेकिन इस बार मामला कुछ अलग था। गड़बड़ करने वाले अफसरों ने वही गड़बड़ आंकड़ा औद्योगिक उत्पादन सूचकांक तैयार करने वालों को पक़ड़ा दिया। वहां भी आंखे मूंद अफसर बैठे थे। वहां भी होश खोए अधिकारी बैठे थे। एक महीने के चीनी उत्पादन के आंकड़े की जगह चार महीने की चीनी का आंकड़ा जोड़कर औद्योगिक सूचकांक का आंकड़ा ही बिगाड़ दिया। लेकिन इन भलामानुषों को इस जगजाहिर गड़बड़ी का पता तब चला, जब किसी बाहरी ने इस पर सवाल खड़ा किया। अब मंत्रालयों व विभागों के बीच गलती करने वाले की तलाश की जा रही है।
चीनी उत्पादन के गलत आंकड़े देने के विवाद को खाद्य मंत्रालय ने गंभीरता से लिया है। मंत्रालय में इसकी आंतरिक जांच शुरू कर दी गई है। मंत्रालय से संबद्ध चीनी निदेशालय के कुछ अधिकारियों पर इसकी गाज गिर सकती है।
खाद्य मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि चीनी निदेशालय में पिछले दिनों बड़े स्तर पर तबादले किए गए, जिसकी वजह से यह गड़बड़ी हुई। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक के लिए जनवरी माह के चीनी उत्पादन का आंकड़ा भेजना था, जो 58 लाख टन था। इसके विपरीत चीनी निदेशालय ने अक्तूबर से जनवरी तक पहले चार महीने के चीनी उत्पादन का 1.36 करोड़ टन का आंकड़ा भेज दिया था।
दोगुना से भी अधिक चीनी उत्पादन के मद्देनजर औद्योगिकी उत्पादन सूचकांक असामान्य तरीके से उछल पड़ा था। लेकिन हकीकत का पता चलने पर खाद्य मंत्रालय ने खेद जताते हुए संशोधित आंकड़ा भेजा। सूचकांक तैयार करने वाली पूरी प्रक्रिया कठघरे में आ गई है। खाद्य मंत्रालय ने इस मामले की आंतरिक जांच शुरू कर दी है।
चीनी के आंकड़ों में गड़बड़ी के चलते औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में हुई गफलत पर सरकारी आंकड़े तैयार करने वाली प्रक्रिया ही सवालों के घेरे में आ गई है। इस गंभीर चूक के लिए खाद्य मंत्रालय को जिम्मेदार ठहराया गया है। लेकिन उपभोक्ता मामले व खाद्य मंत्री केवी थामस ने तो इसके लिए कृषि मंत्रालय को दोषी बताकर खुद पल्ला झाड़ लिया है। उन्होंने कहा कि 'चीनी उत्पादन के जो आंकड़े उन्हें कृषि मंत्रालय से प्राप्त हुए थे, उन्हें उसी तरह आगे बढ़ा दिया गया था।Ó लेकिन यह पूरी तरह सच नहीं है।
खाद्य मंत्रालय के चीनी निदेशालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक चीनी उत्पादन के मासिक आंकड़े सभी मिलें सीधे खाद्य मंत्रालय को भेजती हैं। इसके अलावा राज्यों के गन्ना आयुक्तों की बैठक में इन आंकड़ों की पुष्टि की जाती है। कृषि मंत्रालय केवल गन्ना बुवाई का रकबा तैयार करता है।
गरीबों की गिनती में उत्तर भारत के राज्य पिछड़े
यूपी, उत्तराखंड समेत छह राज्यों में बीपीएल गणना का काम बहुत पीछे
हमने तय कर रखा है कि हर जगह पीछ रहेंगे, चाहे कुछ बंट रहा हो तो भी। कुछ करना हो तो भी। ऐसे में भला उद्धार कैसे होगा? कोई सवाल भी तो नहीं करता। जाति, वर्ग और संप्रदाय में बंटे उत्तरी राज्यों की राजनीति भी इसी पर स्थापित है। लीजिए बानगी। जब सारा देश जातीय व आर्थिक जनगणना में आगे दर आगे की होड़ में है, तब भी हम पीछे रहने को आतुर हैं।
उत्तर प्रदेश समेत आधा दर्जन राज्यों में गरीबों की गणना के साथ ही जातीय जनगणना पिछड़ गई है। जहां देश के ज्यादातर राज्यों में काफी पहले पूरी हो चुकी है, वहीं उत्तर प्रदेश में अभी इसका आगाज तक नहीं हुआ है। उत्तराखंड, उड़ीसा, मणिपुर, महाराष्ट्र और गोवा में भी यह जनगणना देर से शुरू हुई है। देश के सभी राज्यों में दिसंबर 2011 तक इस जनगणना को समाप्त होना था। लेकिन कुछ राज्यों के पिछडऩे से केंद्र सरकार चिंतित हो गई है।
दरअसल प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक के अमल का दारोमदार इसी जनगणना पर टिका है। यही वजह है कि इस स्थिति से चिंतित खाद्य मंत्री केवी थामस ने ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश को पत्र लिखकर जातीय व सामाजिक-आर्थिक जनगणना के बारे में विस्तार से जानकारी मांगी थी। जिसके जवाब में जयराम ने सभी राज्यों में जुलाई तक कार्य समाप्त होने को कहा है। ग्र्रामीण विकास मंत्री ने पिछले दिनों अपने लखनऊ दौरे समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से इस बारे में पूछा था। राज्य सरकार की ओर से बताया गया कि सामाजिक-आर्थिक जनगणना हर हाल में जून 2012 में शुरू हो जाएगी। यहां जनगणना तीन चरणों में होगी।
खाद्य सुरक्षा कानून के तहत 74 फीसदी ग्र्रामीण और 46 फीसदी शहरी उपभोक्ताओं को कानूनी तौर पर रियायती दरों पर खाद्यान्न प्राप्त करने का हक मिल जाएगा। लेकिन इसका निर्धारण उक्त जनगणना पर निर्भर करेगा। इसमें भी लगभग 50 फीसदी ग्रामीण और 28 फीसदी शहरी उपभोक्ता वरीयता वर्ग के होंगे, जिन्हें अति सस्ता अनाज वितरित किया जाएगा।
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Wednesday, April 11, 2012
छटेंगे बूढ़े श्रमिक, एफसीआइ में खुलेगी नई भर्ती
खाद्य सुरक्षा कानून के अमल से पहले सरकार खाद्यान्न भंडारण की सबसे बड़ी एजेंसी एफसीआइ के ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन करने की तैयारी में जुट गई है। आधुनिक भंडारण प्रणाली का मशीनीकरण कर श्रमिकों का उपयोग सीमित किया जाएगा। भंडारण क्षमता बढ़ाने के साथ एफसीआइ में कर्मचारियों व श्रमिकों की भारी में कटौती की जाएगी। बूढ़े श्रमिकों की छंटनी के साथ एफसीआइ में नए श्रमिकों की भर्ती की जाएगी।
केंद्रीय उपभोक्ता व खाद्य मंत्री थामस का कहना है कि उम्र दराज श्रमिकों को ढोना मुनासिब नहीं है। इनकी छंटनी होगी और उनकी जगह नई भर्तियां की जाएंगी। श्रमिकों की शारीरिक क्षमता का परीक्षण भी किया जाएगा। ऐसे श्रमिकों की बड़ी संख्या है, जिनकी उम्र कागज में तो कम दर्ज है, लेकिन असल में बूढ़े हो चले हैं। अब वे छद्म नाम से श्रमिक के तौर पर काम कर रहे हैं। ऐसे लोगों को कार्यमुक्त करना अपरिहार्य हो गया है। श्रमिक यूनियनें भी इसके लिए राजी हैं।
खाद्य मंत्री केवी थॉमस ने कहा कि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के अमल की राह में आने वाली मुश्किलों को समय से सुलझा लिया जाएगा। उन्होंने माना कि भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) का पुनर्गठन एक बड़ी चुनौती है। इसमें पर्याप्त सुधार की योजना तैयार कर ली गई है। खाद्य सब्सिडी कम करने के लिए कई तरह के खर्च में कटौती करनी होगी। थामस ने बताया कि चीन व अन्य देशों के आधुनिक रखरखाव की तर्ज पर यहां भी खाद्यान्न के लादने व उतारने का काम पल्लेदारों के बजाए मशीनें करेंगी।
गोदामों को मैकेनाइज्ड करने की राह में श्रमिक यूनियनें रोड़ा बनी हुई हैं। हालांकि एफसीआइ प्रबंधन उनसे लगातार चर्चा कर रहा है। खाद्य मंत्री थामस ने पहल करते हुए खुद उनसे कई दौर की बातचीत की है। नए श्रमिकों की भर्ती खोल दी जाएगी, जिससे यह समस्या खत्म हो सकती है। लेकिन इससे पहले एफसीआइ में बूढ़े हो चले श्रमिकों की छुïट्टी की जाएगी।
एफसीआइ में वर्तमान में लगभग 50 हजार से अधिक श्रमिक काम कर रहे हैं। इन्हें मोटे तौर पर चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है। पहले वर्ग में ठेका श्रमिक हैं। जबकि दूसरे वर्ग के श्रमिक एफसीआइ में पंजीकृत हैं और वो जितना काम करते हैं, उसी के अनुरूप मजदूरी का भुगतान किया जाता है। तीसरी श्रेणी के श्रमिकों को न्यूनतम वेतन के साथ उनके काम के आधार पर भुगतान किया जाता है। चौथी श्रेणी के श्रमिक एफसीआइ के स्थायी होते हैं, जिन्हें सरकारी कर्मचारी के तौर पर सभी सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं। इनकी भर्ती उक्त तीनों वर्ग में लंबे समय तक काम करने के बाद एक तयशुदा प्रक्रिया के तहत की जाती है।
गांवों की सड़क के लिए विदेशी कर्ज की दरकार
गांवों को सड़कों से जोडऩे वाली बहुचर्चित प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना को संचालित करने के लिए विदेशी कर्ज की दरकार है। हजारों करोड़ रुपये के कर्ज की पहली किश्त को मंजूरी मिल चुकी है। जबकि कर्ज की ढाई हजार करोड़ की दूसरी किश्त के लिए केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय कोशिश कर रहा है। विदेशी कर्ज का उपयोग ग्र्रामीण सड़क निर्माण में नई प्रौद्योगिकी और अनुसंधान के मद में किया जाएगा।
केंद्रीय ग्र्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने इसके लिए वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी से अनुमति मांगी है ताकि दूसरी किश्त के लिए एडीबी से समय से समझौता हो सके। ग्र्रामीण विकास मंत्रालय की सबसे सफल योजनाओं में गिनी जाने वाली प्रधानमंत्री ग्र्रामीण सड़क योजना (पीएमजीएसवाई) के लिए तत्काल धन की जरूरत है। इसका एक बड़ा हिस्सा विदेशी कर्ज से पूरा होता है।
पीएमजीएसवाई के लिए पिछले महीने ही एशियाई विकास बैंक (एडीबी) ने 4000 करोड़ रुपये के कर्ज की मंजूरी प्रदान की है। ग्रामीण विकास मंत्रालय का मानना है कि इतनी राशि से काम नहीं चलने वाला है, इसलिए 2500 करोड़ रुपये की दूसरी किश्त के लिए प्रस्ताव तैयार किया गया है। मसौदे को वित्त मंत्रालय के पास मंजूरी के लिए भेजा गया है। ग्र्रामीण विकास मंत्री रमेश ने वित्त मंत्री मुखर्जी को लिखे पत्र में प्रस्ताव का पूरा ब्यौरा दिया है।
ग्र्रामीण विकास मंत्रालय ने एडीबी के निर्धारित प्रारुप के मुताबिक तैयार प्रस्ताव वित्त मंत्रालय को भेजा गया है। एडीबी से प्राप्त ऋण का उपयोग मंत्रालय ग्र्रामीण सड़कों के निर्माण में नई प्रौद्योगिकी और अनुसंधान व विकास के लिए किया जाएगा। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने अपने पत्र में तैयार किए गए प्रस्ताव में विदेशी कर्ज वाले हिस्से के अनुपात का पूरा ध्यान रखने का हवाला दिया है।
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उपभोक्ता संरक्षण
उपभोक्ता अदालतों को और कारगर बनाने की तैयारी
राष्ट्रीय आयोग के सदस्यों को मिलेंगी हाईकोर्ट के जजों की सुविधाएं
उपभोक्ता फोरम के अध्यक्षों के बढ़ेंगे अधिकार
शिकायतों के निपटारे के लिए नियम-कानून होंगे सरल
उपभोक्ता अदालतों में खाली पदों को भरने के लिए सरकार का फैसला
उपभोक्ताओं के हित संरक्षण वाली अदालतों में जजों के खाली पदों को भरने के लिए सरकार ने नियमों को सरल बनाने का फैसला किया है। शिकायतों के समयबद्ध निपटारे के लिए जिला उपभोक्ता फोरम के अध्यक्षों को और अधिकार दिए जाएंगे। इसी तरह छोटी शिकायतों को भी उपभोक्ता अदालतों के दायरे में लाने का निर्णय किया गया है।
केंद्रीय उपभोक्ता मामले मंत्रालय ने यह प्रस्ताव तैयार किया है। इसके मुताबिक राष्ट्रीय उपभोक्ता शिकायत निवारण आयोग (एनसीडीआरसी) के सदस्यों को अब हाईकोर्ट के जजों की सेवा शर्तें और उनकी सुविधाएं उपलब्ध कराने का प्रस्ताव है। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय आयोग के 11 सदस्यों में से पांच पद रिक्त हैं। दूसरे प्रस्ताव में राज्य उपभोक्ता आयोग में सदस्यों की नियुक्ति की योग्यता को सरल बना दिया गया है। इसके तहत आयोग में सदस्यों की नियुक्ति के लिए संगठन अथवा विशेषज्ञों को भी स्थान दिया जा सकता है।
देश के तमाम जिला फोरम के अध्यक्षों के पद खाली होने से वहां की शिकायतों का निपटारा नहीं हो पा रहा है। यह बहुत पुरानी और गंभीर शिकायत है, जिसे सरकार ने काफी गंभीरता से लिया है। उपभोक्ता मंत्रालय ने कुछ प्रावधान किया है, इसके तहत जिन जिलों में अध्यक्ष के पद खाली होंगे, उसके पड़ोस वाले जिले के उपभोक्ता फोरम के अध्यक्ष को वहां का कार्यकारी अध्यक्ष नामित किया जा सकता है। इसके लिए राज्य आयोग की सहमति जरूरी है।
देश के 35 राज्यों के उपभोक्ता आयोग के अध्यक्ष की तीन पद और 629 सदस्यों में से 20 पद खाली चल रहे हैं। इसी तरह देश के 629 जिलों में से 60 अध्यक्षों के पद और 1250 सदस्यों में से 270 पद खाली हैं। इसके साथ छोटी शिकायतों को भी उपभोक्ता अदालतों के दायरे में लाने का प्रावधान किया गया है। साथ ही शिकायत के तरीके को और सरल बनाने का प्रयास किया गया है। इसके तहत पांच सौ रुपये वाले मामले भी यहां सुने जा सकेंगे, साथ ही शिकायतें आन लाइन भी की जा सकेंगी।
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केंद्र व सूबों की लड़ाई में फंसी गरीबों की गणना
गरीबी में आटा गीला
केंद्र व राज्यों के बीच की राजनीतिक कलह के चलते गरीबों की जनगणना भी अधर में लटक गई है। केंद्र और सूबों की इस राजनीतिक लड़ाई में गरीबों के पिसने की आशंका बढ़ गई है। गैर कांग्रेसी सरकार वाले ज्यादातर राज्यों में सामाजिक-आर्थिक जनगणना की सुगबुगाहट भी नहीं शुरू हो पाई है। इसकी वजह से गरीबों की योजनाओं के अमल में समस्या आ सकती है।
ज्यादातर राज्यों में गरीबों की जनगणना के तरीके पर ही एतराज है। उनके हिसाब से इसमें तमाम तरह की खामियां है, जिन्हें लेकर उन्होंने अपनी आपत्तियां पहले ही दर्ज करा दी हैं। उत्तर प्रदेश में बसपा और कांग्र्रेस के बीच राजनीतिक तकरार बाधा बनी हुई है। राज्य सरकार ने इस दिशा में कोई पहल ही नहीं की है। बिहार सरकार ने गरीबों की संख्या और गणना की प्रक्रिया को दोषपूर्ण करार दिया है। इसमें सुधार करने के लिए अकेले बिहार ने केंद्र से अतिरिक्त 90 करोड़ रुपये की मदद मांगी है।
सामाजिक-आर्थिक जनगणना दिसंबर 2011 तक पूरा करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। लेकिन देश के किसी भी राज्य में जनगणना पूरी नहीं हो पाई है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और गुजरात जैसे बड़े राज्यों में गरीबों की गणना चालू भी नहीं हो सकी है। यही नहीं, कांग्रेस शासित दिल्ली और केरल प्रदेश में भी जनगणना शुरू नहीं की जा सकी है। महाराष्ट्र में यह गणना पांच फीसदी क्षेत्रों में ही पूरी हो पाई है।
गरीबों की जनगणना में विलंब होने के बाबत ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, वहां देरी हो रही है। उनका कहना है कि महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय के चुनाव हैं। उड़ीसा में पंचायतों के चुनाव हो रहे हैं, जबकि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। लेकिन उनके इस दावे के विपरीत पंजाब में विधानसभा चुनाव होने हैं, पर वहां जनगणना अंतिम दौर में है। ग्रामीण विकास मंत्रालय को उम्मीद है कि जून 2012 तक सभी राज्यों में गरीबों की जनगणना का काम पूरा कर लिया जाएगा। सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से इस काम को प्राथमिकता के स्तर पर पूरा करने का आग्रह किया गया है।
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